Question
आपके मुताबिक कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक संबंधों को प्रभावित करने में जाति किस हद तक एक कारक थी?
Solution
कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक संबंधों को प्रभावित करने में जाति की भूमिका:
- जाति और जाति जैसे अन्य भेदभावों की वजह से खेतिहर किसान कई तरह के समूहों में बँटे थे। खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की थी जो नीच समझे जाने वाले कामों में लगे थे, या फिर खेतों में मज़दूरी करते थे।
- यद्यपि खेती लायक ज़मीन की कमी नहीं थी, फिर भी कुछ जाति के लोगों को सिर्फ़ नीच समझे जाने वाले काम ही दिए जाते थे। इस तरह वे गरीब रहने के लिए मजबूर थे। गाँव की आबादी का बहुत बड़ा भाग ऐसे ही लोगों का था। इनके पास सबसे कम संसाधन थे और ये जाती-व्यवस्था के बंधनों में बँधे थे। इनकी दशा बहुत ही दयनीय थी ।
- दूसरे संप्रदायों में भी ऐसे भेदभाव फैलने लगे थे। मुसलमान समुदायों में हलालखोरान जैसे 'नीच ' कामों से जुड़े समूह गाँव की हदों के बाहर ही रह सकते थे; इसी तरह बिहार में मल्लाहजादाओं (शाब्दिक अर्थ, नाविकों के पुत्र), की तुलना दासों से की जा सकती थी।
- समाज के निचले तबकों में जाति, गरीबी और सामाजिक हैसियत के बीच सीधा रिश्ता था। ऐसा बीच के समूहों में नहीं था। सत्रहवीं सदी में माडवाड़ में लिखी गई एक किताब राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में करती है। इस किताब के मुताबिक जाट भी किसान थे लेकिन जाति व्यवस्था में उनकी जगह राजपूतों के मुकाबले नीची थी।
- सत्रहवीं सदी में राजपूत होने का दावा वृंदावन (उत्तर प्रदेश) के इलाके में गौरव समुदाय ने भी किया, बावजूद इसके कि वे जमीन की जुताई के काम में लगे थे। पशुपालन और बागबानी में बढ़ते मुनाफे की वजह से अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियाँ सामाजिक सीढ़ी में ऊपर उठीं। पूर्वी इलाकों में, पशुपालक और मछुआरी जातियाँ, जैसे सदगोप व कैवर्त भी किसानों की सी सामाजिक स्थिति पाने लगीं।