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भारत-विभाजन के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है?
भारत-विभाजन ''द्वि-राष्ट्र सिद्धांत'' का परिणाम था।
धर्म के आधार पर दो प्रांतों पंजाब और बंगाल का बँटवारा हुआ।
पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में संगति नहीं थी ।
विभाजन की योजना में यह बात भी शामिल थी कि दोनों देशों के बीच आबादी की अदला-बदली होगी।
D.
विभाजन की योजना में यह बात भी शामिल थी कि दोनों देशों के बीच आबादी की अदला-बदली होगी।
निम्नलिखित सिद्धांतों के साथ उचित उदाहरणों का मेल करें:
A. धर्म के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण | (i) पाकिस्तान और बांग्लादेश |
B. विभिन्न भाषाओं के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण | (ii) भारत और पाकिस्तान |
C. भौगोलिक आधार पर किसी देश के क्षेत्रों का सीमांकन | (iii) झारखण्ड ओर छत्तीसगढ़ |
D. किसी देश के भीतर प्रशासनिकेऔर राजनीतिक आधार पर क्षेत्रों का सीमांकन | (iv) हिमाचल प्रेदेश और उत्तराखंड |
A. धर्म के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण | (i) भारत और पाकिस्तान |
B. विभिन्न भाषाओं के आधार पर देश की सीमा का निर्धारण | (ii) पाकिस्तान और बांग्लादेश |
C. भौगोलिक आधार पर किसी देश के क्षेत्रों का सीमांकन | (iii) हिमाचल प्रेदेश और उत्तराखंड |
D. किसी देश के भीतर प्रशासनिकेऔर राजनीतिक आधार पर क्षेत्रों का सीमांकन | (iv) झारखण्ड ओर छत्तीसगढ़ |
नीचे दो तरह की राय लिखी गई है -
विस्मय : रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने से इन रियासतों की प्रजा तक लोकतंत्र का विस्तार हुआ।
इंद्रप्रीत : यह बात मैं दावे के साथ नहीं कह सकता.। इसमें बल प्रयोग भी हुआ था जबकि लोकतंत्र में आम सहमति से काम लिया जाता है।
देशी रियासतों के विलय और ऊपर के मशविरे के आलोक में इस घटनाक्रम पर आपकी क्या राय है?
देशी रियासतों के विलय से संबंधित उपरोक्त दोनों विचार अपने-अपने स्थान पर सही हैं। परंतु देशी रियासतों के विलय के घटनाचक्र पर विस्मय का विचार अधिक सही मालूम पड़ता है। स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की घोषणा के अनुसार रजवाड़ों पर ब्रिटिश प्रभुत्व समाप्त हो गया था। इसका अर्थ यह था कि सभी रजवाड़े कानूनी तोर पर स्वतंत्र हो गए। अंग्रेजी राज का यह दृष्टिकोण था कि रजवाड़े भारत अथवा पाकिस्तान में मिलने के लिए स्वतंत्र होंगें या फिर ये अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रख सकते हैं। अधिकांश रजवाड़ों का प्रशासन सुव्यवस्थित ढंग से नहीं चल रहा था। प्रजा अपने लोकतंत्रीय अधिकार चाहती थी। क्योंकि अधिकांश रजवाड़ों में शासन अलोकतंत्रीय ढंग से चलाया जा रहा था। इसलिए रजवाड़ों के लोग भारतीय संघ में शामिल होने के लिए तैयार थे। इसके विपरीत भारतीय सरकार का रवैया रजवाड़ों के प्रति लचीला था। वह कुछ इलाकों को स्वतंत्रता देने के लिए तैयार थी। अत: विस्मय की यह राय कि रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने से इन रियासतों की प्रजा तक लोकतंत्र का विस्तार हुआ, पर्याप्त रूप से सही है।
परंतु रियासतों के विलय के समय बड़ी-बड़ी रियासतों नें भारतीय संघ में मिलने से इंकार कर दिया। पहले इन प्रभावशाली रियासतों को लोकतंत्रीय ढंग से तथा बातचीत के माध्यम से भारतीय संघ में मिलाने के लिए मनाने का प्रयत्न किया गया । जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और मणिपुर की रियासतों का विलय कठिन साबित हुआ। हैदराबाद और जूनागढ़ के मामलें में कुछ बल का प्रयोग भी किया गया। इस तरह रियासतों के खिलाफ बल प्रयोग अलोकतंत्रीय था लेकिन सरकार की राजनीतिक मजबूरी थी। इस आधार पर इंद्रप्रीत के विचार सही हैं कि लोकतंत्र में आम सहमति से.काम लिया जाता है।
नीचे 1947 के अगस्त के कुछ व्यान दिए गए हैं जो अपनी प्रकृति में अत्यंत भिन्न हैं:
'आज आपने अपने सर पर, काँटों का ताज पहना है। सत्ता का आसन एक बुरी चीज़ है। इस आसन पर आपको-बड़ा संचेत रहना होगा....... .आपको और ज़्यादा विनम्र और धैर्यवान बनना होगा.......अब लगातार आपकी परीक्षा ली जाएगी। ''
- मोहनदास कर्मचंद गाँधी
''भारत आज़ादी की जिंदगी के लिए जागेगा......हम पुराने से नए की ओर कदम बढ़ाएँगे...... .आज दुर्भाग्य के एक दौर का खात्मा होगा और हिंदुस्तान अपने को फिर से पा लेगा.......आज हम जो जश्न मना रहे हैं वह एक कदम भर है, संभावनाओं के द्वार खुल रहे हैं ....... '' '
-पं० जवाहरलाल नेहरू
इन दो बयानों से राष्ट्र-निर्माण का जो एजेंडा ध्वनित होता है उसे लिखिए। आपको कौन-सा एजेंडा जँच रहा है और क्यों?
अगस्त, 1947 को भारत ने बड़े संघर्षों के बाद स्वतंत्रता प्राप्त की। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इन दौ महान नेताओं ने अपनी-अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की और अलग-अलग समय पर वक्तव्य दिए। इन दोनों नेताओं के व्यानों में राष्ट्र-निर्माण का एजेंडा ध्वनित होता है।
भारत को धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए नेहरू जी ने किन तर्कों का इस्तेमाल किया? क्या आपको लगता है कि ये केवल भावनात्मक और नैतिक तर्क हैं अथवा इनमें कोई तर्क युक्तिपरक भी है?
नेहरू जी ने भारत को धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए निम्नलिखित तर्क दिए हैं:
नेहरू जी का धर्म-निरपेक्षता में विश्वास था। उनका दृष्टिकोण मुख्य रूप से निरपेक्षतावादी और वैज्ञानिक था। इसलिए उन्हें रहस्यवाद से सदैव चिढ़ थी। उन्होंने सदैव रूढ़िगत प्रथाओं और परंपराओं का विरोध किया। उनका किसी अज्ञात सर्वोपरि शक्ति में विश्वास नहीं था। नेहरूजी की धर्म-निरपेक्षता में पूण निष्ठा. थी उनकी धर्म-निरपेक्ष निष्ठा को उनके ही शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है। उन्होंने कहा था, ''मूलत: मैं इसी विश्व में, इसी जीवन में दिलचस्पी रखता हूँ, किसी अन्य विश्व या एक भावी जीवन में नहीं। आत्मा जैसी कोई वस्तु है या नहीं, अथवा मृत्यु के उपरांत भी कोई जीवन है या नहीं, मैं नहीं जानता। यद्यपि ये महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं किंतु मुझे तनिक भी परेशान नहीं करते।''नेहरूजी की धर्म-निरपेक्षता का अंदाजा इस बात सेलगाया जा सकता है कि उन्होंने भारत में धर्म-निरपेक्ष राज्य की स्थापना का समर्थन किया। परंतु उनकी धर्म-निरपेक्ष धारणा का यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि वे धर्म-विरोधी थे या फिर वे नास्तिक या अधर्मी थे। नेहरू जी न तो धर्म-विरोधी थे, न नास्तिक थे.और न ही अधार्मिक थें। वस्तुत: नेहरू जी ने धर्म और ईश्वर जैसे शब्दों का कुछ विशेष अर्थ बताया है। धर्म का अर्थ मंदिर में नियमित रूप से जाकर पूजा करना नहीं है या फिर माला जपना नहीं है। धर्म का अर्थ है किसी के प्रति दुर्भावना न रखना और सबसे प्रेम करना, अपने कर्म के प्रति जागरूक होना। अपने व्यक्तिगत सुखों या हितों की चिंता किए बिना दूसरे के लिए कर्म करना सच्चा धर्म है। एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति प्रत्येक कर्म निष्काम भाव से करता है। उसकी कर्म के फल के प्रति कोई आसक्ति नहीं होती। नेहरूजी में यह सब गुण थे। उनका सर्वस्व बलिदान तो विश्व विख्यात हे। वे सदैव दीन-दुखियों की सहायता के लिए तैयार रहते थे।
नेहरू जी ने धर्म-निरपेक्षता का न केवल प्रचार किया बल्कि नेहरू जी अपने प्रधानमंत्री रहने के कार्यकाल में धर्म-निरपेक्षवाद के विचार पर दृढ़ रहे और उन्होंने उन सभी व्यक्तियों का विरोध किया जो भारत को एक हिंदूराष्ट्र बनाने के पक्ष में थे। वे अल्पसंख्यकों और मुसलमानों को भारत में समान दर्जा प्रदान करने के पक्ष में थे। उन्होंने भारत को एक धर्म-निरपेक्ष राज्य बनाने में गाँधी जी का अनुसरण किया। उनका विचार था कि भारत सबके लिए है, न कि कैवल हिंदुओं के लिए । नेहरूजी कीं धर्म-निरपेक्ष धारणा संकीर्ण न होकर व्यापक व उदार थी । उन्होंने अपनी धर्म-निरपेक्षता की धारणा को कैवल धार्मिक मामलों तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों तक भी ले गए। उनका विचार था कि हमारी सामाजिक सहिंताएँ, हमारे सामाजिक नियम, विवाह, उत्तराधिकार, न्याय, दीवानी व फौजदारी नियम आदि धर्म-निरपेक्ष होने चाहिएं। अर्थात् इन पर धार्मिक प्रभाव नहीं होना चाहिए। वे सभी भारतवासियों के लिए एक-सा कानून चाहते थे। इस दिशा में उन्होंने हिंदू कानून कें संहिताकरण का कदम भी उठाया। वे भारत में से जाती-पाति को समाप्त करना चाहते थे।
निष्कर्ष: संक्षेप में, नेहरूजी के राजनीतिक विचार किसी विशिष्ट 'वाद' छाए पर आधारित न होकर व्यावहारिक हैं। वे एक यथार्थवादी तथा मानवतावादी थे। वे एक बहुत बड़े व्यक्तिवादी थे। प्रजातंत्र, समानता, स्वतंत्रता, धर्म-निरपेक्षता एवं समाजवाद में उनका दृढ़ विश्वास था।
आज़ादी के समय देश के पूर्वी और पश्चिमी इलाकों में राष्ट्र-निर्माण की चुनौती के लिहाज से दो मुख्य अंतर क्या थे?
आज़ादी के समय देश के पूर्वी और पश्चिमी इलाकों में राष्ट्र-निर्माण की चुनौती के लिहाज से दो अंतर निन्नलिखित थे:
राज्य पुनर्गठन आयोग का काम क्या था? इसकी प्रमुख सिफारिश क्या थी?
स्वतंत्रता के पूर्व प्रांतों का गठन अस्त-व्यस्त ढंग से किया गया था। यह केवल एक प्रशासनिक सुविधा थी। इसलिए कांग्रेस ने स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान यह वायदा किया था कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद राज्यों का गठन भाषा केआधार पर किया जाएगा। इसलिए स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारतीय संघ की इकाइयों को पुनर्गठित करने के लिए एक समिति का गठन किया। इस समिति ने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के विरुद्ध सिफारिश की। लेकिन भारत के कई हिस्सों में भाषा केआधार पर राज्यों का गठन करने के लिए आंदोलन शुरूहो गए या कहिए कि देश में भाषायी आधार पर राज्यों को गठित करने का संघर्ष चल पड़ा। इन संघर्षों से बाध्य होकर केंद्र सरकार ने 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया। इस आयोग का काम राज्यों के सीमांकन के मामलों पर गौर करना था।
इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह स्वीकार किया कि राज्यों की सीमाओं का निर्माण वहाँ बोली जाने वाली भाषा केआधार पर होना चाहिए। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पास हुआ। इस अधिनियम के आधार पर 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए और बाद में कई राज्यों का निर्माण भी भाषा के आधार पर ही किया गया।
कहा जाता है कि राष्ट्र एक व्यापक अर्थ में 'कल्पित समुदाय' होता है और सर्वमान्य विश्वास, इतिहास, राजनीतिक आकांक्षा और कल्पनाओं से एकसूत्र में बँधा होता है। उन विशेषताओं की पहचान करें जिनकेआधार पर भारत एक राष्ट्र है।
राष्ट्र के संबंध में विचारकों द्वारा कई मत प्रदान किए गए हैं उनमें से एक अर्थ यह भी है कि राष्ट्र 'कल्पित समुदाय' होता है। इस विचार से कुछ लोग सहमत हैं और कुछ इस विचार पर अपनी असहमति दर्ज कराते हैं। वास्तविकता में राष्ट्र को एक कल्पित समुदाय कहना सर्वथा अनुचित है। राष्ट्र-निर्माण एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके आधार पर लोग अपने छोटे-छोटे कबीलों, गाँवों एवं नगरों के प्रति वफादारी के स्थान पर विशाल केंद्रीय राजनीतिक प्रणाली को वफादारी प्रदान करते हैं अर्थात् राष्ट्र स्थाई होता है जिसके पास अपनी प्रभुसत्ता, विदेश नीति होती है। जिसमें उसकी शक्ति समाहित होती है परंतु इसके होते हुए भी कोई देश तब तक अपने अस्तित्व को बनाएं नहीं रख सकता जब तक उस देश की जनता अपने राष्ट्र के प्रति सर्वमान्य विश्वास न रखती हो। विश्वास के साथ देश का इतिहास भी राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधता है। इसके साथ-साथ राष्ट्र-निर्माण के लिए एक नस्ल , जाति, समान भाषा, साहित्य, रीति-रिवाज, धार्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक तत्त्वों की भी आवश्यकता होती है। भारत को भी वर्णित विशेषताओंकेआधार पर एक राष्ट्र कहा जा सकता है।
राष्ट्र के संबंध-भाव को राष्ट्रीयता के रूप में देखा और समझा जाता है। कुछ तत्त्वोंकेआधार पर उत्पन्न हुई किसी एक जन-समूह में एकता की भावना को राष्ट्रीयता कहा जाता है। जिस जन-समूह में यह भावना विद्यमान होती है, और जो इसके आधार पर एक संगठित ढांचेमें ढल. जाता हैतो वह जन-समूह राष्ट्र का रूप ग्रहण कर लेता है।
नीचे लिखे अवतरण को पढ़िए और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए:
राष्ट्र- निर्माण के इतिहास के लिहाज से सिर्फ सोवियत संघ में हुए प्रयोगों की तुलना भारत से की जा सकती है। सोवियत संघ में भी विभिन्न और परस्पर अलग-अलग जातीय समूह, धर्म, भाषा समुदाय और सामाजिक वर्गों के बीच एकता का भाव कायम करना पड़ा। जिस पैमाने पर यह काम हुआ, चाहे भौगोलिक पैमाने के लिहाज से देखें या जनसंख्यागत वैविध्य के लिहाज से, वह अपने आप में बहुत व्यापक कहा जाएगा। दोनों ही जगह राज्य को जिस कच्ची सामग्री में राष्ट्र निर्माण की शुरुआत करनी थी वह समान रूप से दुष्कर थी। लोग धर्म के आधार पर बटे हुए और क़र्ज़ तथा बीमारी से दबे हुए थे।
(क) यहाँ लेखक ने भारत और सोवियत संघ के बीच समानताओं का उल्लेख किया है, उनकी एक सूची बनाइए। इनमें से प्रत्येक के लिए भारत से एक उदाहरण दीजिए।
(ख) लेखक ने यहाँ भारत और सोवियत संघ में चली राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रियाओं के बीच की समानता का उल्लेख नहीं किया हैं। क्या आप दो असमानताएँ बता सकते हैं।
(ग) अगर पीछे मुड़कर देखें तो आप क्या पाते हैं? राष्ट्र-निर्माण के इन दो प्रयोगों में कितने बेहतर काम किया और क्यों?
उपर्युक्त अवतरण में लेखक ने भारत और सोवियत संघ में राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया के बीच समानताओं का वर्णन किया है। लेकिन इस प्रक्रिया में असमानताओं का वर्णन नहीं है। फिर भी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया की समानताओं और अमानताओं का विवरण निम्नलिखित है:
समानताएँ:
असमानताएँ:
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