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(क) पाठ- धूल, लेखक का नाम-रामविलास शर्मा।
(ख) हीरे के प्रेमी हीरे को साफ-सुथरा, सुडौल, चिकना चमकदार, और औखों में चकाचौंध-पैदा करने वाला देखना चाहते हैं क्योंकि हीरा जितना अधिक सुडौल और चमकदार होगा-उसका मूल्य उतना ही अधिक होगा।
(ग) ‘धूलि भरे हीरे’ से तात्पर्य है-मातृभूमि की धूल में लिपटकर बीता हुआ बचपन। शिशु को जमीन पर खेलना अच्छा लगता है। जमीन पर खेलने से वह धूल मिट्टी से भर जाता है। उसका सारा शरीर धूल से सने होने के कारण उसे धूल भरे हीरे कहा गया है।
(घ) भूल के बिना शिशु की कल्पना नहीं की जा सकती। क्योंकि शिशु को धूल से बचाकर रखा ही नहीं जा सकता। वह किसी न किसी बहाने जमीन पर खेलेगा और धूल से लथपथ हो जाएगा।
(क) पाठ- धूल, लेखक-राम विलास शर्मा।
(ख) गोधूलि को गाँव की संपत्ति कहा गया है। यह नगरों में नहीं होती। इसका कारण यह है कि गायों और -वालों के पैरों के चलने से उठी धूल को गोधूलि कहते हैं। शहरों में न तो गाएँ होती है और न ग्वाले और न उनके पैरों से उठी धूल। इसलिए गोधूलि गाँव की संपत्ति है न कि शहरों की।
(ग) पुस्तक विक्रेता ने निमंत्रण-पत्र में गोधूलि-बेला लिख दिया। परन्तु शहर में धूल- धक्कड़ के अतिरिक्त न तो ग्वाले है और न ही गायें और न ही उनके पैरों से उठने वाली धूल। इसलिए यह उसकी गलती थी।
(घ) कवियों ने उस धूल को अमर कर दिया जो गाँवों और -वालों के चलने से उनके पैरों से उड़ती है। यह हाथी-घोड़ों के पैरों के चलने से उठने वाली धूल नहीं है।
(क) पाठ- धूल, लेखक-राम विलास शर्मा।
(ख) हमारी देशभक्ति देश की धूलि को मस्तक पर धारण करने से प्रमाणित होगी। यदि इतना भी न कर सके तो उस धूल पर पैर तो अवश्य ही रखना चाहिए।
(ग) लेखक ने इस पंक्ति से व्यंग्य किया है कि हमें धूलि भरे हीरे में चमक नहीं दिखाई देती। बल्कि धूल दिखाई देती है। इसका आशय यह है कि हमें ग्रामीण लोगों की स्वाभाविकता और सच्चाई नज़र नहीं आती, उनमें फूहड़ता नजर आती है।
(घ) इस कथन का अभिप्राय है कि जैसे सच्चा हीरा हथौड़े की चोट से नहीं टूटता। उसी प्रकार से परिश्रमी किसान अपनी मजबूती और कठोरता से धूल-मिट्टी से लथपथ होने पर भी निरन्तर अपनी कर्म करता रहता है। वह संकट और कष्ट सहकर भी हार नहीं मानते बल्कि और अधिक मजबूत हो जाते है।
श्रद्धा विश्वास का प्रतीक है। भक्ति हृदय की भावनाओं का बोध कराती है। प्यार का बंधन स्नेह की भावनाओं को जोड़ता है। लोग कहते हैं कि धूल के समान तुच्छ कोई नहीं है, जबकि सभी धूल को माथे से लगाकर उसके प्रति अपनी भक्ति व्यक्त करते हैं। वीर योद्धा धूल को आँखों से लगाकर उसके प्रति अपनी श्रद्धा जताते हैं। हमारा शरीर भी मिट्टी से बना है। इस प्रकार धूल अपने देश के प्रति श्रद्धा, भक्ति और स्नेह व्यक्त करने का सर्वोत्तम साधन है।
लेखक ‘बालकृष्ण’ के मुँह पर छाई गोधूलि को इसलिए श्रेष्ठ मानता है क्योंकि यह धूल उनके सौन्दर्य को कई गुना बढ़ा देती है। तथा कृत्रिम प्रसाधन सामग्री की निरर्थकता को प्रकट किया गया है। फूलों के ऊपर रेणु उनकी शोभा को बढ़ाती है। वही शिशु के मुँह पर उसकी स्वाभाविक पवित्रता को निखार देती है। सौन्दर्य प्रसाधन उसे इतनी सुंदरता प्रदान नहीं करते जितनी धूल करती है। इसलिए लेखक धूल के बिना किसी शिशु की कल्पना कर ही नहीं सकता।
ग्रामीण परिवेश में प्रकृति धूल के अन्गिनत सुंदर चित्र प्रस्तुत करती है:
- ग्रामीण परिवेश में पले बड़े बच्चे धूल से सने दिखाई देते हैं। यह धूल उनके मुख पर उनकी सहज पवित्रता को निखार देती है।
- गाँव के अखाड़ों में भी धूल का प्रभाव दिखाई देता है यहाँ की मिट्टी तेल और मट्ठे से सिझाई हुई होती है जिसे देवता पर भी चढ़ाया जाता है।
- ग्रामीण परिवेश में शाम के समय जंगल से लौटते हुए गायों के खुरों से उठती धूल गोधूलि की पवित्रता को प्रमाणित करती है।
- सूर्यास्त के उपरांत बैलगाड़ी के निकल जाने के बाद उसके पीछे उड़ने वाली धूल रुई के बादल के समान दिखाई देती है या ऐरावत हाथी के नक्षत्र-पथ की भाँति जहाँ की तहाँ स्थिर रह जाती है।
- चाँदनी रात में मेले जाने वाली गाड़ियों के पीछे जो कवि की कल्पना उड़ती चलती है, वह शिशु के मुँह पर, धूल की पंखुड़ियों के समान सौंदर्य बनकर छा जाती है।
- गाँव के किसानों के हाथ-पैर तथा मुँह पर छाई धूल हमारी सभ्यता को प्रकट करती है।
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लेखक ने काँच और हीरे में अंतर बताते हुए कहा है कि हीरा अनमोल होता है। उसके भीतर की चमक चाहे हमारी आँखों के सामने से ओझल रहे किन्तु वह अमर होता है। वह कभी गहरी चोट लगने पर भी टूटता नहीं है और कभी पलटकर वार नहीं करता। वास्तविक हीरे की परख हथौड़े की चोट पर खरी उतरती है। हीरे को पहचानने के लिए पारखी दृष्टि अनिवार्य है नहीं तो काँच की चमक मन मोह लेती है। हीरे को देखकर उसके प्रेमी उसे साफ-सुथरा खरादा हुआ, आँखों में चकाचौंथ पैदा करता हुआ देखना चाहते है। उसके भीतरी सुन्दरता का भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। काँच की चमक नश्वरता का प्रतीक है। उसके पीछे दौड़ना मूर्खता का पर्याय है।
संसर्ग - सम् + सर्ग
उपमान - उप + मान
संस्कृति - सम् + कृति
दुर्लभ – दुर + लाभ
निर्द्वद्व - निर + द्वंद्व
प्रवास - प्र + वास
दुर्भाग्य - दुर + भाग्य
अभिजात - अभि + जात
संचालन - सम् + चालन
(i) धूल में मिलना-मोहन ने परिश्रम से चित्रकारी की थी लेकिन मीता ने उस पर पानी डालकर उसे धूल में मिला दिया।
(ii) धूल से खेलना-हम बचपन से ही धूल में खेल-खेलकर बड़े हुए हैं।
(iii) धूल चाटना-पुलिस की मार खाकर अपराधी धूल चाटने लगा।
(iv) धूल फाँकना-अखिल इतनी डिग्रियाँ होते हुए काम न मिलने कारण इधर-उधर धूल फाँकता फिर रहा है।
(v) धूल उड़ना-चुनाव हार जाने के कारण उसके घर पर धूल उड़ने लगी।
लेखक ने धूल की महिमा का बखान करने के लिए निम्नलिखित रूपक बाँधे हैं:
- अमराइयों के पीछे छिपे सूर्य की किरणों मे आलोकित धूलि सोने को मिट्टी कर देती है।
- सूर्यास्त के उपरांत लीक पर गाड़ी के निकल जाने के बाद जो रूई के बादल की तरह या ऐरावत हाथी के नक्षत्र-पथ की भाँति जहाँ की तहाँ स्थिर रह जाती है।
- चाँदनी रात में मेले जाने वाली गाड़ियों के पीछे जो कवि की कल्पना की भांति उड़ती चलती है।
- जो शिशु के मुँह पर फूल की पंखुड़ियों पर साकार सौन्दर्य बनकर छा जाती हैं
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