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दैनिक जागरण
कॉलम-पाठकनामा
दूसरों की भलाई
आज के समय में अपने लिए तो सभी जीते हैं, लेकिन दूसरों के लिए कुछ करना वह भी पूरे जोश व संघर्ष के साथ एक अलग व्यक्तित्व की पहचान कराता है। महात्मा गाँधी से प्रभावित डॉ. एन. लैंग दक्षिण अफ्रीका ही नहीं, पूरे विश्व की महिलाओं के लिए आदर्श हैं। रंगभेद से त्रस्त यूरोप में एक श्वेत महिला द्वारा अश्वेत के जीवन को सही राह दिखाना, अंधेरे में दीपक जलाने के समान है। अपने चमकते भविष्य को दरकिनार कर डॉ. एन. लैंग जिस तरह हर बच्चे के भविष्य के लिए संघर्ष कर रही हैं, वह लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। दु:खद यह है कि दक्षिण अफ्रीका की सरकार ही डी एन लैंग के काम में बाधा डाल रही है। दक्षिण अफ्रीका की सरकार एवं विश्व के सभी लोगों को लैंग की सहायता करनी चाहिए और अपने देश में भी ऐसे अनाथ बच्चों के सहायतार्थ योजना बनानी चाहिए, जिन्हें वास्तव में मदद की जरूरत है और वे इस मदद के बगैर आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।
टिप्पणी-इस समाचार को पढ़कर हम यह कह सकते हैं कि हमें केवल अपने बारे में ही नहीं सोचना चाहिए बल्कि समाज मैं कमजोर वर्ग का भी सहारा बनना चाहिए। जैसे डॉ. एन. लैंग पीड़ित महिलाओं व अनाथ बच्चों हेतु सहायतार्थ कार्यो के लिए अग्रसर है। हमारा यह भी कर्तव्य बनता है कि जो लोग लोकहित कार्यो में रुचि लेते हैं उनकी सहायता भी की जाए ताकि वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें जिससे समाज लाभांवित हो।
दैनिक जागरण (आम समाचार)
स्वरोजगार भवन
समाज में लाचार व विकलांगों की सहायता हेतु मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने ‘स्वरोजगार भवनों’ के निर्माण पर विचार किया है जिसमें जरूरतमंद लोग अपनी शारीरिक योग्यता के अनुसार कार्य करके धन कमा सकेंगे।
टिप्पणी-ऐसे कार्यो से ही समाज आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ेगा। वर्ग भेद व ऊँच-नीच की भावना समाप्त होगी क्योंकि जब किसी स्थान पर लोग मिलकर कार्य करते हैं तो एकता की भावना को बल मिलता है और आत्मविश्वास बढ़ता है।
समाज में नित दिन ऐसी बहुत-सी घटनाएँ घटती हैं जिन्हें मीडिया समाचार-पत्र आदि उजागर नहीं करतै लेकिन नकारात्मक घटनाओं को जल्द ही प्रकाशित कर दिया जाता है। निम्न घटना सत्यता पर आधारित है जो मेरे जीवन में घटी-
मेरे एक मित्र का बेटा कैंसर रोग से पीड़ित है। उनकी आर्थिक दशा बिकुल भी सुदृढ़ नहीं क्योंकि पिछले सात वर्ष से बेटे के इलाज पर काफी खर्च हो चुका है। वे छोटी-सी कंपनी में नौकरी कर केवल सात हजार रुपए महीना कमाते हैं और दवाइयों का खर्च ही पांच-छ: हजार हो जाता है। ऐसे में कैसे उसकी देखभाल करें व घर खर्च चलाएँ। मेरे एक अन्य मित्र हैं जो कलकत्ता में रहते हैं। वे एक बड़े व्यापारी हैं। वे लोकहित हेतु कई सामाजिक संगठन चला रहे हैं। मैनें उनसे अनुरोध किया कि कृपया वे मेरे एक मित्र के बेटे की सहायता करें। मैंने जैसे ही फ़ोन पर उनसे यह बात कही तो अगले ही दिन वे हवाई जहाज से दिल्ली आए और मेरे मित्र के बेटे को अपने साथ ले गए और पूरे इलाज का खर्च करने का वायदा किया। आज दो वर्ष से वह बच्चा कलकत्ते के अस्पताल में दाखिल है वे दवाइयों व उसके खाने-पीने का पूरा खर्च कर रहे हैं। अब उस बच्चे की बीमारी में भी काफी सुधार आया है।
जब भी मैं कलकत्ता वाले मित्र के बारे में सोचता हूँ तो मेरा मन उनके लिए कृतज्ञ हो उठता है।
यदि ‘बस यात्रा’ और ‘स्पा निराश हुआ जाए’ पाठों के लेखक आपस में बातें करें तो निम्न रूप से करेंगे-
हरिशंकर - अरे भाई हजारी, क्या बताऊँ? कल से बहुत परेशान हूँ।
हजारी - क्यों! क्या हो गया?
हरिशंकर - कल एक ऐसी बस में बैठ गया जिसकी हालत बहुत खराब थी।
हजारी - फिर!
हरिशंकर - पाँच घंटे का पहाड़ी सफर था, मेरा तो अंग-अंग दर्द है। रहा है।
हजारी - बस के मालिक भी किराया तो यात्रियों से पूरा लेते हैं लेकिन उनकी सुविधाओं की चिंंता नहीं करते।
हरिशंकर - हजारी! तेरी उस दिन की बस यात्रा कैसी रही?
हजारी - उस दिन मेरी बस यात्रा में एक ऐसी घटना घटी कि मैं भुलाए नहीं एल सकता।
हरिशंकर - क्या हो गया था?
हजारी - मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जब बस में जा रहा था तो अचानक बस खराब हो गई। लोग डर गए।
हरिशंकर - बस के खराब होने पर लोग डर गए!
हजारी - रास्ता सुनसान था हरिशंकर!
हरिशंकर - फिर क्या हुआ?
हजारी - अचानक कंडक्टर साइकिल पर सवार होकर चला गया!
हरिशंकर - कहाँ?
हजारी - यही तो पता नहीं था। इसलिए लोग कई प्रकार की बातें करने लगे कि ड्राइवर ने तो कंडक्टर को डाकुओं को बुलाने भेज दिया है। वे ड्राइवर को मारने को उतारू थे।
हरिशंकर - फिर क्या हुआ?
हजारी - थोड़ी देर में कंडक्टर खाली बस ले आया और छोटे बच्चों के लिए दूध आदि भी।
हरिशंकर - वाह भई वाह!
हजारी - इस बात से मन गद्गद हो गया कि आज भी मानवता जिंदा है।
'क्या निराश हुआ जाए’-लेखक के शीर्षक के मायने हैं कि मनुष्य को निराश नहीं होना चाहिए, समाज में अगर अराजकता के तत्त्व बढ़ रहे हैं तो मानवीय भाव भी जिंदा हैं। जिनके सहारे भारत की मानवता कभी मिट नहीं सकती। हम इसका अन्य शीर्षक दे सकते हैं-आशावादी।
दो शब्दों के मिलने से समास बनता है। समास का एक प्रकार है-द्वंद्व समास। इसमें दोनों शब्द प्रधान होते हैं। जब दोनों भाग प्रधान होंगे तो एक-दूसरे में द्वंद्व (स्पर्धा, होड़) की संभावना होती है। कोई किसी से पीछे रहना नहीं चाहता, जैसे-चरम और परम = चरम-परम, भीरु और बेबस = भीरू-बेबस। दिन और रात = दिन-रात।
‘और’ के साथ आए शब्दों के जोड़े को ‘और’ हटाकर (-) योजक चिह्न भी लगाया जाता है। कभी-कभी एक साथ भी लिखा जाता है। द्वंद्व समास के बारह उदाहरण ढूँढ़कर लिखिए।
(1) आरोप-प्रत्यारोप (2) फल-फूल (3) काम-क्रोध (4) लोभ-मोह
(5) कायदे-कानून (6) मारने-पीटने (7) गुण-दोष ( 8) सुख-सुविधा
(9) झूठ-फरेब (10) कानून-धर्म (11) लोक-चित्त (12) दया-माया
C.
ईमानदार लोगों को मूर्ख समझा जाने लगा है।C.
जो सबसे ऊँचा हो, अग्रणी हो वह चरम व जो सबसे प्रधान हो परम।Sponsor Area
B.
एक खाली बस व छोटे बच्चों के लिए दूध आदि लेने।B.
भौतिक वस्तुओं की बजाय नैतिक मूल्यों को महत्व दिया जाता है।1. सच्चाई केवल भीरु और बेबस लोगों के हिस्से पड़ी है-तानाशाही बढ़ेगी।
2. झूठ और फरेब का रोजगार करनेवाले फल-फूल रहे हैं-भ्रष्टाचार बढ़ेगा।
3. हर आदमी दोषी अधिक दिख रहा है, गुणी कम’-अविश्वास बढ़ेगा।
B.
यदि लोग ईमानदारी से कार्य करते हैं तो चालाक लोग उसे मूर्खता समझते हैं।B.
कृषि. उद्योगों, वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य सभी क्षेत्रों का विकास।B.
नहीं, क्योंकि उनके लिए बनाए गए नियम, कानून व सुविधाएँ उन्हें मिल ही नहीं पातीं।C.
क्योंकि दोषों का पर्दाफ़ाश करके ही स्वस्थ समाज की नींव रखी जा सकती है।B.
क्योंकि किसी की कमियों को उजागर करने में रस लेने से दोषों का निवारण नहीं हो पाता।Sponsor Area
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