सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को किस हद तक महज़ गुज़ारे के लिए खेती कह सकते हैं? अपने उत्तर के कारण स्पष्ट कीजिए
सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में दैनिक आहार की खेती पर ज्यादा जोर दिया जाता था, लेकिन इसका यह मतलब नहीं था कि उस काल में खेती केवल गुजारा करने के लिए की जाती थी। तब तक खेती का स्वरूप काफ़ी बदल गया था। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैं :
- मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी : एक खरीफ (पतझड़ में) और दूसरी रबी (वसंत में) । यानी सूखे इलाकों और बंजर जमीन को छोड़ दें तो ज्यादातर जगहों पर साल में कम से कम दो फसलें
होती थीं। जहाँ बारिश या सिंचाई के अन्य साधन हर वक्त मौजूद थे वहाँ तो साल में तीन फसलें भी उगाई जाती थीं। - तत्कालीन स्रोतों में जिन्स-ए-कामिल अर्थात् सर्वोत्तम फ़सलें जैसे लफ्ज़ मिलते हैं। मुगल राज्य भी किसानों को ऐसी फ़सलों की खेती करने के लिए बढ़ावा देता था क्योंकि इनसे राज्य को ज्यादा कर मिलता था। कपास और गन्ने जैसी फ़सलें बेहतरीन जिन्स-ए-कामिल थीं। चीनी, तिलहन और दलहन भी नकदी फ़सलों के अंतर्गत आती थीं। इससे पता चलता है कि एक औसत किसान की ज़मीन पर किस तरह पेट भरने के लिए होने वाले उत्पादन और व्यापार के लिए किए जाने वाले उत्पादन एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।