कह न देना मौन हूँ मैं,
खुद ना समझुँ कौन हूँ मैं,
देखना कुछ बक न देना,
उन्हें कोई शक न देना,
हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवें को वे न तरसें।,
प्रसंग- प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ भवानीप्रसाद मिश्र रचित कविता ‘घर की याद’ के ‘पिता’ शीर्षक से अवतरित हैं। कवि जेल में घर की याद करके सावन को दूत बनाकर अपने पिता को संदेश भेजता है-
व्याख्या-हे सावन! वहाँ जाकर पिताजी से यह मत कह देना कि मैं यहाँ जेल में चुपचाप और शान्त रहता हूँ। यह भी मत कह देना कि मैं यहाँ स्वयं को भी नहीं पहचान पाक कि मैं कौन हूँ। वहाँ जाकर पिताजी से उल्टा-पुल्टा मत कह देना कि उन्हें मेरे बारे में कोई संदेह न हो जाय। तुम वहाँ ऐसा कहना कि उन्हें कोई कष्ट न हो। यदि तुम यहाँ की वास्तविकता का वर्णन कर दोगे तो वे वहाँ दुखी होंगे। हे सजीले हरे- भरे सावन! हे पुण्यात्मा! हे परम पावन! तुम तो जी चाहे बरस लो पर वहाँ जाकर ऐसा कोई दुखपूर्ण वर्णन मत कर देना कि पिताजी की अश्रुधारा बरसने लगे। वहां जाकर पिताजी से ऐसा मत कहना कि पिताजी अपने पाँचवें पुत्र भवानी के लिए तड़पने लगें या मिलने के लिए तरसने लगें। मैं यहाँ सोचता हूँ कि वे सदैव सुखी रहें और मुस्कराते रहें, उन्हें कोई पीड़ा न सताए।
विशेष- 1. प्रस्तुत पंक्तियों में भवानीप्रसाद मिश्र ने खड़ी बोली की छंदमुक्त कविता का प्रयोग किया है। तत्सम, तद्भव शब्दावली युक्त भाषा मुहावरों से परिपूर्ण है। ‘पुण्य-पावन’ में अनुप्रास अलंकार है। सावन को संदेशवाहक बनाकर भेजा गया है। यमक अलंकार का भी प्रयोग है। भाषा सरल और जनसाधारण योग्य है। कवि सावन से तो बरसने को कहता है परन्तु पिताजी की अश्रुधारा बरसने पर चिन्तित है। वह संदेश भेजता है कि उनका पाँचवाँ पुत्र भवानी जेल में स्वस्थ और सानन्द है। बस, घर पर नहीं है, इसी बात से सभी परिवारी-जन चिन्तित हैं।