भारतीय इतिहास के कुछ विषय Ii Chapter 8 किसान जमींदार और राज्य
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    NCERT Solution For Class 12 ������������������ भारतीय इतिहास के कुछ विषय Ii

    किसान जमींदार और राज्य Here is the CBSE ������������������ Chapter 8 for Class 12 students. Summary and detailed explanation of the lesson, including the definitions of difficult words. All of the exercises and questions and answers from the lesson's back end have been completed. NCERT Solutions for Class 12 ������������������ किसान जमींदार और राज्य Chapter 8 NCERT Solutions for Class 12 ������������������ किसान जमींदार और राज्य Chapter 8 The following is a summary in Hindi and English for the academic year 2021-2022. You can save these solutions to your computer or use the Class 12 ������������������.

    Question 1
    CBSEHHIHSH12028311

    कृषि इतिहास लिखने के लिए आइन को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने में कौन सी समस्याएँ हैं? इतिहासकार इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं?

    Solution

    समस्याएँ: कृषि इतिहास लिखने के लिए 'आइन' को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने में निम्नलिखित समस्याएँ हैं:

    1. इतिहासकारों ने ध्यान से आइन का अध्ययन किया उनके अनुसार विभिन्न स्थानों पर जोड़ करने में कई गलतियाँ पाई गई हैं। उनका मानना हैं कि यह गलतियाँ अबुल-फज़ल के सहयोगियों कि गलती से हुई होगीं या फिर नक़ल उतारने वालो कि गलती से।  
    2. आइन इसके संख्यात्मक आकड़ों में भी विषमताएँ हैं। सभी सूबों से आकँड़े एक ही शक्ल में नहीं एकत्रित किए
      गए। मसलन, जहाँ कई सूबों के लिए जमींदारों की जाति के मुतलिक विस्तृत सूचनाएँ संकलित की गईं, वहीं बंगाल और उड़ीसा के लिए ऐसी सूचनाएँ मौजूद नहीं हैं।
    3. जहाँ सूबों से लिए गए राजकोषीय आकँड़े बड़ी तफ़सील से दिए गए हैं, वहीं उन्हीं इलाकों से कीमतों और मज़दूरी जैसे इतने ही महत्त्वपूर्ण मापदंड इतने अच्छे से दर्ज़ नहीं किए गए हैं।
    4. कीमतों और मजदूरी की दरों की जो विस्तृत सूची आइन में दी भी गई है वह साम्राज्य की राजधानी आगरा या उसके इर्द-गिर्द के इलाकों से ली गई है। जाहिर है कि देश के बाकी हिस्सों के लिए इन आँकडों की प्रासंगिकता सीमित है।

    समस्या से निपटना: इतिहासकार मानते हैं कि इस तरह कि समस्याएँ तब आती हैं जब व्यापक स्तर पर इतिहास लिखा जाता हैं । इन समस्याओं से निपटने के लिए इतिहासकार आइन के साथ साथ उन स्त्रोतों का भी प्रयोग कर सकते हैं जो मुगलों की राजधानी से दूर के प्रदेशों में लिखे गए थे। जोड़ इत्यादि की गलतियों का निदान पुन:जोड़ करके इतिहासकार इसे स्त्रोत के रूप में प्रयोग कर लेता हैं। 

    Question 2
    CBSEHHIHSH12028312

    सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को किस हद तक महज़ गुज़ारे के लिए खेती कह सकते हैं? अपने उत्तर के कारण स्पष्ट कीजिए

    Solution

    सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में दैनिक आहार की खेती पर ज्यादा जोर दिया जाता था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि उस काल में खेती केवल गुजारा करने के लिए की जाती थी। तब तक खेती का स्वरूप काफ़ी बदल गया था। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं :

    1. मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी : एक खरीफ (पतझड़ में) और दूसरी रबी (वसंत में) । यानी सूखे इलाकों और बंजर जमीन को छोड़ दें तो ज्यादातर जगहों पर साल में कम से कम दो फसलें
      होती थीं। जहाँ बारिश या सिंचाई के अन्य साधन हर वक्त मौजूद थे वहाँ तो साल में तीन फसलें भी उगाई जाती थीं।
    2. तत्कालीन स्रोतों में जिन्स-ए-कामिल अर्थात् सर्वोत्तम फ़सलें जैसे लफ्ज़ मिलते हैं। मुगल राज्य भी किसानों को ऐसी फ़सलों की खेती करने के लिए बढ़ावा देता था क्योंकि इनसे राज्य को ज्यादा कर मिलता था। कपास और गन्ने जैसी फ़सलें बेहतरीन जिन्स-ए-कामिल थीं। चीनी, तिलहन और दलहन भी नकदी फ़सलों के अंतर्गत आती थीं। इससे पता चलता है कि एक औसत किसान की ज़मीन पर किस तरह पेट भरने के लिए होने वाले उत्पादन और व्यापार के लिए किए जाने वाले उत्पादन एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।

    Question 3
    CBSEHHIHSH12028313

    कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का विवरण दीजिए।

    Solution

    कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का विवरण इस प्रकार दिया गया हैं: 

    1. मध्यकालीन भारतीय कृषि समाज में उत्पादन प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। खेतिहर अर्थात् किसान परिवारों से संबंधित महिलाएँ कृषि उत्पादन में सक्रिय सहयोग प्रदान करती थीं तथा पुरुषों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर खेतों में काम करती थीं।
    2. पुरुष खेतों की जुताई और हल चलाने का काम करते थे। महिलाएँ मुख्य रूप में बुआई, निराई तथा कटाई का काम करती थीं और पकी हुई फ़सल का दाना निकालने में भी सहयोग प्रदान करती थीं।
    3. उत्पादन के कुछ पहलू; जैसे-सूत कातना, बरतन बनाने के लिए मिट्टी को साफ़ करना और गूँधने, कपड़ों पर कढ़ाई करना आदि मुख्य रूप से महिलाओं के श्रम पर ही आधारित थे। किसी वस्तु का जितना वाणिज्यीकरण होता था, उसके उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की माँग उतनी ही अधिक होती थी।
    4. किसान और दस्तकार महिलाएँ न केवल खेती में सहयोग प्रदान करती थीं। अपितु आवश्यकता होने पर नियोक्ताओं के घरों में भी काम करती थीं और अपने उत्पादन को बेचने के लिए बाजारों में भी जाती थीं।

    Question 4
    CBSEHHIHSH12028314

    विचाराधीन काल में मौद्रिक कारोबार की अहमियत की विवेचना उदाहरण देकर कीजिए।

    Solution

    विचाराधीन काल (16वीं और 17वीं सदी )में मौद्रिक कारोबार की अहमियत पर विवरण निम्नलिखित हैं:

    1. सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में किसानों को नकदी अथवा जिन्स में भू-राजस्व अदा करने की छूट दी गई थी। किसानों को नकदी में भू-राजस्व भुगतान की सुविधा के कारण मौद्रिक कारोबार को भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करने का अवसर मिला।
    2. ग्रामीण शिल्पकार (कुम्हार, लोहर, नाई, बढ़ई, सुनार) ग्रामीण लोगों को विशेष प्रकार की सेवा प्रदान करते थे। फसल कटने और पकने पर प्राय: उन्हें फसल का एक हिस्सा दिया जाता था लेकिन इस व्यवस्था के साथ-साथ किसान और शिल्पकार परस्पर लेन-देन के बारे में आपस शर्तें तय करके प्राय: लोगों को नकदी में भुगतान करते थे।
    3. गाँव में प्राय: स्थानीय छोटे व्यापारी और सराफ पाए जाते थे। प्राय: उन्हें नकदी में लेने देन करने का अधिक शौक था। पंचायते भी अपराधियों पर नकद जुर्माने लगाती थी। आम परिस्थितियों में शहरों और गाँवों में वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय होता था। परिणाम-स्वरूप ग्रामों के कारोबार में भी मौद्रिकीकरण का महत्व बढ़ने लगा था।
    4. निर्यात के लिए उत्पादन करने वाले दस्तकारों को भी उनकी मज़दूरी का भुगतान अथवा अग्रिम भुगतान नकद रूप में ही किया जाता था।

    Question 5
    CBSEHHIHSH12028315

    उन सबूतों की जाँच कीजिए जो ये सुझाते हैं कि मुग़ल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व बहुत महत्वपूर्ण था।

    Solution

    जमींन से मिलने वाला राजस्व मुगुल साम्राज्य की आर्थिक बुनियाद थी। इसलिए कृषि उत्पादन पर नियंत्रण रखने के लिए और तेजी से फैलते साम्राज्य के तमाम इलाकों में राजस्व आकलन व वसूली के लिए एक प्रशासनिक तंत्र का होना आवश्यक था। अत: सरकार ने ऐसी हर सम्भव व्यवस्था की जिससे राज्य में सारी कृषि योग्य भूमि की जुताई सुनिश्चित की जा सके। राज्य की आर्थिक स्थिति तथा कोष इस बात पर निर्भर करते थे कि भू-राजस्व कितना तथा कैसे एकत्रित किया जा रहा है।
    भू-राजस्व के इंतजामात में दो चरण थे: पहला, कर निर्धारण और दूसरा, वास्तविक वसूली। जमा निर्धारित रकम थी और हासिल सचमुच वसूली गई रकम। अमील-गुजार या राजस्व वसूली करने वाले के कामों की सूची में अकबर ने यह हुक्म दिया कि जहाँ उसे(अमील-गुजार को) कोशिश करनी चाहिए कि खेतिहर नकद भुगतान करे, वहीं फसलों में भुगतान का विकल्प भी खुला रहे।
    हर प्रान्त में जुती हुई ज़मीन और जोतने लायक जमीन दोनों की नपाई की गई। अकबर के शासन काल में अबुल फ़ज़्ल ने आइन में ऐसी जमींनों के सभी आकड़ों को संकलित किया। उसके बाद के बादशाहों के शासनकाल में भी जमीन की नपाई केप्रयास जारी रहे।

    Question 6
    CBSEHHIHSH12028316

    आपके मुताबिक कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक संबंधों को प्रभावित करने में जाति किस हद तक एक कारक थी?

    Solution

    कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक संबंधों को प्रभावित करने में जाति की भूमिका:

    1. जाति और जाति जैसे अन्य भेदभावों की वजह से खेतिहर किसान कई तरह के समूहों में बँटे थे। खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की थी जो नीच समझे जाने वाले कामों में लगे थे, या फिर खेतों में मज़दूरी करते थे।
    2. यद्यपि खेती लायक ज़मीन की कमी नहीं थी, फिर भी कुछ जाति के लोगों को सिर्फ़ नीच समझे जाने वाले काम ही दिए जाते थे। इस तरह वे गरीब रहने के लिए मजबूर थे। गाँव की आबादी का बहुत बड़ा भाग ऐसे ही लोगों का था। इनके पास सबसे कम संसाधन थे और ये जाती-व्यवस्था के बंधनों में बँधे थे। इनकी दशा बहुत ही दयनीय थी । 
    3. दूसरे संप्रदायों में भी ऐसे भेदभाव फैलने लगे थे। मुसलमान समुदायों में हलालखोरान जैसे 'नीच ' कामों से जुड़े समूह गाँव की हदों के बाहर ही रह सकते थे; इसी तरह बिहार में मल्लाहजादाओं (शाब्दिक अर्थ, नाविकों के पुत्र), की तुलना दासों से की जा सकती थी।
    4. समाज के निचले तबकों में जाति, गरीबी और सामाजिक हैसियत के बीच सीधा रिश्ता था। ऐसा बीच के समूहों में नहीं था। सत्रहवीं सदी में माडवाड़ में लिखी गई एक किताब राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में करती है। इस किताब के मुताबिक जाट भी किसान थे लेकिन जाति व्यवस्था में उनकी जगह राजपूतों के मुकाबले नीची थी।
    5. सत्रहवीं सदी में राजपूत होने का दावा वृंदावन (उत्तर प्रदेश) के इलाके में गौरव समुदाय ने भी किया, बावजूद इसके कि वे जमीन की जुताई के काम में लगे थे। पशुपालन और बागबानी में बढ़ते मुनाफे की वजह से अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियाँ सामाजिक सीढ़ी में ऊपर उठीं। पूर्वी इलाकों में, पशुपालक और मछुआरी जातियाँ, जैसे सदगोप व कैवर्त भी किसानों की सी सामाजिक स्थिति पाने लगीं।

    Question 7
    CBSEHHIHSH12028317

    मुग़ल भारत में जमींदारों की भूमिका की जाँच कीजिए।

    Solution
    1. मुग़ल भारत में जमींदार ज़मीन के मालिक होते थे। इन्हें ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत की वजह से कुछ खास सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ मिली हुई थीं। समाज में ज़मींदारों की उच्च स्थिति के दो कारण थे। उनकी जाती तथा उनके द्वारा राज्य को दी जाने वाली विशेष सेवाएँ।
    2. जमींदारों की समृद्धि की वजह थी उनकी विस्तृत व्यक्तिगत ज़मीन। इन्हें मिल्कियत कहते थे, यानी संपत्ति। मिल्कियत जमीन पर जमींदार के निजी इस्तेमाल के लिए खेती होती थी। अकसर इन जमीनों पर दिहाड़ी के मज़दूर या पराधीन मज़दूर काम करते थे।
    3. जमींदार अपनी मर्ज़ी के मुताबिक इन ज़मीनों को बेच सकते थे, किसी और के नाम कर सकते थे या उन्हें गिरवी रख सकते थे। ज़मींदारों को राज्य की ओर से कर वसूलने का अधिकार प्राप्त होता था। इसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवज़ा मिलता था।
    4. सैनिक संसाधन जमींदारों की शक्ति का एक अन्य साधन था। अधिकांश ज़मींदारों के पास अपने किले भी थे और अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी जिसमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे।
    5. यदि हम मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों को एक पिरामिड के रूप में देखें तो जमींदार इसके संकरे शीर्ष का भाग थे अर्थात् उनका स्थान सबसे ऊँचा था।
    6. जमींदारों ने खेती लायक जमींनों को बसाने में अगुआई की और खेतिहरों को खेती के साजो-सामान व उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में भी मदद की।
    7. ज़मींदारी की खरीद-बिक्री से गाँवों से मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेज़ी आई। ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि जमींदार एक प्रकार का हॉट (बाजार) स्थापित करते थे जहाँ किसान फ़सलें बेचने आते थे।
    Question 8
    CBSEHHIHSH12028318

    पंचायत और गाँव का मुखिया किस तरह से ग्रामीण समाज का नियमन करते थे? विवेचना कीजिए।

    Solution

    शताब्दियों के काल में ग्रामीण समाज में पंचायत और मुखिया का अत्याधिक महत्वपूर्ण स्थान था। ग्रामीण समाज के नियमन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। गाँव की सारी व्यवस्था का संचालन पंचायत द्वारा ही किया जाता था। 

    पंचायतों का गठन: गाँव की पंचायतों में मुख्य रूप से बुजुर्गों का ही जमावड़ा होता था। प्राय: वे गाँव के महत्वपूर्ण लोग हुआ करते थे जिनके पास अपनी सम्पति होती थी। जिन गाँवों में कई जातियों के लोग रहते थे, वहाँ अकसर पंचायत में भी विविधता पाई जाती थी। यह एक ऐसा अल्पतंत्र तथा जिसमें गाँव के अलग-अलग संप्रदायों और जातियोंकी नुमाइंदगी होती थी। पंचायत का फैसला गाँव में सबको मानना पड़ता था।

    पंचायत का मुखिया: गाँव की पंचायत मुखिया के नेतृत्व में कार्य करती थी। इससे मुख्य रूप से मुकद्दम या मंडल कहते थे। कुछ स्रोतों से प्रतीत होता हैं कि मुखिया का चुनाव गाँव के बुज़ुर्गों की आम सहमति से होता था और इस चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंज़ूरी ज़मींदार से लेनी पड़ती थी। मुखिया अपने ओहदे पर तभी तक बना रहता था जब तक गाँव के बुजुर्गों को उस पर भरोसा था। ऐसा नहीं होने पर बुजुर्ग उसे बर्खास्त कर सकते थे। गाँव के आमदनी व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का मुख्य काम था और इसमें पंचायत का पटवारी उसकी मदद करता था। गाँव की आमदनी, खर्च व अन्य विकास कार्यों के करवाने की ज़िम्मेदारी उसकी होती थी।

    पंचयात के कार्य (ग्रामीण समाज का नियमन): ग्राम पंचयात व मुखिया को गाँव के विकास तथा व्यवस्था की देख-रेख में कार्य करने होते थे। इनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार हैं:

    1. गाँव की आय व खर्च के नियंत्रण का कार्य गाँव की पंचायत का ही था। गाँव का अपना एक खजाना होता था जिसमें गाँव के प्रत्येक परिवार का अपना एक हिस्सा होता था। इस खजाने का प्रयोग पंचायत गाँव के विकास कार्यों में किया करती थी।
    2. पंचायत का एक बड़ा काम यह तसल्ली करना होता था कि गाँव में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के लोग अपनी जाति की हदों के अंदर रहें।
    3. जाति की अवहेलना रोकने के लिए लोगों केआचरण पर नजर रखना गाँव के मुखिया की ज़िम्मेदारी हुआ करती थी।
    4. पंचायतों को जुर्माना लगाने और समुदाय से निष्कासित करने जैसे ज्यादा गंभीर दंड देने के अधिकार थे। समुदाय से बाहर निकालना एक कड़ा कदम था जो एक सीमित समय के लिए लागू किया जाता था। इसके तहत दंडित व्यक्ति को (दिए हुए समय केलिए) गाँव छोड़ना पड़ता था। इस दौरान वह अपनी जाती तथा व्यवस्था से हाथ धो बैठता था। ऐसी नीतियों का उद्देश्य जातिगत रिवाज़ों की अवहेलना को रोकना था।

    Question 9
    CBSEHHIHSH12028319

    सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगल वासियों की जिदंगी किस तरह बदल गई?

    Solution

    सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगल वासियों की जिदंगी में परिवर्तन के लिए बहुत से कारण जिम्मेदार थे। इनमें से मुख्य का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से हैं:

    1. जंगलवासियों के जीवन में बदलाव बाहरी शक्तियों के जंगल में हस्तक्षेप से शुरू हुआ। जंगल में बाहरी ताकतें कई तरह से घुसती थीं, मसलन, राज्य को सेना के लिए हाथियों की जरूरत होती थी।
    2. वाणिज्यिक खेती का असर भी एक बाहरी कारक था जो जंगलवासियों के जीवन को प्रभावित करता था। जंगल के उत्पाद-जैसे शहद, मधुमोम और लाक की बहुत माँग थी। लाक जैसी कुछ वस्तुएँ तो सत्रहवीं सदी में भारत से समुद्र पार होने वाले निर्यात की मुख्य वस्तुएँ थीं। हाथी भी पकड़े और बेचे जाते थे। व्यापार के तहत वस्तुओं की अदला-बदली भी होती थी।
    3. सामाजिक कारणों से भी जंगलवासियों के जीवन में बदलाव आए। कबीलों के भी सरदार होते थे, बहुत कुछ ग्रामीण समुदाय के ''बड़े आदमियों'' की तरह। कई कबीलों के सरदार जमींदार बन गए कुछ तो राजा भी हो गये। ऐसे में उन्हें सेना खड़ी करने की जरूरत हुई। उन्होंने अपने ही खानदान के लोगों को सेना में भर्ती किया; या फिर अपने ही भाई-बंधुओं से सैन्य सेवा की माँग की।
    4. व्यापारिक गतिविधियाँ भी जंगलवासियों के जीवन में बदलाव एक मुख्य कारण हैं। कुछ छोटे कबीले दो बस्तियों के बीच रहते थे। इन्होंने इन बस्तियों को जोड़ने के लिए व्यापारिक कार्य करने शुरू कर दिए। इस काल में कुछ कबीले गाँव व शहर के बीच व्यापार की कड़ी का काम कर रहे थे। इनके ऊपर गाँव व शहर दोनों की जीवन-शैली का प्रभाव पड़ रहा था।
    5. जंगल के इलाकों में नए सांस्कृतिक प्रभावों के विस्तार की भी शुरुआत हुई। कुछ इतिहासकारों ने तो दरअसल यह भी सुझाया है कि नए बसे इलाकों के खेतिहर समुदायों ने जिस तरह धीरे-धीरे इस्लाम को अपनाया उसमें सूफ़ी संतों (पीर) ने एक बड़ी भूमिका निभाई थी।

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