एक बार जब लेखक को चूरन वाले भगतजी बाजार में मिल गए तब लेखक ने क्या बात देखी?
एक बार लेखक को चूरन वाले भगत जी बाजार चौक में दीख गए। लेखक को देखते ही उन्होंने जय-जयराम किया। लेखक ने भी जयराम कहा। उनकी आँखें बंद नहीं थीं और न उस समय वह बाजार को किसी भांति कोस रहे मालूम होते थे। राह में बहुत लोग बहुत बालक मिले जो भगतजी द्वारा पहचाने जाने के इच्छुक थे। भगतजी ने सबको ही हँसकर पहचाना। सबका अभिवादन लिया और सबको अभिवादन किया। इससे तनिक भी यह नहीं कहा जा सकेगा कि चौक-बाजार में होकर उनकी आँखें किसी से भी कम खुली थीं लेकिन भौंचक्के हो रहने की लाचारी उन्हें नहीं थी। व्यवहार में पसोपेश उन्हें नही था और खोए-से खड़े नहीं वह रह जाते थे। भाँति-भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा पड़ा था। उस सबके प्रति अप्रीति इस भगत के मन मे नहीं थी। जैसे उस समूचे माल के प्रति भी उनके मन में आशीर्वाद हो सकता था। विद्रोह नहीं, प्रसन्नता ही भीतर थी। लेखक देखता है कि खुली आँख. तुष्ट और मग्न, वह चौक-बाजार में से चलते चले जाते हैं। राह में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं। कहीं भगत नहीं रुकते। रुकते हैं तो एक छोटी पंसारी की दुकान पर रुकते हैं। वहाँ दो-चार अपने काम की चीज लीं और चले आते हैं। बाजार से हठपूर्वक विमुखता उनमें नहीं है; लेकिन अगर जीरा और नमक चाहिए तो सारे चौक-बाजार की सत्ता उनके लिए तभी तक है, तभी तक उपयोगी है, जब तक वहाँ जीरा मिलता है। जरूरत- भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है। वह जानते हैं कि जो उन्हें चाहिए वह है जीरा, नमक।