अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत, और ज्ञानोदय होगा?
18 वीं सदी के मध्य तक यह आम विश्वास बन चुका था कि किताबों के जरिए प्रगति और ज्ञान में वृद्धि होती है। अनेक लोगों का मानना था कि किताबें दुनिया बदल सकती है। किताबें निरंकुशवाद और आतंकी राजसत्ता से समाज को मुक्ति दिलाकर ऐसा दौर लाएँगी जब विवेक और बुद्धि का राज होगा। उपन्यासकारों का मानना था कि छापखाना प्रगति का सबसे ताकतवर औज़ार है, इससे निरंकुशवाद समाप्त हो जाएगा। उन्हें विश्वास था की ज्ञान वृद्धि करने और निरंकुशवाद के आधार को नष्ट करने में छापेखाने की भूमिका अहम होगी।
लोगों की इस सोच के पीछे निम्नलिखित कारण थे:-
(i) यूरोप के ज़्यादातर हिस्सों में साक्षरता बढ़ती जा रही थी।
(ii) यूरोपीय देशों में साक्षरता और स्कूलों के प्रसार के साथ लोगों में जैसे पढ़ने का जुनून पैदा हो गया। लोगों को किताबें चाहिए थीं, इसलिए मुद्रक ज्यादा-से-ज्यादा किताबें छापने लगे।
(iii) मुद्रण संस्कृति के आगमन के बाद आम लोगों में वैज्ञानिकों तथा दार्शनिकों के विचार अधिक रखने लगे।
(iv) वैज्ञानिक तथ्य दार्शनिक भी आम जनता की पहुँच के बाहर नहीं रहे। प्राचीन एवं मध्यकालीन ग्रंथ संकलित किए और नक्शों के साथ-साथ वैज्ञानिक खाके भी बड़ी मात्रा में छापे गए।
(v) साहित्य में विज्ञान, तर्क और विवेकवाद के विचार महत्वपूर्ण स्थान हासिल करते जा रहे थे।