मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या मदद की ?
मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसका वर्णन इस प्रकार से है-
(i) 1870 के दशक तक पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनितिक विषयों पर टिप्पणी करते हुए कैरिकेचर और कार्टून छपने लगे थे। कुछ में शिक्षित भारतियों की पश्चिमी पोशाक और पश्चिमी अभिरुचियों का उपहास उड़ाया गया, जबकि कुछ अन्य में सामाजिक परिवर्तन को लेकर एक भय देखा गया। साम्राज्यवादी व्यंग्यचित्रों में राष्ट्रवादियों का उपहास उड़ाया जाता था, तो राष्ट्रवादी भी साम्राज्यवादी सत्ता पर चोट करने में पीछे नहीं रहे।
(ii) मुद्रण ने समुदाय के बीच केवल मत-मतांतर उत्पन्न नहीं किए अपितु इसने समुदायों को भीतर से और अलग-अलग भागों को पुरे भारत से जोड़ने का काम भी किया। समाचार-पत्र एक स्थान से दूसरे स्थान तक समाचार पँहुचाते थे जिससे अखिल भारतीय पहचान उभरती थी।
(iii) कई पुस्तकालय भी मिल-मज़दूरों तथा अन्य लोगों द्वारा स्थापित किए गए ताकि वे स्वयं को शिक्षित कर सकें।
(iv) कई पुस्तकालय बेमेल मस्तूरी तथा ने लोगों द्वारा स्थापित किए गए ताकि वे स्वयं को शिक्षित कर सकें। इससे राष्ट्रवाद का संदेश प्रचारित करने में मदद मिली।
(v) दमनकारी कदमों के बावजूद राष्ट्रवादी अखबार भारत के कई हिस्सों में भारी संख्या में पल्लवित हुए। वे औपनिवेशिक शासन का विरोध करते हुए राष्ट्रवादी गतिविधियों को उत्साहित करते थे।



