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जैनेंद्र कुमार

Question
CBSEENHN12026504

निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो, ‘मानवता’ के द्दष्टिकोण से समाज को दो वर्गों या श्रेणियों में नहीं थबाँटाजा सकता। ऐसी स्थिति में, राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए।

1. राजनीतिज्ञ को व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता क्यों रहती है? यह सिद्धांत क्या हो सकता है?
2. राजनीतिज्ञ की विवशता क्या होती है?
3. भिन्न व्यवहार मानवता की दृष्टि से उपयुक्त क्यों नहीं होता है?
4. समाज के दो वर्गों से क्या तात्पर्य है? वर्गानुसार भिन्न व्यवहार औचित्यपूर्ण क्या नहीं होता?



Solution

1. राजनीतिज्ञ को व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता इसलिए रहती है क्योंकि उसके पास समय का अभाव होता है। उसे प्रत्येक के बारे में पूरी जानकारी भी नहीं होती। उसका व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए।
2. राजनीतिज्ञ की विवशता यह होती है कि उसका बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। इन सभी की आवश्यकताओं और क्षमताओं की जानकारी रखना उसके लिए कठिन होता है। उसके पास समय का भी अभाव होता है।
3. भिन्न व्यवहार मानवता की दृष्टि से इसलिए उपयुक्त नहीं होता क्योंकि इससे समाज दो वर्गों या श्रेणियों में बँट जाता है। मानव समाज का बँटवारा करना मानवीय दृष्टिकोण से ठीक नहीं है।
4. समाज के दो वर्गो से तात्पर्य है-उच्च वर्ग और निम्न वर्ग। एक वर्ग है-जिनके पास है और दूसरा वर्ग है-जिनके पास नहीं है। वर्ग के अनुसार भिन्न व्यवहार को औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता क्योंकि इससे समाज का बँटवारा होता है। यह समता के सिद्धांत के विरुद्ध है।

Some More Questions From जैनेंद्र कुमार Chapter

निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
मैंने मन में कहा, ठीक। बाजार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए हे? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में खूबी है कि आग्रह नहीं है। आग्रह तिरस्कार जगाता है, लेकिन ऊँचे बाजार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाजार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है ओह!

कोई अपने को न जाने तो बाजार का यह चौक उसे कामना से विकल बना छोड़े। विकल क्यों, पागल। असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए यह बेकार बना डाल सकता है।

1. बाजार के आमंत्रण स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
2. बाजार के आमंत्रण की क्या विशेषता होती है?
3. ऊँचे बाजार के आमंत्रण को मूक क्यों कहा गया है?
4. इस प्रकार के आमंत्रण किस प्रकार की चाह जगती है? उस चाह में आदमी क्या महसूस करने लगता है?



निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
बाजार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चुम्बक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली, पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उसके पास पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है। मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान जरूरी और आराम बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फंसी चीजों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है।

1. बाजा़र के जादू को रूप का जादू क्यों कहा गया है?
2. बाजा़र के जादू की मर्यादा स्पष्ट कीजिए।
3. बाजा़र का जादू किस प्रकार के लोगों को लुभाता है?
4. इस जादू के बंधन से बचने का क्या उपाय हो सकता है?
5. ‘जेब भरी हो और मन खाली हो’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
6. बाजा़र का जादू किस तरह के व्यक्तियों पर अधिक असर करता है?



निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
बाजार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चुम्बक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली, पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उसके पास पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है। मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान जरूरी और आराम बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फंसी चीजों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है।

1. लेखक ने क्यों कहा कि बाजार में एक जादू है?
2. ‘मन खाली होने’ से क्या अभिप्राय है? यह खाली मन बाजारवाद को कैसे सेवा देता है?
3. आज का उपभोक्ता जेब खाली होने पर भी खरीदारी करता है यह समाज की किस प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है? आप ऐसा क्यों मानते हैं?





निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
मित्र बाजार गए तो थे कोई एक मामूली चीज लेने पर लौटे तो एकदम बहुत-से बंडल पास थे। मैंने कहा-यह क्या? बोले-यह जो साथ थीं। उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिका का मैं कायलन हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है। और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री आया न जोड़े, तो क्या मैं जोड़े? फिर भी सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्त्व की महिमा सविशेष है। वह तत्त्व है मनीबैग, अर्थात् पैसे की गरमी या एनर्जी।

1. ‘यह जो साथ थीं’-कथन में निहित व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए।
2.  पत्नी पति से किस विषय में प्रमुख मानी जाती है? इस प्रमुखता का क्या कारण है?
3. ‘स्त्री माया न जोड़े .....’ वाक्यांश का आशय समझाइए।
4. ‘पैसे की गरमी या एनर्जी’ की बात किस संदर्भ में कही गई है और क्यों?



निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो, ‘मानवता’ के द्दष्टिकोण से समाज को दो वर्गों या श्रेणियों में नहीं थबाँटाजा सकता। ऐसी स्थिति में, राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए।

1. राजनीतिज्ञ को व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता क्यों रहती है? यह सिद्धांत क्या हो सकता है?
2. राजनीतिज्ञ की विवशता क्या होती है?
3. भिन्न व्यवहार मानवता की दृष्टि से उपयुक्त क्यों नहीं होता है?
4. समाज के दो वर्गों से क्या तात्पर्य है? वर्गानुसार भिन्न व्यवहार औचित्यपूर्ण क्या नहीं होता?



निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
पैसे की व्यंग्य-शक्ति की सुनिए। वह दारुण है। मैं पैदल चल रहा हूँ कि पास ही धूल उड़ाती निकल गई मोटर। वह क्या निकली मेरे कलेजे को कौंधती एक कठिन व्यंग्य की लीक ही आर-से-पार हो गई। जैसे किसी ने आँखों में उँगली देकर दिखा दिया हो कि देखो, उसका नाम है मोटर, और तुम उससे वंचित हो! यह मुझे अपनी ऐसा विडंबना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं। मैं सोचने को हो आता हूँ कि हाय, ये ही माँ-बाप रह गए थे जिनके यहाँ मैं जन्म लेने को था! क्यों न मैं मोटरवालों के यहाँ हुआ। उस व्यंग्य में इतनी शक्ति है कि जरा में मुझे अपने सगों के प्रति कृतघ्न कर सकती है। लेकिन क्या लोक वैभव की यह व्यंग्य-शक्ति उस चूरन वाले अकिंचित्कर मनुष्य के आगे चूर-चूर होकर ही नहीं रह जाती? चूर-चूर क्यों, कहो पानी-पानी।
तो वह क्या बल है जो इस तीखे व्यंग्य के आगे ही अजेय ही नहीं रहता, बल्कि मानो उस व्यंग्य की कुरता को ही पिघला देता है?

1. पैसे की व्यंग्य-शक्ति बताने के लिए क्या उदाहरण दिया गया है?
2. लेखक को क्या विडंबना मालूम होती है?
3. इस व्यंग्य-शक्ति का चूरन वाले के सामने क्या हाल होता है?
4. लेखक किस बल की बात कर रहा है?


निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
उस बल को नाम जो दो; पर वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव फलता-फूलता है। वह कुछ अपर जाति का तत्त्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैं, आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखूँ और प्रतिपादन करूँ। मुझे शब्द से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकूँ। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है।

1. ‘उस बल’ से लेखक का क्या तात्पर्य है? उसे अपर जाति का तत्व क्यों कहा है?
2. लेखक की विनम्रता किस कथन से व्यक्त हो रही है और आप उसके कथन से कहाँ तक सहमत हैं?
3. लेखक ने व्यक्ति की निर्बलता का प्रमाण किसे माना है और क्यों?
4. मनुष्य पर धन की विजय चेतन पर जड़ की विजय कैसे है?



निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
इस सद्भाव के द्वारा पर आदमी आपस में भाई-भाई और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में कोरे गाहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं, मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की घात में हों, एक की हानि में दूसरे को अपना लाभ दिखता है और यह बाजार का, बल्कि इतिहास का सत्य माना जाता है। ऐसे बाजार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता; बल्कि शोषण होने लगता है। तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाजार मानवता के लिए विडम्बना है और जो ऐसे बाजार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है, वह मायावी शास्त्र है, वह अर्थशास्त्र अनीतिशास्त्र है।

1. किस ‘सद्भाव के हाल’ की बात की जा रही है? उसका क्या परिणाम दिखाई पड़ता है?
2. ‘ऐसे बाजार’ प्रयोग का सकेतित अर्थ स्पष्ट कीजिए।
3. लेखक ने संकेत किया है कि कभी-कभी बाजार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। इस विचार के पक्ष या विपक्ष में दो तर्क दीजिए।
4. अर्थशास्त्र के लिए प्रयुक्त दो विशेषणों का औचित्य बताइए।




बाजा़र का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या असर पड़ता है?

बाजा़र में भगतजी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभरकर आता है? क्या आपकी नज़र में उनका आचरण समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है?