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वर्चस्व के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
इसका अर्थ किसी एक देश की अगुआई या प्राबल्य है।
इस शब्द का इस्तेमाल प्राचीन यूनान में एथेंस की प्रधानता को चिह्नित करने के लिए किया जाता था।
वर्चस्वशील देश की सैन्यशक्ति अजेय होती है।
वर्चस्व की स्थिति नियत होती है। जिसने एक बार वर्चस्व कायम कर लिया उसने हमेशा के लिए वर्चस्व कायम कर लिया ।
D.
वर्चस्व की स्थिति नियत होती है। जिसने एक बार वर्चस्व कायम कर लिया उसने हमेशा के लिए वर्चस्व कायम कर लिया ।
समकालीन विश्व-व्यवस्था के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन ग़लत है?
ऐसी कोई विश्व-सरकार मौजूद नहीं जो देशों के व्यवहार पर अंकुश रख सके।
अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अमरीका की चलती है।
विभिन्न देश एक-दूसरे पर बल-प्रयोग कर रहे हैं।
जो देश अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हैं उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ कठोर दंड देता है।
D.
जो देश अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हैं उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ कठोर दंड देता है।
'ऑपरेशन इराकी फ्रीडम' (इराकी मुक्ति अभियान) के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
इराक पर हमला करने के इच्छुक अमरीकी अगुआई वाले गठबंधन में 4० से ज्यादा देश शामिल हुए।
इराक पर हमलेका कारण बताते हुए कहा गया कि यह हमला इराक को सामूहिक संहार के हथियार बनाने से रोकने के लिए किया जा रहा है।
इस कार्रवाई से पहले संयुक्ता राष्ट्र संघ की अनुमति ले ली गई थी।
अमरीकी नेतृत्व वाले गठबंधन को इराकी सेना सेगाड़ी चुनौती नहीं मिली।
C.
इस कार्रवाई से पहले संयुक्ता राष्ट्र संघ की अनुमति ले ली गई थी।
निम्नलिखित में मेल बैठायें:-
A. ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच | (i) तालिबान और अल-कायदा के खिलाफ जंग |
B. ऑपरेशन इंड् यूइरंग फ्रीडम | (ii) इराक पर हमले के इच्छुक देशों का गठबंधन |
C. ऑपरेशन डेजर्ट स्टार्म | (iii) सूडान पर मिसाइल से हमला |
D. ऑपरेशन इराकी फ्रीडम | (iv) प्रथम खाड़ी युद्ध |
A. ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच | (i) सूडान पर मिसाइल से हमला |
B. ऑपरेशन इंड् यूइरंग फ्रीडम | (ii) तालिबान और अल-कायदा के खिलाफ जंग |
C. ऑपरेशन डेजर्ट स्टार्म | (iii) प्रथम खाड़ी युद्ध |
D. ऑपरेशन इराकी फ्रीडम | (iv) इराक पर हमले के इच्छुक देशों का गठबंधन |
इस अध्याय में वर्चस्व के तीन अर्थ बताए गए हैं। प्रत्येक का एक-एक उदाहरण बतायें। ये उदाहरण इस अध्याय में बताए गए उदाहरणों से अलग होने चाहिए।
राजनीति एक ऐसी कहानी है जो शक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है। किसी भी आम आदमी की तरह हर समूह भी ताकत पाना और कायम रखना चाहता है। विश्व राजनीति में भी विभिन्न देश या देशों के समूह ताकत पाने और कायम रखने की लगातार कोशिश करते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में जब एक राष्ट्र शक्तिशाली बन जाता है और दूसरे राष्ट्रों पर अपना प्रभाव जमाने लगता है, तो उसे एकध्रुवीय व्यवस्था कहते हैं, लेकिन इस शब्द का यहाँ प्रयोग करना सर्वथा गलत हैं, क्योंकि इसी को 'वर्चस्व' के नाम से भी जाना जाता है अर्थात् दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि विश्व राजनीति में एक देश का अन्य देशों पर प्रभाव होना ही 'वर्चस्व' कहलाता है।
सैन्य वर्चस्व: अमरीका की मौजूदा ताकत की रीढ़ उसकी बड़ी-चढ़ी सैन्य शक्ति है। आज अमरीका की सैन्य शक्ति अपने आप में अनूठी है और बाकी देशों की तुलना में बेजोड। अनूठी इस अर्थ में कि आज अमरीका अपनी सैन्य क्षमता के बूते पूरी दुनिया में कहीं भी निशाना साध सकता है। उदहारण के तौर पर, इराक पर हमला, 2011 को अमेरिका में हुए आतंकी हमले के बाद अफ़ग़ानिस्तान के अलकायदा के ठिकानों पर हमला करने के लिए पाकिस्तान में सैन्य हवाई अड्डों का प्रयोग अमेरिकी वर्चस्व की ही उदहारण है जो आज तक भी अमेरिकी नियंत्रण में ही है।
ढाँचागत ताकत के रूप में वर्चस्व: वर्चस्व का यह अर्थ, इसके पहले अर्थ में बहुत अलग है। ढाँचागत वर्चस्व का अर्थ हैं वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी मर्जी चलाना तथा अपने उपयोग की चीजों को बनाना व बनाए रखना। अनेक ऐसे उदाहरण हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि अमरीका का ढाँचागत क्षेत्र में भी वर्चस्व कायम है; जैसे छोटे-छोटे देशों के ऋणों में कटौती तथा उन पर अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनाना आदि। अमरीका उसकी बात न मानने वाले देशों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाने में भी कामयाब रहता है।
सांस्कृतिक वर्चस्व: वर्चस्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष सांस्कृतिक पक्ष भी है। आज विश्व में अमरीका का दबदबा सिर्फ सैन्य शक्ति और आर्थिक बढ़त के बूते ही नहीं बल्कि अमरीका की सांस्कृतिक मौजूदगी भी इसका एक कारण है। अमरीकी संस्कृति बड़ी लुभावनी है और इसी कारण सबसे ज्यादा ताकतवर है। वर्चस्व का यह सांस्कृतिक पहलू है जहाँ जोर-जबर्दस्ती से नहीं बल्कि रजामंदी से बात मनवायी जाती है। समय गुजरने के साथ हम उसके इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि अब हम इसे इतना ही सहज मानते हैं जितना अपने आस-पास के पेडू-पक्षी या नदी को। जैसे भारतीय समाज में विचार एवं कार्यशैली की दृष्टि से बढ़ता खुलापन अमरीकी सांस्कृतिक प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है।
उन तीन बातों का जिक्र करें जिनसे साबित होता है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमरीकी प्रभुत्व का स्वभाव बदला है और शीतयुद्ध के वर्षो के अमरीकी प्रभुत्व की तुलना में यह अलग है।
इसमें कोई दोराहे नहीं कि शीतयुद्ध का अंत 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ हो गया था और सोवियत संघ एक महाशक्ति के रूप में विश्व परिदृश्य से गायब हो गया था। यह बात सही नहीं हैं कि अमेरिकी वर्चस्व सन् 1991 के पश्चात कायम हुआ है, क्योंकि अगर विश्व राजनीती के इतिहास पर दृष्टि डाली जाए तो अमेरिकी वर्चस्व का काल द्वित्य विश्वयुद्ध (1945) से ही प्रारम्भ हो गया था, लेकिन यह बात भी सही है कि इसने अपना वास्तविक रूप 1991 से दिखाना शुरू किया था। आज पूरा विश्व अमेरिकी वर्चस्व के आश्रय में जीने को बाध्य हैं:
इस प्रकार उपरोक्त तीनों घटनाओं के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि आज का अमेरिकी प्रभुत्व शीतयुद्ध के दौर से पूरी तरह अलग है। सोवितय संघ के विघटन के साथ ही शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद से संक्युत राज्य अमेरिका अपनी सैन्य व आर्थिक शक्ति का प्रयोग करके पूरी विश्व व्यवस्था पर अपना मनमाना आचरण थोपने लग गया जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका का वर्चस्व स्वरूप बदला है। शीतयुद्ध के दौरान इसका इतना प्रभाव नहीं रहा है।
भारत-अमरीका समझौते से संबंधित बहस के तीन अंश इस अध्याय में दिए गए हैं। इन्हें पढ़ें और किसी एक अंश को आधार मानकर पूरा भाषण तैयार करें जिसमें भारत- अमरीकी संबंध के बारे में किसी एक रुख का समर्थन किया गया हो।
इसमें कोई दो-राहे नहीं की यह अमेरिका के विश्वव्यापी वर्चस्व का दौर है और बाकि देशों की तरह भारत को भी फैसला करना है की वह अमेरिका के साथ किस तरह के संबंध रखना चाहता है। यद्यपि भारत में इस संबंध में तीन संभावित रणनीतियों पर बहस चल रही है:
अत: भारत-अमरीकी संबंधों के सन्दर्भ में व्यक्त तीनो विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दोनों देशों के बीच संबंध इतने जटिल है कि किसी एक रणनीति पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। अमरीका से निर्वाह करने के लिए भारत को विदेश नीति की कई रणनीतियों का एक समुचित मेल तैयार करना होगा।
''यदि बड़े और संसाधन संपन्न देश अमरीकी वर्चस्व का प्रतिकार नहीं कर सकते तो यह मानना अव्यावहारिक है कि अपेक्षाकृत छोटी और कमजोर राजयतर संस्थाएँ अमरीकी वर्चस्व का कोई प्रतिरोध कर पाएँगी। '' इस कथन की जाँच करें और अपनी राय बताएँ।
अमरीकी वर्चस्व की राह में कौन-से व्यवधान हैं? आप क्या जानते हैं कि इनमें से कौन-सा व्यवधान आगामी दिनों में सबसे महत्त्वपूर्ण साबित होगा?
इतिहास बताता है कि साम्राज्यों का पतन उनकी अंदरूनी कमजोरियों के कारण होता है। ठीक इसी तरह अमरीकी वर्चस्व की सबसे बड़ी बाधा खुद उसके वर्चस्व के भीतर मौजूद है। अमरीकी शक्ति की राह में तीन अवरोध सामने आए हैं:
अमेरिका की संस्थागत बनावट: पहला व्यवधान स्वयं अमरीका की संस्थागत बुनावट है। यहाँ शासन के तीन अंग हैं तथा तीनो के बीच शक्ति का बँटवारा है और यही बुनावट कार्यपालिका द्वारा सैन्य शक्ति के बेलगाम इस्तेमाल पर अंकुश लगाने का काम करती है। उदहारण के लिए अमेरिका में 9/11 की आतंकवादी घटना के बाद विधानपालिका (कांग्रेस) ने राष्ट्रपति को आतंकवाद से लड़ने के लिए सभी प्रकार के कदम उठाने की स्वीकृति दे दी, परंतु अब वहाँ अमेरिकी जनमत को देखते हुए कांग्रेस ने इराक युद्ध एवं उस पर आगे सैन्य खर्च को बढ़ाने के पक्ष में नहीं है। इस बात से यह स्पष्ट है कि अमेरिकी शासन का आंतरिक ढाँचा अमेरिकी राष्ट्रपति के निर्णय के रास्ते में एक व्यवधान के रूप में कार्य करता है।
जनमत: अमेरिकी वर्चस्व में दूसरी सबसे बड़ी अड़चन भी अंदरूनी है। इस अड़चन के मूल में है अमरीकी समाज जो अपनी प्रकृति में उम्मुक्त है। अमरीका में जन-संचार के साधन समय-समय पर वहाँ के जनमत को एक खास दिशा में मोड़ने की भले कोशिश करें लेकिन अमरीकी राजनीतिक संस्कृति में शासन के उद्देश्य और तरीके को लेकर गहरे संदेह का भाव भरा है। अमरीका के विदेशी सैन्य-अभियानों पर अंकुश रखने में यह बात बड़ी कारगर भूमिका निभाती है।
जैसे अमेरिका-इराक युद्ध और उसके बाद अमेरिकी सैनिकों की निरंतर होती मौतों के कारण वहां की जनता निरंतर इराक से अपनी फौजों को वापस बुलाने की माँग कर रही है जिसका प्रभाव यह है कि अमेरिकी प्रशासन की कठोर एवं निरंकुश सैन्य कार्यवाही पर जनमत को देखते हुए नियंत्रण किया हुआ है।
नाटो: अमरीकी ताकत की राह में मौजूद तीसरा व्यवधान सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में आज सिर्फ एक संगठन है जो संभवतया अमरीकी ताकत पर लगाम कस सकता है और इस संगठन का नाम है 'नाटो ' अर्थात् उत्तर अटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन। स्पष्ट ही अमरीका का बहुत बड़ा हित लोकतांत्रिक देशों के इस संगठन को कायम रखने से जुड़ा है क्योंकि इन देशों में बाजारमूलक अर्थव्यवस्था चलती है। इसी कारण इस बात की संभावना बनती है कि 'नाटो' में शामिल अमरीका के साथी देश उसके वर्चस्व पर कुछ अंकुश लगा सकें।
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