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महादेवी वर्मा के जीवन का परिचय देते हुए उनकी रचनाओं के नाम एवं साहित्यिक वैशिष्टय पर प्रकाश डालिए तथा भागा-शैली की विशेषताएँ लिखिए।
जीवन-परिचय: महादेवी वर्मा आधुनिक हिन्दी काव्यधारा की अन्यतम कवयित्री हैं। उनका जन्म 1907 ई में फर्रूखाबाद (उ .प्र.) में हुआ। आधुनिक हिन्दी साहित्य के तीन युग उनकी रचनाधर्मिता से विभूषित रहे हैं। छायावाद युग से लेकर आज तक उन्होंने हिन्दी साहित्य को अनेकविध रूपों में समृद्ध एवं समुन्नत किया है। वे उच्च कोटि की विदुषी एवं धार्मिक तथा संस्कारनिष्ठ महिला हैं। एक लम्बे समय तक वे आचार्य के सम्मानजनक पद पर कार्यरत रहीं। प्रयाग उनका कर्मक्षेत्र रहा। हिंदी साहित्य जगत् में उनकी अपूर्व सेवाओं के लिए उन्हें ‘यामा’ पर भारतीय ज्ञानपीठ साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। यह महादेवी का ही नही हिन्दी साहित्य का गौरव है कि उक्त पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने आपको ‘परभू-गुण’ से सम्मानित किया। 1987 ई में इनका निधन हुआ।
साहित्य सर्जना (रचनाएँ): महादेवी एक उच्च कोटि की रहस्यवादी-छायावादी कवयित्री हैं। उनकी काव्य रचनाएँ हैं-नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा, यामा। आधुनिक कविता भाग-1, संधिनी और परिक्रमा उनके अन्य काव्य संकलन हैं जिनमें संकलित कविताएँ नीहार, रश्मि, नीरजा आदि से ली गई हैं। इनके अतिरिक्त महादेवी ने गद्य में भी उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाएँ की हैं।
महादेवी के निबंध संग्रह हैं-श्रृंखला की कड़ियाँ, क्षणदा, संकल्पिता तथा ‘भारतीय संस्कृति के स्वर’। उनके संस्मरणात्मक रेखाचित्रों के संकलन हैं-’अतीत के चलचित्र’, ‘स्मृति की रेखाएँ, ‘पथ के साथी और ‘मेरा परिवार’।
साहित्यिक वैशिष्य: महादेवी मूलत: अपनी छायावादी रचनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने छायावाद को नई चेतना और नये मूल्यों में मंडित किया। उनकी भाषा, उनकी अभिव्यक्ति अप्रस्तुत विधान के अत्यंत मनभावने सौंदर्य से समन्वित है। महादेवी ने लोक-धुनो को शास्त्रीय संगीत की राग-रागनियों में ढाला है। महादेवी के गीतों को आँसू से भीगे हुए गीतों की संज्ञा दी गई है। उनकी रचनाओ में माधुर्य, मार्दव प्रांजलता, एक अबूझ ऊष्मा, करुणा, रोमांस प्रेम की गहन पीड़ा और एक अनिवर्चनीय आनंद की महत् अनुभूति का स्वर बोलता है। उनके गीतों को पढ़ते समय पाठक का मन भीग उठता है और एक अजीब-सी तरलता उसकी चेतना पर छा जाती है। उन्हें आधुनिक युग की मीरा कहा जाता है। कोमल कल्पना और सूक्ष्म अनुभूति के साथ आपकी कविता में संगीतमयी और रंगीन भाषा भी मिलती है। उनकी कविता में रहस्य और दार्शनिकता का विशेष पुट रहता है। कवयित्री के रूप में तो महादेवी प्रसिद्ध हैं ही आधुनिक हिंदी गद्य को भी आपने अनुपम दान दिया है। आपके गद्य में काव्य की-सी ही संवेदना और चित्रात्मकता मिलती है। समाज-सेवा के अपने कार्य के दौरान महादेवी को अपने जनों को निकट से देखने का जो अवसर मिला उसी ने उन्हें पहले-पहल गद्य लिखने की ओर आकर्षित किया। निकट संपर्क में आने वाले इन साधारण जनों के जीवन को महादेवी ने अपने संस्मरणात्मक रेखाचित्रों में इतनी बारीकी और सहानुभूति से अंकित किया है कि वे हिन्दी में अपने ढंग की बेजोड़ रचनाएँ मानी जाती है। उन्हें पढ़कर हमें उन रेखाचित्रों के पात्रों की अनुभूति तो होती है, साथ ही हम लेखिका की सूक्ष्मदर्शिता गहरी भावना और कुशल शैली से भी प्रभावित होते हैं।
भाषा-शैली: महादेवी वर्मा की भाषा संस्कृतनिष्ठ है। इनकी काव्य भाषा में सिक्कों की-सी झनक और चमक है। इन्होंने छायावादी शैली के अनुरूप कोमलकांत पदावली का प्रयोग किया है। उन्होंने मानवीकरण एवं प्रतीकों को विशेष अर्थों में प्रयुक्त किया है। दीपक झंझा उनके प्रिय प्रतीक हैं।
महादेवी वर्मा ने वर्णनात्मक विचारात्मक एवं भावात्मक शैली को अपनाया है। उन्हें तत्सम शब्दों के प्रति गहरा लगाव है। उनकी गद्य-शैली सरस और प्रवाहपूर्ण है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
सेवक-धर्म में हनुमान जी से स्पर्द्धा करने वाली भक्तिन किसी अंजना की पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है-नाम है लछमिन अर्थात् लक्ष्मी। पर जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है, वैसे ही लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी। वैसे तो जीवन में प्राय: सभी को अपने-अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है; पर भक्तिन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृद्धि-सूचक नाम किसी को बताती नहीं। केवल जब नौकरी की खोज में आई थी, तब ईमानदारी का परिचय देने के लिए उसने शेष इतिवृत्त के साथ यह भी बता दिया; पर इस प्रार्थना के साथ कि मैं कभी नाम का उपयोग न करूँ। उपनाम रखने की प्रतिभा होती, तो मैं सबसे पहले उसका प्रयोग अपने ऊपर करती, इस तथ्य को वह देहातिन क्या जाने, इसी से जब मैंने कंठी माला देखकर उसका नया नामकरण किया तब वह भक्तिन-जैसे कवित्वहीन नाम को पाकर भी गद्गद हो उठी।
1. भक्तिन की तुलना किससे की गई है और क्यों?
2. भक्तिन और लेखिका दोनों के नामों को दुर्वह क्यों कहा गया है?
3. ‘सभी को अपने-अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है’ वाक्य को एक उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
4. लेखिका ने भक्तिन को समझदार क्यों कहा है?
1. भक्तिन की तुलना हनुमान जी से की गई है। हनुमान जी राम के अनन्य सेवक थे। इसी प्रकार भक्तिन लेखिका की अनन्य सेविका थी।
2. भक्तिन का वास्तविक नाम लछमिन अर्थात् लक्ष्मी था। यह नाम उसकी गरीबी की दशा के विपरीत था। यह नाम उसके लिए दुर्वह था। इसी प्रकार लेखिका का नाम महादेवी भी उन्हें दुर्वह प्रतीत होता है। इससे उनके अत्यधिक बड़े होने का अहसास होता है। उन्हें यह नाम विशाल प्रतीत होता है।
3. वास्तविकता में कई बार विरोधाभास होता है। जैसे एक झगड़ालू स्त्री का नाम शांति रख दिया गया हो। यह नाम उसके लिए विरोधाभासी लगेगा।
4. लेखिका ने भक्तिन को समझदार इसलिए कहा है क्योंकि वह अपना असली नाम (लक्ष्मी) किसी को नहीं बताती। यह नाम तो समृद्धि सूचक है। इस नाम को सुनकर और उसकी दशा को देखकर लोग उसका मजाक उड़ाएंगे। वह हँसी का पात्र नहीं बनना चाहती। अत: वह समझदार है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
पिता का उस पर अगाध प्रेम होने के कारण स्वभावत: ईर्ष्यालु और संपत्ति की रक्षा में सतर्क विमाता ने उनके मरणांतक रोग का समाचार तब भेजा, जब वह मृत्यु की सूचना भी बन चुका था। रोने-पीटने के अपशकुन से बचने के लिए सास ने भी उसे कुछ न बताया। बहुत बिन से नैहर नहीं गई, सो जाकर देख आवे, यही कहकर और पहना-उड़ाकर सास ने उसे विदा कर दिया। इस अप्रत्याशित अनुग्रह ने उसके पैरों में जो पंख लगा दिये थे, वे गाँव की सीमा में पहुँचते ही झड़ गये। ‘हाय लछमिन अब आई’ की अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण दृष्टियाँ उसे घर तक ठेल ले गई। पर वहाँ न पिता का चिन्ह शेष था, न विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था। दुःख से शिथिल और अपमान से जलती हुई वह उस घर में पानी भी बिना पिये उलटे पैरों ससुराल लौट पड़ी। सास को खरी-खोटी सुनाकर उसने विमाता पर आया हुआ क्रोध शांत किया और पति के ऊपर गहने फेंक-फेंककर उसने पिता के चिर विछोह की मर्मव्यथा व्यक्त की।
1. विमाता ने किस कारण पिता के बारे में सूचना भेजने में विलम्ब किया? सास ने भी क्या सोचकर उसे नहीं बताया?
2. वह किस रूप में कहाँ क्यों गई?
3. भक्तिन ने अपने नैहर जाकर क्या सुना और क्या देखा?
4. विमाता के व्यवहार पर लछमिन ने ससुराल में क्या प्रतिक्रिया प्रकट की?
1. विमाता जानती थी कि लछमिन पर पिता का बहुत प्रेम था अत: वह ईर्ष्यालु हो गई थी। वह संपत्ति में भी उसका हिस्सा नहीं देना चाहती थी। अत: उसने पिता-पुत्री के मेल में बाधक की भूमिका का निर्वाह किया। जब पिता (विमाता का पति) मृत्यु शैया पर था तभी समाचार दिया गया। सास ने भी रोने-पीटने के अपशकुन से बचने के लिए बहू को यह बात नहीं बताई।
2. लछमिन (भक्तिन) बहुत दिनों से नैहर (पिता के घर) नहीं गई थी (वह पिता की मृत्यु से अनभिज्ञन थी) अत: उसने वहाँ जाकर देख आने की इच्छा से जाने का निश्चय किया। वहाँ जाने के लिए वह बहुत उत्साहित थी। सास ने भी उसे अच्छा पहना-उड़ाकर भेजा था।
3. भक्तिन ने अपने नैहर में जाकर लोगों (विशेषकर स्त्रियों) की शिकायती आवाजें (अस्फुट स्वर में) सुनी-हाय लछमिन अब आई अर्थात् पिता की मृत्यु पर तो आई नहीं, अब आई है। ये बातें बार-बार दोहराई जा रही थीं। वैसे लोग स्पष्ट रूप से सहानुभूति प्रकट कर रहे थे अर्थात् उनका चरित्र दोहरा था।
4. घर पहुँचकर उसने पिता को न देखा और ऊपर से विमाता ने अशिष्ट व्यवहार किया। इससे वह दु:खी और अपमानित हुई। पानी भी पिए बिना-वह उल्टे पाँव ससुराल लौट आई। क्रोध की प्रतिक्रियास्वरूप उसने सास को खूब खरी-खोटी बातें सुनाई और पति के ऊपर गहने फेंक-फेंककर पिता के वियोग की व्यथा को अभिव्यक्त किया।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
जीवन के दूसरे परिच्छेद में भी सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक है। जब उसने गेहुएँ रंग और बटिया जैसे मुख वाली पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले तब सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उपेक्षा प्रकट की। उचित भी था क्योंकि सास तीन-तीन कमाऊ वीरों की विधात्री बनकर मचिया के ऊपर विराजमान पुरखिन के पद पर अभिषिक्त हो चुकी थी ओर दोनों जिठानियाँ काक-भुशंडी जैसे काले लालों की क्रमबद्ध सृष्टि करके इस पद के लिए उम्मीदवार थीं। छोटी बहू के लीक छोड़कर चलने के कारण उसे दंड मिलना आवश्यक हो गया।
जिठानियाँ बैठकर लोक-चर्चा करतीं और उनके कलूटे लड़के धूल उड़ाते; वह मट्ठा फेरती, कुटती, पीसती, राँधती और उसकी नन्हीं लड़कियाँ गोबर उठातीं, कडे पाथती। जिठानियाँ अपने भात पर सफेद राब रखकर गाढ़ा दूध डालती और अपने लड़कों को औटते हुए दूध पर से मलाई उतारकर खिलाती।। वह काले गुड़ की डली के साथ कठौती में मरा पाती और उसकी लड़कियाँ चने-बाजरे की घुघरी चबातीं।
1. पाठ तथा लेखिका का नाम बताइए।
2. लछमिन के जीवन के दूसरे परिच्छेद में क्या हुआ?
3. जिठानियाँ क्या करती थीं?
4. लछमिन की लड़कियों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता था?
1. पाठ का नाम: भक्तिन।
लेखिका का नाम: महादेवी वर्मा।
2. लछमिन के जीवन के दूसरे परिच्छेद अर्थात् भाव में भी दु:ख था। उसके तीन बेटियाँ हुई, जो गेहुएँ रंग और बटिया जैसे मुख वाली थीं। इन बेटियों के कारण वह सास एवं जिठानियों की उपेक्षा का शिकार बनी।
3. जिठानियाँ हर समय लोक-चर्चा अर्थात् दूसरों की चर्चा करती रहती थीं। वे मट्ठा फेरती, कूटती, पीसती और खाना पकातीं। वे भात पर सफेद राब रखकर गाढ़ा दूध डालतीं और अपने लड़कों को दूध की मलाई खिलाती थीं। वे स्वयं काम न करके लछमिन से और उसकी लड़कियों से काम करवाती थीं।
4. लछमिन की लड़कियों के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया जाता था। उनसे गोबर उठवाया जाता तथा कंडे पथवाए जाते थे। उन्हें खाने के लिए भी चने-बाजरे की घुघरी मिलती थी।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
इस दंड-विधान के भीतर कोई ऐसी धारा नहीं थी, जिसके अनुसार खोटे सिक्कों की टकसाल-जैसी पत्नी से पति को विरक्त किया जा सकता। सारी चुगली-चबाई की परिणति, उसके पत्नी-प्रेम को बढ़ाकर ही होती थी। जिठानियाँ बात-बात पर धमाधम पीढी-कटी जातीं; पर उसके पति ने उसे कभी उँगली भी नहीं छुआई। वह बड़े बाप की बड़ी बात वाली बेटी को पहचानता था। इसके अतिरिक्त परिश्रमी, तेजस्विनी और पति के प्रति रोम-रोम से सच्ची पत्नी को वह चाहता भी बहुत रहा होगा, क्योंकि उसके प्रेम के बल पर ही पत्नी ने अलगौझा करके सबको अँगूठा दिखा दिया। काम वही करती थी, इसलिए गाय-भैंस, खेत-खलिहान, अमराई के पेड़ आदि के संबंध में उसी का ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। उसने छाँट-छाँट कर, ऊपर से असंतोष के साथ और भीतर से पुलकित होते हुए जो कुछ लिया, वह सबसे अच्छा भी रहा, साथ ही परिश्रमी दंपति के निरंतर प्रयास से उसका सोना बन जाना भी स्वाभाविक हो गया।
1. यहाँ दंड विधान की बात क्यों की जा रही है?
2. लछमिन के पति के व्यवहार में अन्य की तुलना में क्या विचित्रता थी?
3. वह किस बात से परिचित था?
4. किस के बल पर लछमिन अपने जीवन के सघंर्ष को जीत पाई?
1. यहाँ दंड-विधान की बात लछमिन (भक्तिन) के संदर्भ में की जा रही है। इसका कारण है कि उसने तीन-तीन बेटियों को जन्म दिया पर पुत्र रत्न उत्पन्न नहीं कर सकी जबकि जिठानियों के पुत्र थे। अत: उसे दंडित करने की बात उठी। यह ठीक था कि वह खोटे सिक्के ढालने वाली टकसाल के समान थी, पर उसे किसी भी दंड के द्वारा पति से अलग नहीं किया जा सकता था।
2. लछमिन के पति का व्यवहार उसके प्रति प्रेमपूर्ण था। जबकि उसके भाई अपनी पत्नियों की पीटा-कूटी (मारपीट) करते रहते थे पर उसने कभी भी लछमिन को उँगली तक नहीं छुआई थी। वह उसे रोम-रोम से चाहता था।
3. लछमिन का पति इस बात से भलीभांति परिचित था कि उसकी पत्नी बड़े बाप की बड़ी बात करने वाली बेटी है। इसके अतिरिक्त वह उसके परिश्रमी स्वभाव को भी जानता था।
4. पति के प्रेम के बलबूते पर ही लछमिन बँटवारा करके सबको अँगूठा दिखा पाई थी। उसका खेती एवं पशुओं के बारे में बहुत ज्ञान था। वह इसी के बलबूते पर अपने जीवन-संघर्ष को जीत पाई थी। वह काफी कुछ पा गई थी।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
भक्तिन का दुर्भाग्य भी उससे कम हठी नहीं था, इसी से किशोरी से युवती होते ही बड़ी लड़की भी विधवा हो गई। भइयहू से पार न पा सकने वाले जेठों और काकी को परास्त करने के लिए कटिबद्ध जिठौतों ने आशा की एक किरण देख पाई। विधवा बहिन के गठबंधन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया, क्योंकि उसका हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता। भक्तिन की लड़की भी माँ से कम समझदार नहीं थी, इसी से उसने वर को नापसंद कर दिया। बाहर के बहनोई का आना चचेरे भाइयों के लिए सुविधाजनक नहीं था, अत: यह प्रस्ताव जहाँ-का-तहाँ रह गया। तब वे दोनों माँ-बेटी खूब मन लगाकर अपनी संपत्ति की देख-भाल करने लगीं और मान न मान मैं तेरा मेहमान की कहावत चरितार्थ करने वाले वर के समर्थक उसे किसी-न-किसी प्रकार की पदवी पर अभिषिक्त करने का उपाय सोचने लगे।
1. भक्तिन का दुर्भाग्य क्या था? उसके दुर्भाग्य में किसे, क्या दिखाई दिया?
2. जिठौत ने क्या उपाय ढूँढ निकाला?
3. उस प्रस्ताव का क्या हश्र हुआ?
4. इसका माँ-बेटी तथा वर के समर्थकों पर क्या प्रभाव पड़ा?
1. भक्तिन का दुर्भाग्य बड़ा ही हठी था। अभी उसकी बड़ी लड़की किशोरी से युवती बन ही रही थी कि उसका पति मर गया और वह असमय ही विधवा हो गई। उसके इस दुर्भाग्य में जिठौतों (जेठ के पुत्रों) को आशा की यह किरण दिखाई दी कि वे विधवा. बहन का पुनर्विवाह कराकर उसकी माँ की संपत्ति पर कब्जा कर सकेगें।
2. जिठौत ने यह उपाय सोचा कि वह अपने तीतर लड़ाने। वाले साले के साथ अपनी विधवा बहन का विवाह करा दे। इससे सब कुछ उन्हीं के अधिकार में आ जाता।
3. तीतर लड़ाने वाले साले से विधवा बहन के विवाह का प्रस्ताव जहाँ-का-तहाँ रह गया। भक्तिन की लड़की ने वर को नापसंद कर दिया। बाहर के बहनोई का आना चचेरे भाइयों को भी सुविधाजनक नहीं था।
4. माँ-बेटी खूब मन लगाकर अपनी संपत्ति की देखभाल करने लगीं। वर के समर्थक उसे किसी-न-किसी-प्रकार उस विधवा लड़की का पति बनाने के प्रयास में जुट गए।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
एक दिन माँ की अनुपस्थिति में वर महाशय ने बेटी की कोठरी में घुसकर भीतर से द्वार बंद कर लिया और उसके समर्थक गाँव वालों को बुलाने लगे। अहीर युवती ने जब इस डकैत वर की मरम्मत कर कुंडी खोली, तब पंच बेचारे समस्या में पड़ गये। तीतरबाज युवक कहता था, वह निमंत्रण पाकर भीतर गया और युवती उसके मुख पर अपनी पाँचों उँगलियों के उभार में इस निमंत्रण के अक्षर पढ़ने का अनुरोध करती थी। अंत में दुध-का-दूध पानी-का-पानी करने के लिए पंचायत बैठी और सबने सिर हिला-हिलाकर इस समस्या का मूल कारण कलियुग को स्वीकार किया। अपीलहीन फैसला हुआ कि चाहे उन दोनो में एक सच्चा हो चाहे दोनों झुठे; पर जब वे एक कोठरी से निकले, तब उनका पति-पत्नी के रूप में रहना ही कलियुग के दोष का परिमार्जन कर सकता है। अपमानित बालिका ने ओठ काटकर लहू निकाल लिया और माँ ने आग्नेय नेत्रों से गले पड़े दामाद को देखा। संबंध कुछ सुखकर नहीं हुआ, क्योंकि दामाद अब निश्चित होकर तीतर लड़ाता था और बेटी विवश क्रोध से जलती रहती थी। इतने यत्न से सँभाले हुये गाय-डोर, खेती-बारी अब पारिवारिक द्वेष में ऐसे झुलस गए कि लगान अदा करना भी भारी हो गया, सुख से रहने की कौन कहे। अंत में एक बार लगान न पहुँचने पर जमींदार ने भक्तिन को बुलाकर दिन भर कड़ी धूप में खड़ा रखा। यह अपमान तो उसकी कर्मठता में सबसे बड़ा कलंक बन गया, अत: दूसरे ही दिन भक्तिन कमाई के विचार से शहर आ पहुँची।
1. एक दिन बेटी के साथ क्या घटित हुआ?
2. बेटी ने डकैत वर के साथ क्या व्यवहार किया?
3. पंचायत ने किस आधार पर क्या निर्णय दिया?
4. दामाद क्या करता था और बेटी किस स्थिति में रहती थी?
5. घर की आर्थिक स्थिति कैसी हो गई?
1. एक दिन बेटी की माँ की अनुपस्थिति में वर महाशय उसकी कोठरी में घुस गया और उसने भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। उसके समर्थकों ने गाँव वालों को भी बुला लिया।
2. बेटी ने डकैत वर के गाल पर पाँचों उँगलियाँ छाप दी थीं अर्थात् थप्पड़ मारा था। इससे स्पष्ट था कि उसने उसे कोई निमंत्रण नहीं दिया था।
3. पंचायत ददूध-का-दूधपानी-का-पानी करने के इरादे से बैठी। कलियुग का प्रभाव स्वीकार करते हुए भी यह अपीलहीन फैसला हुआ कि चाहे कोई सच्चा है या झूठा पर कुछ समय के लिए पति-पत्नी के रूप में रहे हैं अत: उन्हें अब विवाह करके ही रहना होगा। इसी से दोष का परिमार्जन हो सकता है।
4. दामाद निश्चित होकर तीतर लड़ाता था और बेटी विवश होकर क्रोध में जलती रहती थी।
5. घर की आर्थिक स्थिति निरंतर गिरती चली गई। सुख से रहने की बात तो रही नहीं। वे लगान तक चुकाने में असमर्थ हो गए थे। एक बार भक्तिन को सजा के तौर पर सारे दिन कड़ी धूप में खड़ा रहना पड़ा था। भक्तिन को कमाई के लिए शहर में जाना पड़ा।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
शास्त्र का प्रश्न भी भक्तिन अपनी सुविधा के अनुसार सुलझा लेती है। मुझे स्त्रियों का सिर मुटाना अच्छा नहीं लगता, अत: मैंने भक्तिन को रोका। उसने अकुंठितभाव से उत्तर दिया कि शास्त्र में लिखा है। कुतूहलवश मैं पूछ ही बैठी-’क्यालिखा है?’ तुरंत उत्तर मिला-‘तीरथ गए मुँडाए सिद्ध।’ कौन-से शास्त्र का यह रहस्यमय सूत्र है, यह जान लेना मेरे लिए संभव ही नहीं था। अत: मैं हारकर मौन हो रही और भक्तिन का चूड़ाकर्म हर बृहस्पतिवार को एक दरिद्र नापित के गगंगा जल से धुले उस्तरे द्वारा निष्पन्न होता रहा।
पर वह मूर्ख है या विद्या-बुद्धि का महत्त्व नहीं जानती, यह कहना असत्य कहना है। अपने विद्या के अभाव को वह मेरी पढ़ाई-लिखाई पर अभिमान करके भर लेती है। एक बार जब मैंने सब काम करने वालों से अँगूठे के निशान के स्थान में हस्ताक्षर लेने का नियम बनाया तथा भक्तिन बड़े कष्ट में पड़ गई, क्योंकि एक तो उससे पढ़ने की मुसीबत नहीं उठाई जा सकती थी, दूसरे सब गाड़ीवान दाइयों के साथ बैठकर पढ़ना उसकी वयोवृद्धता का अपमान था। अत: उसने कहना आरंभ किया-‘हमारे मलकिन तौ रात-दिन कितबियन मा गड़ी रहती हैं। अब हमहूँ पढ़ै लागब तो घर-गिरिस्ती कउन देखी-सुनी।’
1. पाठ तथा लेखिका का नाम बताइए।
2. भक्तिन हर हफ्ते क्या करवाती थी? क्यों?
3. भक्तिन किस मुसीबत में पड़ गई?
4. भक्तिन ने अपनी पढ़ाई का क्या बहाना निकाला?
1. पाठ का नाम: भक्तिन।
लेखिका का नाम: महादेवी वर्मा।
2. भक्तिन हर हफ्ते बृहस्पतिवार को गंगाजल से धुले उस्तरे से अपने बाल उतरवाती थी। भक्तिन विधवा थी। उसकी समझ के अनुसार शास्त्रो में ऐसा लिखा है कि विधवा को सिर मुँडाए बिना सिद्धि नहीं मिलती। वह शास्त्र में बताए नियम का पालन करती थी।
3. एक बार लेखिका ने अपने यहाँ काम करने वालों से अँगूठा के निशान के स्थान पर हस्ताक्षर करने का नियम बनाया। उस समय भक्तिन मुसीबत में पड़ गई। एक तो वह पड़ने की मुसीबत नहीं उठा सकती थी, दूसरे वह गाड़ीवान और दाइयों के साथ बैठकर पढ़ना उसकी वृद्धावस्था का अपमान था।
4. भक्तिन ने अपनी पढ़ाई का यह बहाना निकाला उसने कहा कि हमारी मालकिन तो हर समय किताबो में डूबी रहती है अर्थात् पढ़ती-लिखती रहती है। अगर मैं भी पढ़ने-लिखने बैठ गई तो घर-गृहस्थी का काम कौन करेगा?
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
पर वह स्वयं कोई सहायता नहीं दे सकती, इसे मानना अपनी हीनता स्वीकार करना है-इसी से वह द्वार पर बैठकर बार-बार कुछ काम बताने का आग्रह करती है। कभी उत्तर-पुस्तकों को बाँधकर, कभी अधूरे चित्र को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाई को आँचल से झाड़कर वह जैसी सहायता पहुँचाती है, उससे भक्तिन का अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। वह जानती है कि जब दूसरे मेरा हाथ बटाने की कल्पना तक नहीं कर सकते, तब वह सहायता की इच्छा को किर्यात्मक रूप देती है, इसी से मेरी किसी पुस्तक के प्रकाशित होने पर उसके मुख पर प्रसन्नता की आभा वैसी ही उद्भासित हो उठती है, जैसे स्विच दबाने से बल्ब में छिपा आलोक। वह सूने में उसे बार-बार छूकर, औंखों के निकट ले जाकर और सब ओर घुमा-फिराकर मानो अपनी सहायता का अंश खोजती है और उसकी दृष्टि में व्यक्त आत्मघोष कहता है कि उसे निराश नहीं होना पड़ता। यह स्वाभाविक भी हे। किसी चित्र को पूरा करने में व्यस्त, मैं जब बार-बार कहने पर भी भोजन के लिए नहीं उठती, तब वह कभी दही का शर्बत, कभी तुलसी की चाय वहीं देकर भूख का कष्ट नहीं सहने देती।
1. कौन, किससे, क्या आग्रह करती है? क्यों?
2. वह क्या-क्या काम करती थी? इससे क्या प्रमाणित हो जाता है?
3. लेखिका की पुस्तक प्रकाशित होने पर भक्तिन की क्या दशा होती है?
4. भक्तिन लेखिका को किस समय भूख का कष्ट नहीं सहने देती?
1. भक्तिन लेखिका से यह आग्रह करती है कि वह उसे कुछ काम करने को बतायें। वह कोई सहायता न करके अपनी हीनता स्वीकार नहीं करना चाहती है।
2. वह कभी उत्तर पुस्तिकाओं को बाँधती थी, कभी अधूरे चित्र को कोने में रख देती थी कभी रग की प्याली धो देती थी, कभी चटाई को झाडू देती थी। उसके इन कामों से उसका अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है।
3. जब कभी लेखिका की कोई पुस्तक प्रकाशत होती है तब भक्तिन के चेहरे पर उसकी मुस्कारहट की आभा देखी जा सकती है। यह स्थिति कुछ इस प्रकार का होती है जैसे स्विच दबाने मे बबल्बमें प्रकाश चमक उठता है।
4. जब लेखिका चित्र को पूरा करने में व्यस्त हो जाती और भक्तिन के कहने पर भी भोजन के लिए-नहीं उठती तब भक्तिन कभी दही का शर्बत (लस्सी) तो कभी तुलसी की चाय बनाकर उन्हें पिलाती और इससे उनकी भूख को शांत करती।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
भक्तिन और मेरे बीच में सेवक स्वामी का संबंध है, यह काफी कठिन है, क्योंकि ऐसा कोई स्वामी नहीं हो सकता, जो अच्छा होने पर भी सेवक की अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोई सेवक भी नहीं सुना गया, जो स्वामी के चले जाने का आदेश पाकर अवज्ञा से हंस दे। भक्तिन को नौकर कहना उतना ही असंगत है, जितना अपने घर में बारी-बारी से आने-जाने वाले अंधेरे-उजाले और आंगन में फूलने वाले गुलाब और आम को सेवक मानना।
1. क्या कहना कठिन है?
2. भक्तिन और लेखिका के परस्पर संबंध को स्पष्ट कीजिए।
3. लेखिका द्वारा नौकरी से हटकर चले जाने का आदेश पाकर भक्तिन की क्या प्रतिक्रिया होती थी?
4. भक्तिन को नौकर कहना कितना असंगत है?
1. यह कहना कठिन है कि भक्तिन और लेखिका के बीच सेवक स्वामी का संबंध है।
2. भक्तिन लेखिका के घर में सेविका का कार्य करती थी लेकिन लेखिका के हृदय में उनके प्रति अपार श्रद्धा तथा प्रेमभाव था। वह उसे एक सेविका न मानकर अपने परिवार का सदस्य मानती थी। लेखिका उसके साथ कभी भी नौकर-मालिक जैसा व्यवहार नहीं करती थी।
3. लेखिका जब कभी परेशान होकर भक्तिन की नौकरी से हटकर चले जाने का आदेश दे देती थी तो उस आदेश को सुनकर भक्तिन हँस दिया करती थी। वह वहाँ से बिल्कुल भी नहीं हिलती थी।
4. भक्तिन को नौकर कहना उतना ही असंगत है जितना अपने घर में बारी-बारी से आने-जाने वाले अँधेरे-उजाले और आंगन में फूलने वाले गुलाब और आम को सेवक मानना।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
भक्तिन के संस्कार ऐसे हैं कि वह कारागार से वैसे ही डरती है, जैसे यमलोक से। ऊँची दीवार देखते ही, वह खि मूँदकर बेहोश हो जाना चाहती है। उसकी यह कमजोरी इतनी प्रसिद्धि पा चुकी है कि लोग मेरे जेल जाने की संभावना बता-बताकर उसे चिढ़ाते रहते हैं। वह डरती नहीं, यह कहना असत्य होगा; पर डर से भी अधिक महत्व मेरे साथ का ठहरना है। चुपचाप मुझसे पूछने लगती है कि वह अपनी दै धोती साबुन से साफ कर ले, जिससे मुझे वहाँ उसके लिए लज्जित न होना पड़े। क्या-क्या सामान बाँध ले, जिससे मुझे वहाँ किसी प्रकार की असुविधा न हो सके। ऐसी यात्रा में किसी को किसी के साथ जाने का अधिकार नहीं, यह आश्वासन भक्तिन के लिए कोई मूल्य नहीं रखता। वह मेरे न जाने की कल्पना से इतनी प्रसन नहीं होती, जितनी अपने साथ न जा सकने की संभावना से अपमानित। भला ऐसा अँधेर हो सकता है। जहाँ मालिक वहाँ नौकर-मालिक को ले जाकर बंद कर देने में इतना अन्याय नहीं; पर नौकर को अकेले मुक्त छोड़ देने में पहाड़ के बराबर अन्याय है। ऐसा अन्याय होने पर भक्तिन को बड़े लाट तक लड़ना पड़ेगा। किसी की माई यदि बड़े लाट तक नहीं लड़ी, तो नहीं लड़ी; पर भक्तिन का तो बिना लड़े काम ही नहीं चल सकता।
1. भक्तिन किस बात से डरती है और क्यों?
2. डरकर वह क्या पूछने लगती है?
3. वह किस बात से स्वयं को अपमानित अनुभव करती है?
4. भक्तिन किस बात पर बड़े लाट तक लड़ना चाहती है?
1. भक्तिन कारागार (जेल) से वैसे ही डरती है जैसे वह यमलोक से डरती है। इसका कारण यह है कि भक्तिन के संस्कार ही कुछ इस प्रकार के हैं। ऊँची दीवार देखकर ही वह आँख मूँदकर बेहोश हो जाती है।
2. लेखिका के जेल जाने की संभावना से डरकर भक्तिन उनसे यह पूछने लगती है कि वह क्या-क्या सामान बाँध ले ताकि वहाँ असुविधा का सामना न करना पड़े।
3. जब वह जानती है कि वह वहाँ लेखिका के साथ नहीं जा पाएगी तो वह इस संभावना से स्वयं को अपमानित अनुभव करती है।
4. भक्तिन की दृष्टि में यह सबसे बड़ा अन्याय है कि मालिक को तो बंद कर दिया जाए और नौकर को अकेले मुका छोड़ दिया जाए। यह अन्याय है और वह इसके खिलाफ बड़े लाट तक जाएगी और लड़ाई करेगी। भक्तिन यह लड़ाई अवश्य लड़ेगी।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
मेरे परिचितों और साहित्यिक बंधुओं से भी भक्तिन विशेष परिचित है, पर उनके प्रति भक्तिन के सम्मान की मात्रा, मेरे प्रति उनके सम्मान की मात्रा पर निर्भर है और सद्भाव उनके प्रति मेरे सद्भाव से निश्चित होता है। इस संबंध में भक्तिन की सहजबुद्धि विस्मित कर देने वाली है।
1. भक्तिन किन लोगों के प्रति सम्मान एवं सद्भाव रखती थीं?
2. भक्तिन में कौन-कौन से गुण थे?
3. भक्तिन का कौन-सा गुण विस्मित कर देने वाला था?
4. भक्तिन की सहज बुद्धि विस्मित कर देने वाल क्यों थीं?
1. भक्तिन उन लोगों के प्रति सम्मान एवं सदभाव रखती थी जो लोग उनकी मालकिन के प्रति समान की भावना रखते थे। लेखिका से सद्भाव रखते थे।
2. भक्तिन के कर्त्तव्यपरायणता, सेवाभाव, सद्भाव सम्मान की भावना सहजबुद्धि, समर्पण ‘आदि गुण थे। वह अपने कार्य के साथ-साथ साहित्यिक बंधुओं से भी विशेष परिचित थी।
3. भक्तिन में वैसे भी सम्मान की भावना और सद्भाव विशेष था लेकिन उनकी सहजबुद्धि से सोचकर विस्मित कर देने वाली थीं।
4. भक्तिन की सहजबुद्धि इसलिए विस्मित कर देने वालो थी क्योंकि वह अपनी सहजबुद्धि से सोचकर केवल उन लोगों के प्रति सम्मान एवं सद्भाव रखती थी जो उनकी मालकिन के प्रति सम्मान एव सम्मान रखते थे।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है, वैसे ही लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बंध सकी। वैसे तो जीवन में प्राय: सभी को अपने-अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है, पर भक्तिन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृद्धि-सूचक नाम किसी को बताती नहीं। केवल जब नौकरी की खोज मं आई थी, तब ईमानदारी का परिचय देने के लिए उसने शेष इतिवृत्त के साथ यह भी बता दिया. पर इस प्रार्थना के साथ कि मैं कभी नाम का उपयोग न करूँ। उपनाम रखने की प्रतिभा होती, तो मैं सबसे पहले उसका प्रयोग अपने ऊपर करती, इस तथ्य को वह देहातिन क्या जाने।
1. वह ‘देहातिन’ कौन थी? उसने अपने नाम का उपयोग न करने की प्रार्थना लेखिका से क्यों की?
2. ‘मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है’-कैसे? स्पष्ट कीजिए।
3. आशय स्पष्ट कीजिए-लक्ष्मी की समृद्धि कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी।
4. लेखिका और उसके घर में काम करने वाली भक्तिन के वास्तविक नामों में ऐसा क्या विरोधाभास था जिसे लेकर दोनों को जीना पड़ रहा था?
1. वह देहातिन भक्तिन (लछमिन अर्थात् लक्ष्मी) थी। उसने लेखिका से अपने नाम का उपयोग न करने की प्रार्थना इसलिए की थी क्योंकि उसका असली नाम समृद्धिसूचक था जबकि उसका जीवन दीन-हीन था। लक्ष्मी नाम उसके जीवन के अनुरूप न था। अत: वह इसे छिपाना चाहती थी।
2. ‘महादेवी’ नाम लेखिका के लिए दुर्वह है। लेखिका चाहकर भी अपने नाम महादेवी के अनुरूप महान देवी नहीं बन पाई। इस नाम की विशालता का वहन करना उसके लिए सरल काम नहीं है।
3. लक्ष्मी समृद्धि की प्रतीक है। लक्ष्मी को दुर्भाग्य की रेखाओं में बाँधकर नहीं रखा जा सकता। किसी गरिब स्त्री का नाम लक्ष्मी रखना उसका मजाक उड़ाना है। लक्ष्मी तो धन-दौलत की देवी है।
4. लेखिका का नाम था-महादेवी। उसके घर काम करने वाली भक्तिन का नाम था लछमिन अर्थात् लक्ष्मी। दोनों को नामों के विरोधाभास में जीना पड़ रहा था। लेखिका महान देवी न होकर सामान्य नारी थी और भक्तिन लक्ष्मी जैसी समृद्ध न होकर अत्यंत गरीब, दीन-हीन थी। दोनों के नाम और वास्तविक जीवन में बड़ा विरोधाभास था।
भक्तिन अपना वास्तविक नाम लोगों से क्यों छुपाती थी? भक्तिन को यह नाम किसने और क्यों दिया?
भक्तिन का वास्तविक नाम है-लछमिन अर्थात् लक्ष्मी। लक्ष्मी नाम समृद्धि का सूचक माना जाता है। भक्तिन को यह नाम विरोधाभासी प्रतीत होता है। भक्तिन बहुत समझदार है अत: वह अपना समृद्धि सूचक नाम किसी को बताना नहीं चाहती। उसने नौकरी माँगते समय लेखिका से भी अनुरोध किया था कि वह उसके वास्तविक नाम का उपयोग न करे। यही कारण था कि वह अपना वास्तविक नाम लोगों से छुपाती थी।
भक्तिन को यह नाम लेखिका ने ही दिया था। लेखिका ने उसकी कंठीमाला को देखकर यह नामकरण किया था। वह इस कवित्वहीन नाम को पाकर भी गद्गद् हो उठी थी।
दो कन्या-रत्न पैदा करने पर भक्तिन पुत्र-महिमा में अंधी अपनी जिठानियों द्वारा घृणा व उपेक्षा का शिकार बनी। ऐसी घटनाओं से ही अक्सर यह धारणा चलती है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है । क्या इससे आप सहमत हैं?
जब भक्तिन दो कन्या-रत्न पैदा कर चुकी तब उसकी सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उसकी उपेक्षा की। भक्तिन उनकी उपेक्षा और घृणा का शिकार बन गई क्योंकि वह उनके समान पुत्र पैदा नहीं कर सकी थी। यद्यपि दोनों जिठानियों के काले-कलूटे पुत्र धूल उड़ाते फिरते थे, पर वे थे तो पुत्र और भक्तिन इनसे वंचित थी।
इस प्रकार की घटनाओं से यह धारणा बनती है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है। भक्तिन की दुश्मन उसकी जिठानियाँ (स्त्रियाँ) ही बन गईंखभक्तिन के पति ने उससे कुछ नहीं कहा। वह पत्नी को चाहता भी बहुत था। भक्तिन पति की उपेक्षा की शिकार नहीं बनी, बल्कि वह स्त्रियों की ही उपेक्षा का शिकार बनी। ही, हम इस बात से पूरी तरह सहमत है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। नव विवाहिता को दहेज के लिए प्रताड़ित करने वाली भी स्त्रियाँ ही होती है।
भक्तिन की बेटी पर पंचायत द्वारा ज़बरन पति थोपा जाना एक दुर्घटना भर नहीं, बल्कि विवाह के संदर्भ मे स्त्री के मानवाधिकार (विवाह करे या न करे अथवा किससे करे) को कुचलते रहने की सदियों से चली आ रही सामाजिक परंपरा का प्रतीक है। कैसे?
भक्तिन की बेटी के पति की आकस्मिक मृत्यु के बाद बड़े जिठौत ने अपने तीतरबाज साले से उसका विवाह कराना चाहा पर भक्तिन की बेटी ने उसे नापसंद कर दिया। इस पर एक दिन वह व्यक्ति भक्तिन (माँ) की अनुपस्थिति में बेटी की कोठरी में जा घुसा और भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। उस अहीर युवती ने उसकी मरम्मत करके जब कुंडी खोली तब उस तीतरबाज युवक ने गाँव के लोगों के सामने कहा कि-युवती का निमंत्रण पाकर ही भीतर गया था। युवती ने उस युवक के मुख पर छपी प्रप अपनी अंगुलियों के निशान को दिखाकर अपना विरोध जताया पर लोगों ने पंचायत बुलाकर यह निर्णय करवा लिया कि चाहे कोई भी सच्चा या झूठा क्यों न हो पर वे कोठरी में पति-पत्नी के रूप मैं रहे हैं अत: विवाह करना ही होगा। अपमानित बालिका लहू का घूँट पीकर रह गई।
निश्चय ही यह एक दुर्घटना तो थी ही, पर स्त्री के मानवाधिकार का हनन भी था। यह बात युवती की इच्छा पर छोड़ी जानी चाहिए थी कि वह विवाह करे या न करे और करे तो किससे करे। उस पर कोई बात जबर्दस्ती नहीं लादी जानी चाहिए थी। हम देखते हैं कि स्त्री का ऐसा शोषण सदियों से होता चला आ रहा है। स्त्री को कुचलते रहने की परंपरा सदियों से चलती आ रही है। यह घटना उसी की प्रतीक है।
लेखिका को भक्तिन अच्छी लगती है अत: वह उसके दुर्गुणों की ओर विशेष ध्यान नहीं देती। वह यह मानती है कि भक्तिन में भी दुर्गुण हैं उसके व्यक्तित्व में दुर्गुणों का अभाव होने के बारे में वह निश्चित तौर पर नहीं कह सकती। वह सत्यवादी हरिश्चंद्र नहीं बन सकती। वह रुपए-पैसों को मटकी में सँभाल कर रख देती है। वह लेखिका को प्रसन्न रखने के लिए बात को इधर-उधर घुमाकर बताती है। इसे आप झूठ कह सकते हैं। इतना झूठ और चोरी तो धर्मराज महाराज में भी होगा। भक्तिन सभी बातों और कामों को अपनी सुविधा के अनुसार ढालकर करती है। इसी कारण लेखिका ने कहा है कि यह कहना कठिन है कि भक्तिन अच्छी है क्योंकि उसमें दुर्गुणों का आभाव नहीं है।
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भक्तिन द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने का क्या उदाहरण लेखिका ने दिया है?
शास्त्र का प्रश्न भक्तिन अपनी सुविधा से सुलझा लेती है। इस बात के लिए लेखिका ने एक उदाहरण दिया है। भक्तिन ने जब सिर घुटवाना चाहा तब लेखिका ने उसे रोकना चाहा क्योंकि उसे स्त्रियों का सिर घुटाना अच्छा नहीं लगता। इस प्रश्न को भक्तिन ने अपने ढंग से सुलझाते हुए और अपने कदम को शास्त्रसम्मत बताते हुए कहा कि यह शास्त्र में लिखा है। जब लेखिका ने उस लिखे के बारे में जानना चाहा तो उसे तुरंत उत्तर मिला-”तीरथ गए मुँडाए सिद्ध।” लेखिका को यह पता न चल सका कि यह रहस्यमय सूत्र किस शास्त्र का है। बस भक्तिन ने कह दिया कि वह शास्त्र का है तो यह शास्त्र का हो गया।
एक अन्य उदाहरण: एक बार लेखिका के घर पैसे चोरी हो गए तो उसने भक्तिन से पूछा। जब भक्तिन ने लेखिका को बताया कि पैसे उसने सँभालकर रख लिए हैं। उसका तर्क है-क्या अपने ही घर में पैसे सँभालकर रखना चोरी है? वह उदाहरण देती है कि थोड़ी-बहुत चोरी और झूठ के गुण युधिष्ठिर में भी थे अन्यथा वे श्रीकृष्ण को कैसे खुश रख सकते थे। वे राज्य भी झूठ के सहारे चलाते थे। इस प्रकार भक्तिन शास्त्रों का हवाला देकर अपने तर्को से चोरी जैसे दुर्गुण को भी गुण में बदल देती है।
भक्तिन तो देहाती थी ही पर उसके आ जाने पर महादेवी भी अधिक देहाती हो गई, पर उसे शहर की हवा नहीं लग पाई है। उसने महादेवी को भी देहाती खाने की विशेषताएँ बता-बताकर उनके खाने की आदत डाल दी। वह बताती कि मकई का रात को बना दलिया सवेरे मट्टे से सौंधा लगता है। बाजरे के तिल लगाकर बनाये पुए बहुत अच्छे लगते हैं। ज्वार के भुने हुए भुट्टे के हरे दानों की खिचड़ी स्वादिष्ट लगती है। उसके अनुसार सफेद महुए की लापसी संसार भर के हलवे को लजा सकती है। भक्तिन ने लेखिका को अपनी देहाती भाषा भी सिखा दी। इस प्रकार महादेवी भी देहाती बन गई।
‘आलो आँधारि’ की नायिका बेबी हालदार एक घर में नौकरी करती है और भक्तिन लेखिका के घर में नौकरी करता है। यह दोनों में समानता है। बेबी हालदार ने सातवीं तक पढ़ाई करके छोड़ दी थी जबकि भक्तिन पूरी तरह से अनपढ़ है। बेबी हालदार ने तातुश कें कहने पर पढ़ना जारी रखा और एक दिन लेखिका बन गई जबकि भक्तिन ने अपने तर्क देकर पढ़ाई के प्रति अपनी अनिच्छा प्रकट कर दी। दोनों ने काफी कष्ट सहे, दोनों परिवारजनों की उपेक्षा के शिकार रहे, पर बेबी हालदार ने अपनी स्थिति सुधार ली जबकि भक्तिन जहाँ से शुरू हुई थी, वहीं रही।
भक्तिन की बेटी के मामले में जिस तरह का फै़सला पंचायत ने सुनाया, वह आज भी कोई हैरतअंगेज़ बात नहीं है। अखबारों या टी. वी. समाचारों में आने वाली किसी ऐसी ही घटना को भक्तिन के उस प्रसंग के साथ रखकर उस पर चर्चा करें।
भक्तिन के मामले में जिस तरह फैसला पंचायत ने सुनाया वह कोई हैरतअंगेज बात नहीं है।
- पिछले दिनों मुजफ्फनगर में एक मुस्लिम परिवार का केस भी पंचायत के सामने आया था। इसमें एक मुस्लिम महिला अपने ससुर के बलात्कार का शिकार बनी थी। बाद मे पंचायत ने उस पीड़ित महिला को ससुर के साथ निकाह कर रहने को विवश किया था, क्योंकि उनकी दृष्टि में वह अपने पति के लिए हराम हो गई थी। पति-पत्नी साथ रहना चाहते थे पर पंचायत बीच मैं आ गई और यह हैरतअंगेज फैसला सुना दिया।
- इसी प्रकार एक फौजी जवान को युद्ध के दौरान मरा मान लिया गया था और उसकी बीवी की शादी किसी दूसरे मुस्लिम युवक के साथ कर दी गई। उससे एक बच्चा भी हो गया। फिर पहला पति लौट आया। वह महिला भी पंचायत के निर्णय पर झूलती रही।
- इसी तरह का एक अन्य समाचार देखिए
पतियों के बीच फँसी महिला हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार
नई दिल्ली (का.स.)। 4 जनवरी, 2007 मैं कहाँ जाऊँ होता नहीं फैसला, एक तरफ उसका घर .......। योगिता की हालत इन दिनों कुछ ऐसी ही है। एक तरफ उसका पहला प्यार एवं पहला पति है तो दूसरी तरफ उसका दूसरा पति। उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह जाए तो कहाँ जाए। उसका पहला पति उसे अपने पास बुलाने की जिद पर अड़ा है। अब उसे हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार है। कोर्ट ने उसे सोच-समझकर फैसला करने को मना करने का मौका दिया है। मामले की अगली सुनवाई 30 जनवरी को होगी। इस दिन कोर्ट ने योगिता के साथ उसके पहले पति मोनू चौहान को भी तलब किया है।
योगिता को चार साल पहले मीनू चौहान से स्कूल में प्यार हो गया था। दोनों का प्यार परवान चढ़ा। घर वालों की मर्जी के बगैर दोनों ने गत 11 मई को आर्य समाज मंदिर में शादी कर ली। कुछ दिनों बाद योगिता के घर वाले उसे अपने साथ ले गए। 13 दिसंबर को योगिता की दूसरी शादी हो गई। इससे बौखलाए मीनू ने हाईकोर्ट में हेबियस कॉरपस की याचिका दायर कर दी। उसने अपनी याचिका में योगिता के घर वाले व उसके दूसरे पति के खिलाफ आईपीसी की धारा 366 494, 495 के तहत मुकदमा दर्ज करवाने का आग्रह किया। गत 29 दिसंबर को न्यायमूर्ति एम. के. मुदगल व न्यायमूर्ति बी. डी. अहमद की खंडपीठ के समक्ष योगिता को पेश किया गया। कोर्ट ने इस मसले पर योगिता की माँ से भी पूछताछ की। योगिता की माँ दिल्ली पुलिस में एएस. आई. है।
इधर मोनू के वकील आर के. कपूर का कहना है ‘योगिता दोनों तरफ से फँस चुकी है। अगर वह अपने दूसरे पति के साथ रहती है तो मोनू की तरफ से उसके खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज होगा, क्योंकि ऐसे में दो-दो पति रखने का मामला बनता है जो हर हाल में गैर-कानूनी है। अगर योगिता मोनू के साथ आती है तो उसका दूसरा पति उसके खिलाफ धोखाधड़ी का मामला दर्ज करवा सकता है क्योकि योगिता बालिग है और उसने अपनी मर्जी से मोनू से शादी की थी। श्री कपूर के मुताबिक योगिता का गुनाह सिर्फ इतना है कि उसने एक ऐसे लड़के से प्रेम विवाह किया जो उसकी जाति का नहीं है।
महादेवी जी इस पाठ में हिरनी सोना, कुत्ता वसंत, बिल्ली गोधूलि आदि के माध्यम से पशु-पक्षी को मानवीय संवेदना से उकेरने वाली लेखिका के रूप में उभरती हैं। उन्होंने अपने घर में और भी कई पशु-पक्षी पाल रखे थे तथा उन पर रेखाचित्र भी लिखे हैं। शिक्षक की सहायता से उन्हें ढूँढकर पढ़ें। जो मेरा परिवार नाम से प्रकाशित है।
महादेवी वर्मा ने पशु-पक्षियों के बारे में रेखाचित्र लिखे हैं। उनमें से एक हिरण-शावक ‘सोना ‘ पर लिखा रेखाचित्र प्रस्तुत है-
लेखिका को एक दिन अपने परिचित डॉ. धीरेंद्र नाथ बसु की पौत्री सुस्मिता का पत्र मिला। उसने लिखा था कि उसे गत वर्ष अपने पड़ोसी से एक हिरण का बच्चा मिला था। अब वह बड़ा हो गया है। उसे घूमने को अधिक स्थान चाहिए। वह उसे रख पाने में असमर्थ है, परंतु ऐसे व्यक्ति को देना चाहती है जो उसके साथ अच्छा व्यवहार करे। सुस्मिता को विश्वास था कि लेखिका उसकी देखभाल उचित प्रकार से कर सकेगी।
पत्र को पढ़कर लेखिका को ‘सोना’ की याद आती है। ‘सोना’ एक हिरणी थी। उसकी मृत्यु के बाद लेखिका ने हिरण न पालने का निश्चय किया था, परंतु अब उस निश्चय को तोड़े बिना उस कोमल प्राणी की रक्षा संभव न थी।
‘सोना’ भी अपनी शैशवावस्था में इसी भांति लेखिका के संरक्षण में आई थी। उसका छोटा-सा शरीर सुनहरी रेशमी लच्छों की गांठ के समान था। उसका मुँह छोटा-सा तथा आँखें पानीदार थीं। उसके कान लंबे तथा टाँगें पतली तथा सुडौल थीं। सभी उससे बहुत प्रभावित हुए। उसे सोना, सुवर्ण तथा स्वर्णलेखा नाम दिये गये। बाद में उसका नाम ‘सोना’ ही हो गया।
जिन लोगों ने हरे-भरे वनों में छलांग लगाते हुए हिरणो को देखा है वही उनके अद्भुत गतिमान सौंदर्य के बारे में सोच सकते हैं। लेखिका को आश्चर्य है कि शिकारी उस सौंदर्य को क्यों नही देख पाते। वे कैसे इन निरीह प्राणियों को मारकर अपना मनोरंजन करता है? मनुष्य मृत्यु को असुंदर तथा अपवित्र मानता है। फिर वह इन सुंदर प्राणियों के प्राण कैसे ले लेता है? यह बात लेखिका की समझ में नहीं आती।
आकाश में उड़ते तथा वृंदगान करते रंग-बिरंगे पक्षी फूलों की घटाओं जैसे लगते हैं। मनुष्य उन्हें अपनी बदूक का निशाना बनाकर प्रसन्न होता है। मनुष्य पक्षियों का ही नहीं, पशुओं का भी विनाश करता है। हिरण सुंदरता में अद्वितीय है परंतु मनुष्य इसमें सौंदर्य नहीं देख पाता। मानव जो स्वयं जीवन का सर्वश्रेष्ठ रूप है, जीवन के दूसरे रूपों में जीवन के प्रति उदासीन तथा उनकी मृत्यु के प्रति इतना आसक्त क्यों है?
‘सोना’ भी मनुष्य की इसी निष्ठुर मनोरंजनप्रियता के कारण आई थी। वन के शांत वातावरण में मृग समूह विचरण कर रहा था। तभी एक मृगी ने ‘सोना’ को जन्म दिया था। अचानक शिकारियों के आने पर मृग समूह भाग गया, परंतु ‘सोना’ और उसकी माँ न भाग सके। शिकारी मृगी को मारकर ‘सोना’ को भी ले गए। उनके परिवार की किसी दयालु महिला ने उसे पानी मिला दूध पिलाकर दो-चार दिन रखा। फिर मरणासन्न सोना को कोई बालिका लेखिका के पास छोड़ गई।
लेखिका ने उसे स्वीकार कर उसके लिए दूध पिलाने की बोतल, ग्लूकोज तथा बकरी के दूध का प्रबंध किया। उसका मुँह छोटा होने के कारण उसमें निपल नहीं आता था। उसे निपल से दूध पीना भी नहीं आता था, लेकिन धीरे-धीरे उसे सब आ गया। वह भक्तिन को पहचानने लगी। रात को वह लेखिका के पलंग के पास जा बैठती। छात्रावास की लड़कियाँ पहले तो उसे कौतुक से देखतीं, लेकिन फिर वे उसकी मित्र बन गईं।
नाश्ते के बाद सोना कंपाउंड में चौकड़ी भरती, फिर छात्रावास का निरीक्षण-सा करती। वहाँ कोई छात्रा उसके कुमकुम लगाती तो कोई प्रसाद खिलाती। मेस में सब उसे कुछ-न-कुछ खिलाते। इसके बाद वह घास के मैदान मैं लेटती और भोजन के समय लौटकर लेखिका से सटकर चावल-रोटी और कच्ची सब्जियाँ खाती। घंटी बजते ही प्रार्थना के मैदान में पहुँच जाती।
बच्चे उसे ‘सोना, सोना’ कहकर पुकारते। वह उनके ऊपर से छलांग लगाती रहती। यह क्रम घंटों चलता। वह लेखिका के ऊपर से होकर छलांग लगाकर अपना स्नेह प्रदर्शित करती। कभी वह उनके पैरों से अपना शरीर रगड़ती। बैठे रहने पर वह उनकी साड़ी का छोर मुँह में भर लेती या चोटी चबा डालती। डाँटने पर गोल-गोल चकित और जिज्ञासा भरी नजरों से देखती। कालिदास ने अपने नाटकों में मृगी तथा मृग शावकों को जो महत्त्व दिया है, उसका महत्त्व मृग पालकर ही जाना जा सकता है।
कुत्ता स्वामी सेवक का अंतर तथा स्वामी के स्नेह और क्रोध को समझता है। हिरन यह अंतर नहीं जानता। वह पालने वाले के क्रोध से डरता नहीं बल्कि उसकी दृष्टि से दृष्टि मिलाकर खड़ा रहेगा। लेखिका के अन्य पालित जंतुओं में बिल्ली गोधूली कुत्ते हेमंत-वसंत तथा कुतियाँ फ्लोरा ने पहले तो ‘सोना’ को नापसंद किया, परंतु वे शीघ्र ही मित्र बन गए। एक वर्ष बीत जाने पर ‘सोना’ शावक से हिरणी में परिवर्तित होने लगी। अन्य शारीरिक परिवर्तनों के साथ उसकी आँखों में नीलम के बल्बों का सा विद्युतीय स्फुरण आ गया। वह किसी की प्रतीक्षा-सी करती लगती। इसी बीच फ्लोरा ने चार बच्चों को जन्म दिया। एक दिन फ्लोरा के बाहर जाने पर ‘सोना’ उन बच्चों के मध्य लेट गई और वे आँखें मींच कर उसके उदर में दूध खोजने लगे फिर उसका वह नित्यकर्म बन गया। फ्लोरा भी उस पर विश्वास करती थी।
उसी वर्ष ग्रीष्मावकाश में लेखिका बद्रीनाथ की यात्रा पर गईं। वह फ्लोरा को भी साथ ले गईं। छात्रावास बंद था। ग्रीष्मावकाश समाप्त करके दो जुलाई को लेखिका के लौटने पर ‘सोना’ को न पाकर, उन्होंने पूछताछ की तो सेवकों ने बताया कि लेखिका की अनुपस्थिति तथा छात्रावास के सन्नाटे से ऊबकर ‘सोना’ कुछ खोजती-सी कंपाउंड से बाहर चली जाती थी। कोई उसे मार न दे इसलिए माली ने उसे लंबी रस्सी से बाँधना शुरू कर दिया। एक दिन जोर से उछलने पर वह मुँह के बल गिरी तथा स्वर्ग सिधार गई। उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया गया। ‘सोना’ की करुण कथा सुनकर लेखिका ने हिरणी न पालने का निश्चय किया था, परंतु संयोग से उन्हें फिर हिरण पालना पड़ रहा है।
नीचे दिए गए विशिष्ट भाषा-प्रयोगों के उदाहरणों को ध्यान से पढ़िए और इनकी अर्थ-छवि स्पष्ट कीजिए-
(क) पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले।
(ख) खोटे सिक्कों की टकसाल जैसी पत्नी।
(ग) अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण।
(क) जिस प्रकार किसी पुस्तक का पहला संस्करण निकलता है और बाद में उसके वैसे ही अन्य संस्करण भी निकलते हैं, इसी प्रकार भक्तिन ने पहली कन्या को जन्म देने कै बाद वैसी ही दो कन्याएँ और पैदा कर दीं। ये सभी कन्याएँ रंग-रूप आकार में एक समान थीं।
(ख) ऐसी टकसाल जहाँ खोटे सिक्के ही ढलते हों। यहाँ इसका प्रयोग भक्तिन के संदर्भ में किया गया है। उसे खोटे सिक्के (बेटियाँ) ढालने (पैदा करने) वाली टकसाल (पत्नी-स्त्री) बताया गया है। बेटे पैदा करने वाली स्त्री को ऊँचा दर्जा प्राप्त होता है जबकि लड़कियाँ पैदा करने वाली स्त्री को तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है।
(ग) भक्तिन (लछमिन) पिता की मृत्यु के काफी समय बाद अपने गाँव गई (क्योंकि उसे पिता की मृत्यु का पता ही नहीं चला) तो वहाँ की स्त्रियाँ अस्फुट स्वरों में कह रही थीं-हाय लछमिन अब आई-यह बात बार-बार दोहराई जा रही थी। वैसे वे स्त्रियाँ दिखाने के लिए उसे सहानुभूति दृष्टि से देख रही थीं।
पाठ में आए लोकभाषा के इन संवादों को समझकर इन्हें खड़ी बोली हिंदी में डालकर प्रस्तुत कीजिए।
(क) ई कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल संधि लेइत है, साग- भाजी छँउक सकित है, अउर बाकी का रहा।
(ख) हमारे मालकिन तौ रात-दिन कितबियन माँ गड़ी रहती हैं। अब हमहूँ पढ़ै लागव तो घर-गिरिस्ती कउन देखी-सुनी।
(ग) ऊ बिचरिउअ तौ रात-दिन काम माँ झुकी रहती हैं अउर तुम पचे घूमती-फिरती है। चली तनिक हाथ बटाय लेऊ।
(घ) तब ऊ कुच्छों करिहैं-धारिहैं ना-बस गली-गली गाउत-बजाउत फिरिहैं।
(ड.) तुम पचै का का बताई-यहै पचास बरिस से लग रहित हैं।
(च) हम कुकुरी बिलारी न होयँ, हमारे मन पुसारी तौ हम दूसरा के जाब नाहिं त तुम्हार पर्चे का छाती पै होरहा भूजब और राज करब समुझे रहौ।
(क) यह क्या बड़ी बात है। रोटी बनाना जानती हूँ, दाल पका लेती हूँ, साग-सब्जी छींक सकती हूँ और बाकी क्या रहा?
(ख) हमारी मालकिन तो रात-दिन किताबों में गड़ी (डूबी) रहती हैं। अब यदि हम भी पढ़ने लगे तो घर-गृहस्थी कौन देखेगा-सुनेगा।
(ग) वह बेचारी तो रात-दिन काम में झुकी (लगी) रहती है और तुम घूमती-फिरती हो। चलो, तनिक हाथ बँटा लें।
(घ) तब वह कुछ भी करता-धरता नहीं, बस गली-गली में गाता-बजाता फिरता है।
(ड.) तुम लोगों का मैं क्या बताऊँ-यह पचास वर्ष से साथ रहता है।
(च) हम कुतिया-बिल्ली नहीं हैं। यदि हमारा मन ने चाहा तो हम दूसरे के यहाँ जाएँगे नहीं तो मैं तुम लोगों की छाती पर चने भूनूँगी और राज करूँगी-यह समझ लेना।
- अरे! उससे सावधान रहना! वह नीचे से ऊपर तक वायरस से भरा हुआ है। जिस सिस्टम में जाता है उसे हैंग कर देता है।
- घबरा मत! मेरी इनस्वींगर के सामने उसके सारे वायरस घुटने टेकेंगे। अगर ज्यादा फाउल मारा तो रेड कार्ड दिखा के हमेशा के लिए पवेलियन भेज दूँगा।
- जॉनी टेसन नई लेने का वो जिस स्कूल में पड़ता है अपुन उसका हैडमास्टर है।
ओह! तुम आ गए? तुम तो बड़े खतरनाक हो। जहाँ जाते हो कंट्रोवर्सी पैदा कर देते हो।
हैरान मत हो! मेरी कंट्रोवर्सी तुम्हें फायदा ही पहुँचाएगी। मैं सब हैंडल कर लूँगा।
मुझे कोई टेंशन नहीं। मैं तुम जैसे से फाइट करना चाहता हूँ।
भक्तिन के जीवन का दूसरा परिच्छेद कैसा रहा? जिठानियों के बेटे खाने को क्या पाते थे?
भक्तिन के जीवन के दूसरे परिच्छेद में भी सुख की अपेक्षा दु:ख ही अधिक रहा। जब उसने गेहुएँ रंग और बटिया जैसे मुख वाली पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले तब सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उपेक्षा प्रकट की। यह उचित भी था क्योंकि सास तीन-तीन कमाऊ वीरों की विधात्री बनकर मचिया के ऊपर विराजमान पुरखिन के पद पर अभिषिक्त हो चुकी थी और दोनों जिठानियाँ काक-भुशंडी जैसे काले लालों की क्रमबद्ध सृष्टि करके इस पद के लिए उम्मीदवार थीं। छोटी बहू के लीक छोड्कर चलने के कारण उसे दंड मिलना आवश्यक हो गया था।
जिठानियाँ बैठकर लोक-चर्चा करतीं और उनके कलूटे लड़के धूल उड़ाते; वह मट्ठा फेरती, कूटती पीसती, राँधती और उसकी नन्ही लड़कियाँ गोबर उठातीं, कडे पाथतीं। जिठानियाँ अपने भात पर सफेद राब रखकर गाढ़ा दूध डालतीं और अपने लड़कों को औटते हुए दूध पर से मलाई उतारकर खिलातीं। वह काले गुड की डली के साथ कठौती में मट्ठा पाती और उसकी लड़कियाँ चने-बाजारे की घुघरी चबातीं।
भक्तिन क्या किया संपन्न करके चौके में घुसी? लेखिका को यह सब कैसा लगा?
लेखिका के घर दूसरे दिन तड़के ही सिर पर कई लोटे औंधा कर भक्तिन ने लेखिका की धुली धोती जल के छींटों से पवित्र कर पहनी और फूटते हुए सूर्य और पीपल का दो लोटे जल से अभिनंदन किया। दो मिनट नाक दबाकर जप करने के उपरांत जब वह कोयले की मोटी रेखा से अपने साम्राज्य की सीमा निश्चित कर चौके में प्रतिष्ठित हुई, तब लेखिका ने समझ लिया कि इस सेवक का साथ टेढ़ी खीर है। लेखिका पाक-विद्या के लिए परिवार में प्रख्यात है और कोई भी पाक कुशल दूसरे के काम में नुक्ताचीनी बिना किए रह नहीं सकता पर जब छूत-पाक पर प्राण देने वाले व्यक्तियों का, बात-बात पर भूखा मरना स्मरण हो आया और भक्तिन की श।काकुल दृष्टि में छिपे हुए निषेध का अनुभव किया, तब कोयले की रेखा उसके लिए लक्ष्मण के धनुष से खींची हुई रेखा के सामने दुर्लध्य हो उठी। निरुपाय अपने कमरे में बिछौने में पड़कर नाक के ऊपर खुली हुई पुस्तक स्थापित कर वह चौक मे पीछे पर बैठकर अनधिकारी को भूलने का प्रयास करने लगी।
अपने सामने विचित्र-सा खाना देखकर लेखिका की अप्रसन्नता को भक्तिन ने क्या तर्क देकर दूर किया?
जब भक्तिन ने विचित्र-मा भोजन परोसा और लेखिका ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट की तब भक्तिन ने तर्क दिए- रोटियाँ अच्छी सेंकने के प्रयास में कुछ अधिक खरी हो गई हैं; पर अच्छी हैं। तरकारियाँ थीं पर जब दाल बनी है तब उनका क्या काम-शाम को दाल न बनाकर तरकारी बना दी जाएगी। दूध-घी लेखिका को अच्छा नहीं लगता, नहीं तो सब ठीक हो जाता। अब न हो तो अमचूर और लाल मिर्च की चटनी पीस ली जावे। उससे भी काम न चले तो वह गाँव से लाई हुई गठरी में से थोड़ा-सा गुड दे देगी और शहर के लोग क्या कलाबत्तू खाते हैं? फिर वह कुछ अनाडिन या फूहड़ नहीं। उसके ससुर, पितिया समूर, अजिया सास आदि ने उसकी पाक-कुशलता के लिए न जाने कितने मौखिक प्रमाण-पत्र दे डाले हैं।
भक्तिन और लेखिका के बीच कैसा संबंध था? ‘भक्तिन’ पाठ के आधार पर बताइए।
भक्तिन और महादेवी का संबंध नौकरानी या स्वामिनी का सबंध न होकर आत्मीय संगिनी का सबंध था। भक्तिन और लेखिका के बीच में सेवक-स्वामी का संबंध है, यह कहना कठिन है क्योंकि ऐसा कोई स्वामी नहीं हो सकता, जो इच्छा होने पर भी सेवक को अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोई सेवक भी नहीं सुना गया, जो स्वामी के चले जाने का आदेश पाकर अवज्ञा से हँस दे। भक्तिन को नौकर कहना उतना ही असंगत है जितना अपने घर में बारी-बारी रा आने-जाने वाले अंधेरों-उजाले और गिन में फूलने वाले गुलाब और आम को सेवक मानना। वे जिस प्रकार एक अस्तित्व रखते हैं, जिसे सार्थकता देने के लिए ही हमें सुख-दुःख देते हैं, उसी प्रकार भक्तिन का स्वतंत्र व्यक्तित्व अपने विकास के लिए लेखिका के जीवन को घेरे हुए है।
भक्तिन द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने का क्या उदाहरण लेखिका ने दिया है
शास्त्र का प्रश्न भक्तिन अपनी सुविधा से सुलझा लेती है। इस बात के लिए लेखिका ने एक उदाहरण दिया है। भक्तिन ने जब सिर घुटवाना चाहा तब लेखिका ने उसे रोकना चाहा क्योंकि उसे स्त्रियों का सिर घुटाना अच्छा नहीं लगता। इस प्रश्न को भक्तिन ने अपने ढंग से सुलझाते हुए और अपने कदम को शास्त्र सम्मत बताते हुए कहा कि यह शास्त्र में लिखा है। जब लेखिका ने उस लिखे के बारे में जानना चाहा तो उसे तुरंत उत्तर मिला-”तीरथ गए मुँडाए सिद्ध।” लेखिका को यह पता न चल सका कि यह रहस्यमय सूत्र किस शास्त्र का है। बस भक्तिन ने कह दिया कि वह शास्त्र का है तो यह शास्त्र का हो गया।
भक्तिन के व्यक्तित्व के बारे में बताइए।
लेखिका बताती है कि भक्तिन का कद छोटा था। उसका शरीर दुबला-पतला था। वह देखने में भी गरीब प्रतीत होती थी। उसके होंठ पतले थे तथा आँखें छोटी थीं। वह लगभग 50 वर्ष की थी, पर उसके शरीर की संरचना ऐसी थी कि वह वृद्ध दिखाई नहीं देती थी। जब वह लेखिका के पास आई तब वह अपनी घुटी हुई चाँद (गंजी खोपड़ी) को मोटी मैली धोती से ढँके हुए थी। उसके कान बाहर निकले हुए थे।
भक्तिन का जीवन कैसा रहा?
भक्तिन का जीवन शुरू से ही दु:खमय रहा। उसे अपने मायके (पितृगृह) में विमाता से भेदभावपूर्ण व्यवहार मिला। विवाह के बाद उसने तीन लड़कियों को जन्म दिया। इसी कारण उसे सास तथा जेठानियों के दुर्व्यवहार का शिकार होना पड़ा। 36 वर्ष की आयु में विधवा हो गई। ससुराल वालों ने उसकी सारी जायदाद छीनने की कोशिश की, परंतु वह उनसे संघर्ष करती रही। उसने बेटियों का विवाह किया। जिस दामाद को घर जमाई बनाया वह भी शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। इस प्रकार उसका पूरा जीवन दु:खों से भरा रहा।
जेठ-जिठौतों का क्या लालच था? लछमिन उन्हें क्या जवाब देती थी?
लछमिन का पति 36 वर्ष की आयु में चल बसा था। उसकी आकस्मिक मृत्यु के बाद लछमिन ने अपनी जायदाद सँभाली। उसके हरे- भरे खेतों तथा मोटी-ताजी गाय-भैसों तथा फलों के लदे पेड़ों को देखकर जेठ-जिठौतों के मुँह में पानी भर आता था। वे चाहते थे कि भक्तिन दूसरा विवाह कर ले ताकि वे उसकी सम्पत्ति पर कब्जा कर लें। भक्तिन ने उनको करारा जवाब देते हुए कहा था कि हम’ कुत्ते-बिल्ली नहीं हैं कि हमारा मन पसीज जाए। हम दूसरों के यहाँ नहीं जाएंगे। हम तो तुम्हारी छाती पर ही होरहा दलेंगी और राज करेंगी। लछमिन ने किसी को भी सुई की नोंक के बराबर भी जमीन नहीं दी।
भक्तिन का स्वभाव कैसा बन चूका है?
भक्तिन का स्वभाव ही ऐसा बन चुका है कि वह दूसरों को अपने मन के अनुसार बना लेना चाहती है; पर अपने संबंध में किसी प्रकार के परिवर्तन की कल्पना तक उसके लिए संभव नहीं। इसी से आज लेखिका अधिक देहाती है; पर उसे शहर की हवा नहीं लग पाई। मकई का, रात को बना दलिया, सवेरे मट्टे से सोंधा लगता है। बाजरे के तिल लगाकर बनाए हुए पुए गर्म कम अच्छे लगते हैं। ज्वार के भुने हुए भुट्टे कै हरे दानों की खिचड़ी स्वादिष्ट होती है। सफेद महुए की लपसी संसार भर के हलवे को लजा सकती है; आदि वह लेखिका को क्रियात्मक रूप से सिखाती रहती है पर यहाँ का रसगुल्ला तक भक्तिन के पोपले मुँह में प्रवेश करने का सौभाग्य नहीं प्राप्त कर सका। लेखिका के रात-दिन नाराज होने पर भी उसने साफ धोती पहनना नहीं सीखा; पर स्वयं धोकर फैलाए हुए कपड़ों को भी वह तह करने के बहाने सिलवटों से भर देती है। लेखिका को उसने अपनी भाषा की अनेक दंतकथाएँ कंठस्थ करा दी हैं; पर पुकारने पर वह ‘ओय’ के स्थान मे ‘जी’ कहने का शिष्टाचार भी न सीख सकी।
भक्तिन और लेखिका के बीच कौन-सा संबंध है?
भक्तिन और लेखिका के बीच में सेवक-स्वामी का सबंध है, यह कहना कठिन है; क्योंकि ऐसा कोई स्वामी नहीं हो सकता, जो इच्छा होने पर भी सेवक को अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोई भी सेवक भी नहीं सुना गया, जौ स्वामी के चले जाने का आदेश पाकर अवज्ञा से हँस दे। भक्तिन को नौकर कहना उतना ही असंगत है, जितना अपने घर में बारी-बारी से आने-जाने वाले अँधेरे-उजाले और गिन में फूलने वाले गुलाब और आम को सेवक मानना। वे जिस प्रकार एक अस्तित्व रखते हैं, जिसे सार्थकता देने के लिए ही हमें सुख-दु:ख देते हैं, उसी प्रकार भक्तिन का स्वतंत्र व्यक्तित्व अपने विकास के लिए लेखिका के जीवन को घेरे हुए है।
भक्तिन लेखिका के परिचितों को किस प्रकार याद करती है?
भक्तिन लेखिका के परिचितों और साहित्यिक बंधुओं से विशेष परिचित है; पर उनके प्रति भक्तिन के सम्मान की मात्रा, लेखिका के प्रति उनके सम्मान की मात्रा पर निर्भर है और सद्भाव उनके प्रति लेखिका के सदभाव से निश्चित होता है। इस संबंध में भक्तिन ही सहजबुद्धि विस्मित कर देने वाली है।
वह किसी को आकार-प्रकार और वेशभूषा से स्मरण करती है और किसी को नाम के अपभ्रंश द्वारा। कवि और कविता के संबंध में उसका ज्ञान बड़ा है; पर आदर-भाव नहीं। किसी के लंबे बाल और अस्त-व्यक्त वेश-भूषा देखकर वह कह उठती है-’का ओहू कवित्त लिखे जानत हैं’ और तुरंत ही उसकी अवज्ञा प्रकट हो जाती है-तब ऊ कुच्छौ करिहैं धरिहैं ना-बस गली-गली गाउत बजाउत फिरिहैं।
‘भक्तिन’ रेखाचित्र के आधार पर भक्तिन के चरित्र की कौन-कौन सी विशेषताएँ उभरती हैं?
‘भक्तिन’ एक रेखाचित्र है। इस रेखाचित्र में भक्तिन की निम्नलिखित विशेषताएँ उभरती है:
- संघर्षशील
- स्वाभिमानी
- सच्ची सेविका
- आदर्श माता
- सहृदय
- कुछ दुर्गुण सहित (असत्य बोलना)
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दो कन्याओं को जन्म देने के बाद भी भक्तिन पुत्र की इच्छा में अंधी अपनी जिठानियों की पूणा एवं उपेक्षा की पात्र बनी रही। इस प्रकार के उदाहरण भारतीय समाज में अभी भी देखने को मिलते हैं। इसका कारण और समाधान प्रस्तुत कीजिए।
जब भक्तिन दो कन्या-रत्न पैदा कर चुकी तब उसकी सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उसकी उपेक्षा की। भक्तिन उनकी उपेक्षा और पूणा का शिकार बन गई क्योंकि वह उनके समान पुत्र पैदा नहीं कर सकी थी। यद्यपि दोनों जिठानियों के काले-कलूटे पुत्र धूल उड़ाते फिरते थे, पर वे थे तौ पुत्र और भक्तिन इनसे वंचित थी।
इस प्रकार की घटनाओं से यह धारणा बनती है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है। भक्तिन की दुश्मन उसकी जिठानियाँ (स्त्रियाँ) ही बन गईं। भक्तिन के पति ने उससे कुछ नहीं कहा। वह पत्नी को चाहता भी बहुत था। भक्तिन पति की उपेक्षा की शिकार नहीं बनी, इसका कारण हमारे समाज का दृष्टिकोण तथा प्राचीन रूढ़ियाँ हैं। ग्रामीण समाज में घोर निरक्षरता व्याप्त है। वैज्ञानिक ससोचऔर तर्क का अभाव है। इसका समाधान शिक्षा (विशेषकर स्त्री शिक्षा) का प्रसार तथा महिला सशक्तिकरण के द्वारा ही संभव है।
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