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जैनेंद्र कुमार के जीवन एवं साहित्य का परिचय देते हुए उनकी विशेषताओं एवं भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
जीवन-परिचय: प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार जैनेंद्र कुमार का जन्म 1905 ई. में अलीगढ़ जिले के कौड़ियागंज नामक कस्बे में हुआ था। उन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल में प्राप्त की। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। गाँधी जी के आह्वान पर 1921 ई. में अध्ययन बीच में ही छोड्कर असहयोग आदोलन में शामिल हो गये। वे गाँधी जी के जीवन-दर्शन से अत्यधिक प्रभावित थे और उनकी झलक उनकी रचनाओं में भी पाई जाती है। आजीविका के लिए उन्होंने स्वतंत्र लेखन को अपनाया। उन्होंने अनेक राजनीतिक पत्रिकाओं का सपादन किया जिसके कारण उन्हें जेल-यात्रा भी करनी पड़ी। उनकी साहित्यिक सेवाओं को ध्यान में रखकर 1970 ई. मे उन्हें ‘पद्यभूषण’ से सम्मानित किया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय ने 1973 ई. में उन्हें डी. लिट की मानद उपाधि प्रदान की। उनकी साहित्यिक सेवाओ के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने 1984 ई. में उन्हें ‘भारत-भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया। 1989 ई० में उनका देहांत हो गया।
रचनाएँ: जैनेंद्र जी हिंदी साहित्य में अपने कथा-साहित्य के कारण प्रसिद्ध हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं
उपन्यास: ‘सुनीता’ ‘परख’ ‘कल्याणी’ ‘त्यागपत्र’ ‘जयवर्धन’ ‘आदि।
कहानी-संग्रह: ‘एक रात’ ‘वातायन ‘दो चिड़ियाँ, ‘नीलम देश की राजकन्या’ आदि।
निबंध-संग्रह: ‘प्रस्तुत प्रश्न’, ‘जैनेंद्र के विचार’ ‘संस्मरण’ ‘समय और हम’ ‘इतस्तत:’ ‘आदि।
साहित्यिक विशेषताएँ: जैनेंद्र जी ने अपनी रचनाओं में जीवन की विविध समस्याओं को उभारा है। उनके विचारों और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण में मौलिकता के दर्शन होते हैं। गाँधीवादी जीवन-दर्शन की छाप भी उनकी रचनाओं में सहज ही देखी जा सकती है। वे प्रत्येक बात, विचार, भाव और स्थिति का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं। वे स्थिति का मूल्यांकन मानव-हित को ध्यान में रखकर करते हैं।
भाषा-शैली: जैनेंद्र जी अपनी सहज सरल एवं निष्कपट भाषा के लिए प्रसिद्ध है। वे नए शब्द गढ़ने में भी कुशल हैं। जैसे-असुधार्य आशाशील आदि।
लेखक के दिमाग में जैसा वाक्य आता है उसे वह वैसा ही प्रयोग कर देता है जैसे- “पर सबको संतुष्ट कर पाऊँ ऐसा मुझसे नहीं बनता।” जैनेंद्र जी तत्सम शब्दों के साथ तद्भव और उर्दू के शब्दों का सहज प्रयोग कर जाते हैं। जैसे-
तत्सम शब्द: परिमित, आमंत्रण आग्रह आदि।
तद्भव शब्द: धीरज।
उर्दू शब्द: फिजूल हरज दरकार आदि।
अंग्रेजी शब्द: पावर, पर्चेजिंग पावर मनी बैग।
जैनेंद्र जी संवादों का प्रयोग करके अपनी भाषा-शैली को रोचक बना देते हैं। वे अनेक स्थलों पर वक्रोक्ति का प्रयोग कर जाते हैं। उनके निबंध विचारोत्तेजक और मर्मस्पर्शी बन पड़े हैं।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर उत्तर दीजिये-
पैसा पावर है पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब मकान-कोठी तो अनदेखे भी दीखते हैं। पैसे की उस ‘पर्चेजिग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है।
लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे फिजूल सामान को फिजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुद्धिमान होते हैं। बुद्धि और संयमपूर्वक वह पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते हैं। वह पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार नहीं है। बस खुद पैसे के जुड़ा होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है।
1. पैसा को क्या बताया गया है और क्यों?
2. इस पावर का रस किसमें है?
3. कुछ लोग किस प्रकार के होते हैं? वे क्या समझते हैं?
4. वे लोग क्या करते हैं ‘इससे उन्हैं क्या अनुभव होता' है?
1. पैसा को पावर बताया गया है। यह एक प्रकार की शक्ति है। पैसे में क्रय शक्ति होती है। इससे आप कुछ भी खरीद सकते हैं।
2. पैसे की पावर का रस उसकी पर्चेजिंग पावर में है। पैसे के बल पर खरीदे गए मकान-कोठी दूर से ही दिखाई देते हैं।
3. कुछ लोग संयमी होते हैं। वे पैसे को बचाकर रखते हैं। वे फिजूल का सामान नहीं खरीदते। वे पैसे को व्यर्थ नहीं बहाते।
4. ऐसे लोग बुद्धि का प्रयोग करते हुए पैसे को जोड़ते हैं और जोड़ते चले जाते हैं। वे पैसे की पावर को समझते तो हैं पर वे उसके प्रयोग से बचते हैं। वे अपने पास पैसा जुड़ा होने पर गर्व का अनुभव करते हैं।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उसकी महिमा का मैं कायल हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जोड़े? फिर भी सच-सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्त्व की महिमा सविशेष है। वह तत्त्व है मनीबेग, अर्थात् पैसे की गरमी या एनर्जी।
पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब मकान-कोठी तो अनदेखे भी दीखते हैं। पैसे की उस ‘पर्चेजिंग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है।
1. पाठ तथा लेखक का नाम बताइए।
2. लंबक किसकी महिमा का कायल है?
3. मनीबेग से क्या तात्पर्य है?
4. पैसे के बारे में लेखक क्या कहता है?
1. पाठ का नाम: बाजार दर्शन। लेखक का नाम: जैनेंद्र कुमार।
2. लेखक पत्नी की महिमा का कायल है। प्राचीन काल से ही खरीददारी में पत्नी की भूमिका अहम् होती रही है। इसी महिमा के कारण बाजार का अस्तित्व है।
3. ‘मनीबैग’ से तात्पर्य है-पैसे की गरमी। जब तक व्यक्ति के पास पैसा होता है तब तक वह खरीददारी करता है; वह अपनी जरूरत के बिना भी खरीददारी करता है।
4. पैसे के बारे में लेखक यह कहता है कि पैसा पावर है अर्थात् पैसे में काफी शक्ति है। पैसे की पावर तभी दिखाई देती है जब उससे खरीददारी की जाती है। किसी के बैंक खाते को देखने की बजाय उसके माल-सामान और कोठी (मकान) से उसकी अमीरी का पता चल जाता है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
मैंने मन में कहा, ठीक। बाजार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए हे? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में खूबी है कि आग्रह नहीं है। आग्रह तिरस्कार जगाता है, लेकिन ऊँचे बाजार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाजार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है ओह!
कोई अपने को न जाने तो बाजार का यह चौक उसे कामना से विकल बना छोड़े। विकल क्यों, पागल। असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए यह बेकार बना डाल सकता है।
1. लेखक ने मित्र की बात सुनकर मन में क्या सोचा?
2. बाजार का आमंत्रण कैसा होता है?
3. बाजार में खड़े होकर आदमी को क्या लगता है?
4. अपने काे न जानने पर बाजार हम पर क्या प्रभाव डालता है?
1. लेखक ने मित्र की बात सुनकर मन में यह सोचा कि बाजार तो हमें आमंत्रित करता है अर्थात् बुलाता है। वह कहता है कि मुझे लूटो अर्थात् खूब सामान खरीदो। तुम्हारा ध्यान केवल मेरी ओर ही होना चाहिए, अन्य कहीं नहीं।
2. बाजार का आमंत्रण मूक होता है। उसके आमंत्रण .में आग्रह नहीं होता, क्योंकि आग्रह तिरस्कार जगाता है। बाजार अपना रूप दिखाकर हमें लुभाता है।
3. बाजार में खड़े होकर आदमी को यह लगने लगता है कि उसके पास काफी चीजें नहीं हैं। उसे और चीजें चाहिए। बाजार में अपरिमित और अतुलित चीजें भरी पड़ी हैं। उसे भी ये चीजें चाहिए।
4. अपने को न जानने पर बाजार का चौक आदमी को कामना से विफल बना देता है बल्कि पागल कर देता है। उसके मन में असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या के भाव जाग जाते हैं और मनुष्य सदा के लिए बेकार हो जाता है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
मैंने मन में कहा, ठीक। बाजार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और किसके लिए हे? मैं तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या हरज है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में खूबी है कि आग्रह नहीं है। आग्रह तिरस्कार जगाता है, लेकिन ऊँचे बाजार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब अभाव। चौक बाजार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफी नहीं है और चाहिए, और चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है ओह!
कोई अपने को न जाने तो बाजार का यह चौक उसे कामना से विकल बना छोड़े। विकल क्यों, पागल। असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से घायल कर मनुष्य को सदा के लिए यह बेकार बना डाल सकता है।
1. बाजार के आमंत्रण स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
2. बाजार के आमंत्रण की क्या विशेषता होती है?
3. ऊँचे बाजार के आमंत्रण को मूक क्यों कहा गया है?
4. इस प्रकार के आमंत्रण किस प्रकार की चाह जगती है? उस चाह में आदमी क्या महसूस करने लगता है?
1. बाजार का आकर्षण हमे अपनी ओर आमंत्रित करता है। इस तरह सजा- धजा होता है मानो कह रहा हो कि आओ और मुझे लूट लो।
2. बाजार के आमंत्रण की यह विशेषता होती है कि उसमें किसी भी प्रकार का आग्रह नहीं होता। यदि आग्रह हो तो उससे तिरस्कार का भाव जागता है।
3. ऊँचे बाजार के आमंत्रण को मूक इसलिए कहा गया है क्योंकि उससे हमारे मन में खरीदने की इच्छा उत्पन्न होती है।
4. इस प्रकार के मूक आमंत्रण से खरीदने की चाह जागती है। जब वह व्यक्ति बाजार में आता है तब उसे लगता है कि यहाँ कितना सारा है और उसके पास बहुत सीमित मात्रा में सामान है अर्थात् उसे हीनता महसूस होती है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
बाजार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चुम्बक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली, पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उसके पास पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है। मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान जरूरी और आराम बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फंसी चीजों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है।
1. बाजा़र के जादू को रूप का जादू क्यों कहा गया है?
2. बाजा़र के जादू की मर्यादा स्पष्ट कीजिए।
3. बाजा़र का जादू किस प्रकार के लोगों को लुभाता है?
4. इस जादू के बंधन से बचने का क्या उपाय हो सकता है?
5. ‘जेब भरी हो और मन खाली हो’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
6. बाजा़र का जादू किस तरह के व्यक्तियों पर अधिक असर करता है?
1. बाजा़र के जादू को रूप का जादू इसलिए कहा गया है क्योंकि यह आँखों की राह काम करता है। बाजार में प्रदर्शित चीजों का रूपाकर्षण हमारे ऊपर जादू जैसा असर करता है। हम चीजों को देखकर उन्हें खरीदने को लालायित हो जाते हैं।
2. बाजा़र के जादू की मर्यादा यह है कि यह तब असर करता है जब जेब भरी हो और मन खाली हो। मन के भरे होने पर बाजार के जादू का असर नहीं होता।
3. बाजा़र का जादू उन लोगों को अधिक लुभाता है जिनके पास धन की अधिकता है, पर उनका मन दिशाहीन होता है। बाजार की लुभावनी चीजें इस प्रकार के व्यक्तियों को जकड़ लेती हैं।
4. बाजा़र के जादू के बंधन से बचने का उपाय यही हो सकता है कि हमें बाजार जाते समय अपनी सही आवश्यकताओं का पता होना चाहिए। धन के प्रभाव में अंधाधुंध खरीददारी से बचना चाहिए। हमें अपने मन पर नियंत्रण रखना चाहिए।
5. ‘जेब भरी हो और मन खाली हो’-इसका आशय यह है कि अपने पास पैसा तो काफी हो, पर मन में यह निश्चय न हो कि क्या खरीदा जाए। मन में खरीदने वाली चीजों का पक्का निश्चय होना चाहिए।
6. बाजा़र का जादू उन व्यक्तियों पर अधिक असर करता है जिनकी जेब में तो खुब पैसा हो, पर मन भरा नहीं हो। खाली मन बाजार की अनेकानेक चीजों को खरीदने को आकर्षित करता हें।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
बाजार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चुम्बक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली, पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उसके पास पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है। मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान जरूरी और आराम बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है कि फंसी चीजों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है।
1. लेखक ने क्यों कहा कि बाजार में एक जादू है?
2. ‘मन खाली होने’ से क्या अभिप्राय है? यह खाली मन बाजारवाद को कैसे सेवा देता है?
3. आज का उपभोक्ता जेब खाली होने पर भी खरीदारी करता है यह समाज की किस प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है? आप ऐसा क्यों मानते हैं?
1. लेखक ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि बाजा़र का जादू हमारे सिर चढ़कर बोलता है। बाजा़र का जादू औंखों की राह काम करता है। हम बाजार में चीजों के आकर्षण में खो जाते हैं और उन्हें खरीदने को विवश हो जाते हैं।
2. ‘मन खाली होने’ से अभिप्राय है: मन में यह विचार आना कि मेरे पास बहुत कम चीजें हैं और मुझे बाजार में प्रदर्शित चीजों को खरीदना चाहिए। यह खाली मन बाजारवाद को बढ़ावा देता है। मन खाली होने पर बाजार की चीजों का आमंत्रण मिल जाता है अर्थात् मन उन चीजों को खरीदने का करता है। इसी से बाजारवाद को बढ़ावा मिलता है।
3. आज का उपभोक्ता जेब खाली होने पर भी खरीददारी करता है, यह समाज की इस प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है कि आज की खरीददारी आवश्यकताओं को देखकर नहीं की जाती बल्कि दूसरों से आगे निकल जाने की इच्छा की पूर्ति के कारण की जाती है। क्रेडिट कार्ड यही काम कर रहा है। इससे धन का अपव्यय हो रहा है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
मित्र बाजार गए तो थे कोई एक मामूली चीज लेने पर लौटे तो एकदम बहुत-से बंडल पास थे। मैंने कहा-यह क्या? बोले-यह जो साथ थीं। उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिका का मैं कायलन हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है। और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री आया न जोड़े, तो क्या मैं जोड़े? फिर भी सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्त्व की महिमा सविशेष है। वह तत्त्व है मनीबैग, अर्थात् पैसे की गरमी या एनर्जी।
1. ‘यह जो साथ थीं’-कथन में निहित व्यंग्य को स्पष्ट कीजिए।
2. पत्नी पति से किस विषय में प्रमुख मानी जाती है? इस प्रमुखता का क्या कारण है?
3. ‘स्त्री माया न जोड़े .....’ वाक्यांश का आशय समझाइए।
4. ‘पैसे की गरमी या एनर्जी’ की बात किस संदर्भ में कही गई है और क्यों?
1. इस कथन में लेखक का व्यंग्य अपनी पत्नी पर है। जब पत्नी साथ होती है तब अंधाधुंध खर्च होता ही है। यह सब पत्नी की महिमा है।
2. पत्नी पति से माया जोड़ने में प्रमुख मानी जाती है। आदिकाल से इसमें पति से पत्नी को ही प्रमुखता दी जाती रही है। यह स्त्रीत्व का प्रश्न है।
3. ठसका आशय है कि पत्नी ही मोह-माया के बंधन में अधिक पड़ती है। वह माया को जोड़ती है, पुरुष माया नहीं जोड़ सकता।
4. पैसे में बहुत गरमी होती है। यह एक प्रकार की एनर्जी भी है। यह बात पैसे के महत्त्व को बताने के संदर्भ में कही गई है। पैसा एक प्रकार की पावर है। उसी से सारे काम सम्पन्न होते है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय, राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है, जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो, ‘मानवता’ के द्दष्टिकोण से समाज को दो वर्गों या श्रेणियों में नहीं थबाँटाजा सकता। ऐसी स्थिति में, राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए।
1. राजनीतिज्ञ को व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता क्यों रहती है? यह सिद्धांत क्या हो सकता है?
2. राजनीतिज्ञ की विवशता क्या होती है?
3. भिन्न व्यवहार मानवता की दृष्टि से उपयुक्त क्यों नहीं होता है?
4. समाज के दो वर्गों से क्या तात्पर्य है? वर्गानुसार भिन्न व्यवहार औचित्यपूर्ण क्या नहीं होता?
1. राजनीतिज्ञ को व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता इसलिए रहती है क्योंकि उसके पास समय का अभाव होता है। उसे प्रत्येक के बारे में पूरी जानकारी भी नहीं होती। उसका व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए।
2. राजनीतिज्ञ की विवशता यह होती है कि उसका बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। इन सभी की आवश्यकताओं और क्षमताओं की जानकारी रखना उसके लिए कठिन होता है। उसके पास समय का भी अभाव होता है।
3. भिन्न व्यवहार मानवता की दृष्टि से इसलिए उपयुक्त नहीं होता क्योंकि इससे समाज दो वर्गों या श्रेणियों में बँट जाता है। मानव समाज का बँटवारा करना मानवीय दृष्टिकोण से ठीक नहीं है।
4. समाज के दो वर्गो से तात्पर्य है-उच्च वर्ग और निम्न वर्ग। एक वर्ग है-जिनके पास है और दूसरा वर्ग है-जिनके पास नहीं है। वर्ग के अनुसार भिन्न व्यवहार को औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता क्योंकि इससे समाज का बँटवारा होता है। यह समता के सिद्धांत के विरुद्ध है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
पैसे की व्यंग्य-शक्ति की सुनिए। वह दारुण है। मैं पैदल चल रहा हूँ कि पास ही धूल उड़ाती निकल गई मोटर। वह क्या निकली मेरे कलेजे को कौंधती एक कठिन व्यंग्य की लीक ही आर-से-पार हो गई। जैसे किसी ने आँखों में उँगली देकर दिखा दिया हो कि देखो, उसका नाम है मोटर, और तुम उससे वंचित हो! यह मुझे अपनी ऐसा विडंबना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं। मैं सोचने को हो आता हूँ कि हाय, ये ही माँ-बाप रह गए थे जिनके यहाँ मैं जन्म लेने को था! क्यों न मैं मोटरवालों के यहाँ हुआ। उस व्यंग्य में इतनी शक्ति है कि जरा में मुझे अपने सगों के प्रति कृतघ्न कर सकती है। लेकिन क्या लोक वैभव की यह व्यंग्य-शक्ति उस चूरन वाले अकिंचित्कर मनुष्य के आगे चूर-चूर होकर ही नहीं रह जाती? चूर-चूर क्यों, कहो पानी-पानी।
तो वह क्या बल है जो इस तीखे व्यंग्य के आगे ही अजेय ही नहीं रहता, बल्कि मानो उस व्यंग्य की कुरता को ही पिघला देता है?
1. पैसे की व्यंग्य-शक्ति बताने के लिए क्या उदाहरण दिया गया है?
2. लेखक को क्या विडंबना मालूम होती है?
3. इस व्यंग्य-शक्ति का चूरन वाले के सामने क्या हाल होता है?
4. लेखक किस बल की बात कर रहा है?
1. पैसे की व्यंग्य-शक्ति को बताने के लिए धूल उड़ाती मोटर का उदाहरण देता है। उसके पास से निकल जाने पर लेखक के कलेजे में व्यंग्य का तीर चुभ गया।
2. लेखक को मोटर के पास से निकल जाने पर यह विडंबना मालूम हुई कि क्या उसके भाग्य में ये गरीब माता-पिता ही रह गए थे जिनके यहाँ उसे जन्म मिला। वह मोटरकार वाले के यहाँ पैदा क्यों नहीं हुआ।
3. इस व्यंग्य-शक्ति को चूरन वाले भगतजी के सामने चूर-चूर हो जाना पड़ता है। वहाँ इसका कोई वश नहीं चलता। भगतजी पर इसका कोई असर नहीं पड़ता।
4. लेखक भगतजी के नैतिक बल की बात कर रहा है। उनका यह बल पैसे की व्यंग्य-शक्ति को झुका देता है और उसकी क्रूरता को पिघला देता है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
उस बल को नाम जो दो; पर वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव फलता-फूलता है। वह कुछ अपर जाति का तत्त्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैं, आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखूँ और प्रतिपादन करूँ। मुझे शब्द से सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकूँ। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है।
1. ‘उस बल’ से लेखक का क्या तात्पर्य है? उसे अपर जाति का तत्व क्यों कहा है?
2. लेखक की विनम्रता किस कथन से व्यक्त हो रही है और आप उसके कथन से कहाँ तक सहमत हैं?
3. लेखक ने व्यक्ति की निर्बलता का प्रमाण किसे माना है और क्यों?
4. मनुष्य पर धन की विजय चेतन पर जड़ की विजय कैसे है?
1. बाजार जाकर आवश्यक-अनावश्यक वस्तुएँ खरीद सकने का बल, वह संसारी वैभव की भातभाँतिने-फूलने वाला नही है, इसलिए उसे अपर जाति का तत्त्व कहा है।
2. मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकूँ …
मुझे योग्यता नहीं कि मैं शब्दों के अंतर देखूँ
लेखक से सहमत होना कठिन है क्योंकि वह विद्वान और योग्य है, यह लेख ही इसका प्रमाण है।
3. संचय की तृष्णा बटोरकर रखने की चाह निर्बलता के प्रमाण हैं क्योंकि निर्बल व्यक्ति ही इनकी ओर झुकता है।
4. मनुष्य चेतन है और घन जड़। जड़ चेतन मनुष्य जड़ धन-संपत्ति की चाह में उसके वश में हो जाता है तो उसे ही कहा जाएगा चेतन पर जड़ की विजय।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
इस सद्भाव के द्वारा पर आदमी आपस में भाई-भाई और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में कोरे गाहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं, मानो दोनों एक-दूसरे को ठगने की घात में हों, एक की हानि में दूसरे को अपना लाभ दिखता है और यह बाजार का, बल्कि इतिहास का सत्य माना जाता है। ऐसे बाजार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता; बल्कि शोषण होने लगता है। तब कपट सफल होता है, निष्कपट शिकार होता है। ऐसे बाजार मानवता के लिए विडम्बना है और जो ऐसे बाजार का पोषण करता है, जो उसका शास्त्र बना हुआ है वह अर्थशास्त्र सरासर औंधा है, वह मायावी शास्त्र है, वह अर्थशास्त्र अनीतिशास्त्र है।
1. किस ‘सद्भाव के हाल’ की बात की जा रही है? उसका क्या परिणाम दिखाई पड़ता है?
2. ‘ऐसे बाजार’ प्रयोग का सकेतित अर्थ स्पष्ट कीजिए।
3. लेखक ने संकेत किया है कि कभी-कभी बाजार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। इस विचार के पक्ष या विपक्ष में दो तर्क दीजिए।
4. अर्थशास्त्र के लिए प्रयुक्त दो विशेषणों का औचित्य बताइए।
1. इस कथन में मनुष्य के आपसी संबंधों पर टिके प्रेम सद्भाव के समाप्त होने की बात कही गई है। इसका यह परिणाम दिखाई पड़ता है कि मनुष्यों के आपसी संबंध समाप्त हो जाते हैं और बाजार की शक्ति सब कुछ होकर रह जाती है। क्रय-विक्रय के माध्यम से एक-दूसरे को ठगकर लाभ कमाना ही एकमात्र उद्देश्य रह जाता है।
2. ऐसे बाजार का सांकेतिक अर्थ यह है कि बाजार में जादुई शक्ति है। बाजार का अर्थ केवल धन कमाना होता है। इसमें आपसी रिश्ते-नाते कोई मायने नहीं रखते। यहाँ केवल लाभ-हानि की भाषा बोली-समझी जाती है।
3. यह सही है कि कभी-कभी बाजार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। ऐसा तब होता है जब बाजार में लोगों की आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता बल्कि वहाँ शोषण होता है वहाँ कपट होता है। दुकानदार ग्राहक से अधिक कीमत वसूल करके उसका शोषण करता है।
4. अर्थशास्त्र के लिए प्रयुक्त दो विशेषण:
(i) अनीतिशास्त्र: जो बाजार कपट करके मनुष्य का शोषण करता है, उसका अर्थशास्त्र अनीतिशास्त्र का होता है।
(ii) मायावीशास्त्र: अर्थशास्त्र के मायावीशास्त्र का विशेषण उसके जादू को उभारता है। हम इस जादू से बच नहीं पाते।
बाजा़र का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या असर पड़ता है?
बाजा़र का जादू चढ़ने पर मन अधिक-से-अधिक चीजें खरीदना चाहता है। तब व्यक्ति को लगता है कि बाजार में बहुत कुछ है और उसके पास बहुत कम चीजें हैं। बाजार का जादू व्यक्ति के सिर चढ़कर बोलता है। वह कहता है आओ मुझे लूटी और लूटी।
बाजा़र का जादू मनुष्य को विकल बना देता है। उसके पास जितना पैसा होता है, चीजें खरीदता चला जाता है। उसकी समझ में नहीं आता कि वह क्या ले और क्या छोड़े। सभी कुछ लेने को जी चाहता है। बाजा़र का जादू आँख की राह काम करता है। बाजा़र का जादू उतरने पर मनुष्य को पता चलता है कि फंसी चीजों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है। बाजा़र का जादू उतरने पर उसे अपने द्वारा खरीदी गई चीजें अनावश्यक मालूम होने लगती हैं।
बाजा़र में भगतजी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभरकर आता है? क्या आपकी नज़र में उनका आचरण समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है?
बाजा़र में जाकर भगतजी संतुलित रहते हैं। बाजा़र का जादू उन पर असर नहीं कर पाता क्योंकि वे खाली मन बाजा़र नहीं जाते। वे घर से सोचकर बाजार जाते हैं कि उनको क्या लेना है (काला नमक और जीरा)। वे पंसारी की दुकान पर जाकर वे ही चीजें खरीदते हैं और लौट आते हैं।
बाजा़र में भगतजी के व्यक्तित्व का यह सशक्त पहलू उभरता है कि उनका अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण है। बाजा़र का जादू उनके मन पर नही चलता। बाजार में उनकी आँखें खुली रहती हैं, पर मन भरा होने के कारण उनका मन अनावश्यक चीजें खरीदने के लिए विद्रोह नही करता। चाँदनी चौक का आमंत्रण उन पर व्यर्थ होकर बिखर जाता है। भगतजी जैस व्यक्ति बाजा़र को सार्थकता प्रदान करते हैं।
हमारी नजर में भगतजी का आचरण समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है। हमारा ऐसा सोचने का कारण यह है तब लोगों में अनावश्यक प्रतिस्पर्धा नहीं होगी। वे व्यर्थ की वस्तुएँ नहीं खरीदेगे और इससे आपसी लड़ाई झगड़ों में कमी आएगी।
'बाजा़रूपन' से क्या तात्पर्य है? किस प्रकार के व्यक्ति बाजा़र को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाजा़र की सार्थकता किसमें है?
‘बाजा़रूपन’ से तात्पर्य है दिखावे के लिए बाजार का उपयोग करना। जब हम अपनी क्रय शक्ति के गर्व मे अपने पैसे से केवल विनाशक शक्ति-शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति बाजार को देते हैं तब हम बाजार का बाजा़रूपन बढ़ाते हैं। इस प्रवृत्ति से न हम बाजार से लाभ उठा पाते हैं और न बाजा़र कौ सच्चा लाभ देते हैं। बाजा़र को सार्थकता वे व्यक्ति ही देते हैं जो यह जानते हैं कि वे क्या चाहते हैं। ऐसे व्यक्ति अपनी आवश्यकता की ही वस्तुएँ बाजा़र से खरीदते हैं। बाजा़र की सार्थकता इसी में है कि वह लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करे।
बाजा़र किसी का लिंग, जाति-मजहब या क्षेत्र नहीं देखता, वह देखता है सिर्फ़ उसकी क्रय शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। क्या आप इससे सहमत हैं?
बाजा़र का काम है-वस्तुओं का विक्रय करना। उसे तो ग्राहक चाहिए। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि यह ग्राहक कौन है, किस जाति या धर्म का है, पुरुष या स्त्री है? वह सभी कौ ग्राहक के रूप में देखता है। उसे तो उन लोगों की क्रय शक्ति (Purchasing power) से मतलब है। यदि व्यक्ति खरीदने की शक्ति नहीं रखता तो उसका बड़ा भी उसके लिए व्यर्थ है। ग्राहक में बाजार कोई भेदभाव नहीं करता।
इस रूप में बाजा़र सामाजिक समता स्थापित करता जान पड़ता है। ऊपर से तो यह बात सही प्रतीत होती है, पर जिनकी क्रय शक्ति नहीं है वे तो हीन भावना का शिकार बनते ही हैं। वे स्वयं को अन्य की तुलना में छोटा मान लेते हैं। उनमें निराशा का भाव आता है।
आप अपने तथा समाज में किन्हीं दो ऐसे प्रसंगों का उल्लेख करें-
(क) जब पैसा शक्ति के परिचायक कै रूप में प्रतीत हुआ।
(ख) पैसे की शक्ति काम नहीं आई।
‘पैसा पावर है’- यह कथन काफी हद तक ठीक है। पैसे में काफी शक्ति है। यह आपकी इच्छाओं की मूर्ति का साधन है। पैसे में काफी बल होता है।
(क) पैसा की शक्ति का जादू सबके सिर पर चढ़कर बोलता है। नोएडा सं एक धनी व्यक्ति का बालक अगवा कर लिया गया था। उसके पैसे की ताकत के बल पर उस तीन-चार दिन में ही बरामद कर लिया गया। इसमें राज्य सरकार ने भी पूरी ताकत झोंक दी तथा पैसे ने भी (फिरौती देकर) कमाल कर दिखाया। पैसे के अभाव मे वही सेक्टर-31 में निठारी गाँव के बालक दो साल तक गायब होते रहे और उन्हें मारकर नाले में फेंका जाता रहा, पर किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी।
(ख) एक उदाहरण ‘जेसिका लाल हत्याकांड’ का हमारे सामने हैँ जहाँ पैसे की शक्ति काम नहीं आई। इसमें हरियाणा के एक मंत्री का बेटा दोषी ठहराया गया। उसने पैसे को खूब लुटाया पर उसका कोई असर दिखाई नहीं दिया। न्यायपालिका किसी दबाव में नहीं-गाई।
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(ग) मन बंद हो, (घ) मन में नकार हो।
(क) बाजा़र जाने के संदर्भ में एक स्थिति यह बताई गई हैं कि ही हम खाली मन और भरी जब बाजा़र जाते हैं और इसका परिणाम यह होता है कि हम बाजार से अनाप-शनाप चीजें खरीद लाते हैं। हम तब तक चीजें खरीदते रहते हैं जब तक जेब में पैसा रहता है। बाजार का जादू हमारे सिर पर चढ़कर बोलता है। मेरा अपना अनुभव भी इसी प्रकार का है। मुझे एक लॉटरी से एक लाख रुपए मिले थे। मैं घोड़े पर सवार था। यार दोस्तों के साथ बाजार गया। वहाँ से एक फ्रिज एक बड़े आकार का टी. वी. तथा एक स्कूटर खरीद लाया। ये सभी चीजें घर पर पहले से ही मौजूद थीं पर बाजार में इनके नए मॉडल मुझे इतने आकर्षक लगे कि मैं इन्हें खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर सका। घर आकर मालूम हुआ कि पैसा व्यर्थ ही खर्च हो गया। इसका अन्य काम में सदुपयोग किया जा सकता था।
(ख) मन खाली न होने पर व्यक्ति अपनी इच्छित वस्तु ही खरीदता है और बाजार से लौट आता है। मैं बाजार से प्रतिदिन सब्जी खरीदने जाता हूँ और केवल सब्जियाँ ही खरीदकर घर लौट आता हूँ। बाजार की अन्य चीजों को मैं देखता तक नहीं।
(ग) मन बंद होने की स्थिति में मैं कभी नही होता। मन को बंद करना अच्छी स्थिति नहीं है। मन भी किसी प्रयोजन से मिला है।
(घ) मन मे नकार का भाव रखना भी उचित नहीं हैँ। हर वस्तु के प्रति नकारात्मक भाव रखना मुझे सही प्रतीत नहीं होता।
‘बाजा़र दर्शन’ पाठ में किस प्रकार के ग्राहकों की बात हुई है? आप स्वयं को किस श्रेणी का ग्राहक मानते हैं?
‘बाजा़र दर्शन’ पाठ में निम्न प्रकार के ग्राहकों की बात हुई है-
- पर्चेजिंग पावर का प्रदर्शन करने वाले ग्राहक।
- संयमी और बुद्धिमान ग्राहक।
- बाजार का बाजा़रूपन बढ़ाने वाले ग्राहक।
- आवश्यकतानुसार खरीदने वाले ग्राहक।
में अपने आपको अंतिम श्रेणी का ग्राहक मानता हूँ। मैं अपने पैसे को न तो व्यर्थ की चीजें खरीदकर बहाता हूँ और जोड़ता चला जाता हूँ। जिस चीज की आवश्यकता होती है केवल उसी चीज को खरीदता हूँ।
आप बाजा़र की भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृति से अवश्य परिचित होंगे। मॉल की संस्कृति और सामान्य बाजा़र और हाट की संस्कृति में आप क्या अंतर पाते हैं? पर्चेजिंग पावर आपको किस तरह के बाजार में नज़र आती है?
हम बाजा़र की भिन्न भिन्न संस्कृति से भली- भांति परिचित हैं। मॉल की संस्कृति उच्च वर्ग से अधिक संबंधित है, जबकि सामान्य बाजार में सभी प्रकार के ग्राहक जाते हैं। इसमें मध्यवर्ग का ग्राहक अधिक होता है। ‘हाट’ की संस्कृति ग्रामीण एव निम्न मध्यवर्ग के लोगों के अधिक अनुकूल होती है।
हमें पर्चेजिंग पावर मॉल संस्कृति में ज्यादा नजर आती है। यहाँ लोग अपनी जरूरतो के मुताबिक खरीददारी नहीं करते, अपितु पर्चेजिंग पावर के हिसाब से खरीददारी करते हैं। वे तब-तक अनाप-शनाप सामान खरीदते रहते हैं जब तक उनकी क्रयशक्ति बनी रहती रहती है। वे जेब में भरे रुपयों को ध्यान में रखकर खरीददारी करते हैं।
लेखक ने पाठ में इस ओर संकेत किया है कि कभी-कभी बाजार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।
प्राय: ऐसा देखा जाता है कि जब हम बाजा़र में दुकानदार के सम्मुख अपनी आवश्यकताओं को प्रकट कर देते हैं तब वह यह जान जाता है कि अमुक वस्तु तौ हमें खरीदनी ही है। अत: वह हमारा शोषण करने पर तुल जाता है। वह अधिक कीमत वसूल कर या घटिया क्वालिटी की वस्तु देकर हमारा शोषण करता है।
स्त्री माया जोड़ने मे विश्वास करती है। यहाँ ‘माया’ शब्द मैं धन संपत्ति एव वस्तुओं के सग्रह की ओर संकेत है। वैसे माया जोड़ना सभी प्राणियो का प्रकृति प्रदत्त गण है पर स्त्रियाँ परिस्थितिवश भी माया जोड़ती हैं। वे परिस्थितियाँ निम्नलिखित हो सकती हैं-
- अंतर्निर्भरता की पूर्ति।
- भविष्य की सुरक्षा।
- अनिश्चि भविष्य।
- संग्रह की प्रवृत्ति की संतुष्टि।
- दूसरों से बढ्कर दिखाने की प्रवृत्ति।
- अपने अहं की तुष्टि।
- बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए।
- बच्चों के विवाह-शादी के लिए।
चाह गर्ड़ चिंता गई मनुओं बेपरवाह
जाके कछु न चाहिए सोइ सहंसाह। -कबीर
कबीर का यह दोहा बताता है कि चाह (लालसा) के समाप्त हो जाने पर चिंता भी मिट जाती है, मनुष्य बेपरवाह हो जाता है। असली शहंशाह वही है जिसे कुछ भी नहीं चाहिए।
यही निस्पृह भावना है। भगत जी आत्म संतुष्ट व्यक्ति हैं। वे अपनी जरूरत भर का सामान खरीदते हैं। उन्हें उसी से संतुष्टि मिल जाती है। उनका मन चिंतामुक्त रहता है।
विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’ (जिस पर ‘पहेली’ फिल्म बनी है) के अंश को पढ़कर आप देखेंगे कि भगतजी की संतुष्ट जीवन-दृष्टि की तरह ही गडरिए की जीवन-दृष्टि है। इससे आपके भीतर क्या भाव जगते हैं? गड़रिया बगैर कहे ही उसके दिल की बात समझ गया, पर अँगूठी कबूल नहीं की। काली दाढ़ी के बीच पीले दाँतों की हँसी हँसते हुए बोला-’मैं कोई राजा नहीं हूँ जो न्याय की कीमत वसूल करूँ। मैंने तो अटका काम निकाल दिया और यह अँगूठी मेरे किस काम की! न ये अंगुलियों में आती है, न तड़े में। मेरी भेड़ें भी मेरी तरह गँवार हैं। घास तो खाती हैं, पर सोना सूँघती तक नहीं। बेकार की वस्तुएँ तुम अमीरों को ही शोभा देती हैं।
विद्यार्थी विजयदान देथा की यह कहानी पढ़ें और ‘पहेली’ फिल्म देखें।
प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ के हामिद और उसके दोस्तों का बाजा़र से क्या संबंध बनता है? विचार करें।
‘ईदगाह’ कहानी में हामिद तो अपनी दादी के लिए एक चिमटा खरीदता है और स्वयं पर नियंत्रण रखता है जबकि उसके दोस्त मिठाइयाँ तथा खिलौने खरीदते हैं। सभी खिलौने कुछ ही देर में टूट फूट गए। मिठाइयाँ खा ली गई। हामिद ने दादी की उँगलियों के जलने का विचार कर दादी की समस्या का समाधान ढूँढ निकाला।
आपने समाचार-पत्रों, टी.वी. आदि पर अनेक प्रकार के विज्ञापन देखे होंगे जिनमें ग्राहकों को हर तरीके से लुभाने का प्रयास किया जाता है। नीचे लिखे बिंदुओं के संदर्भ में किसी एक विज्ञापन की समीक्षा कीजिए और यह भी लिखिए कि आपको विज्ञापन की किस बात ने सामान खरीदने के लिए प्रेरित किया।
1. विज्ञापन में सम्मिलित चित्र और विषय-वस्तु।
2. विज्ञापन में आए पात्र व उनका औचित्य।
3. विज्ञापन की भाषा।
1. इस विज्ञापन में जो बातें सम्मिलित की गई हैं वे दिल की बीमारी के कारण भी बताती हैं और उस ऑयल की विशेषता बताई जाती है।
2. इस विज्ञापन में एक पति, दो बच्चे और गृहिणी को पात्रों के रूप में दिखाकर एक छोटे परिवार की संकल्पना प्रस्तुत की जाती है। इन सभी की सेहत का प्रश्न है। ये पात्र सही प्रतीत होते हैं।
3. इस विज्ञापन की भाषा सीधे हृदय में उतरती है। स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। अच्छे माल के लिए ज्यादा कीमत देने को भी तैयार कर लिया जाता है।
- मुझे विज्ञापन की भाषा सामान खरीदने के लिए प्रेरित करती है।
अपने सामान की बिक्री को बढ़ाने के लिए आज किन-किन तरीकों का प्रयोग किया जा रहा है? उदाहरण सहित उनका संक्षिप्त परिचय लिखिए। आप स्वयं किस तकनीक या तौर-तरीके का प्रयोग करना चाहेंगे जिससे बिक्री भी अच्छी हो और उपभोक्ता गुमराह भी न हो?
आजकल बिक्री बढ़ाने के लिए कई तरीके अपनाए जा रहे हैं; जैसे -
- सेल लगाना।
- दामों में कटौती करना।
- एक के साथ दूसरी चीज फ्री देना।
- माल उधार देना।
- किश्तों पर पैसे लेना।
- लक्की ड्रा निकालना।
- अखबारों में विज्ञापन देना।
- टी.वी. पर विज्ञापन देना।
हम इन सभी तरीकों में ‘दाम पर कटौती’ करने का तरीका अपनाना चाहेंगे। हमें उत्पाद की बिक्री पर जो मुनाफा मिलता है, उसका कुछ भाग ग्राहक को देना चाहेंगे। इससे न तो वह व्यर्थ की चीजें खरीदने को विवश होगा और न वह गुमराह ही होगा।?
विभिन्न परिस्थितियों में भाषा का प्रयोग भी अपना रूप बदलता रहता है कभी औपचारिक रूप में आती है तो कभी अनौपचारिक रूप में। पाठ में से दोनों प्रकार के तीन-तीन उदाहरण छाँटकर लिखिए।
औपचारिक रूप:
1. लोग संयमी भी होते हैं।
2. चूरनवाले भगतजी पर बाजार का जादू नहीं चल सकता।
3. मैं पैदल चल रहा हूँ।
अनौपचारिक रूप:
1. उनकी महिमा का मैं कायल हूँ।
2. वह महत्त्व है बाजार।
3. वह चूर-चूर क्यों कहो पानी-पानी।
पाठ में अनेक वाक्य ऐसे हैं, जहाँ लेखक अपनी बात कहता है कुछ वाक्य ऐसे हैं जहाँ वह पाठक-वर्ग को संबोधित करता है।
सीधे तौर पर पाठक को संबोधित करने वाले पाँच वाक्यों को छाँटिए और सोचिए कि ऐसे संबोधन पाठक से रचना पढ़वा लेने में मददगर होते हैं?
पाँच वाक्य:
1. एक बार की बात कहता हूँ, मित्र बाजार गए थे, कोई मामूली चीज लेने पर लौटे तो एकदम बहुत से बंडल उनके पास थे।
2. मन खाली नहीं रहना चाहिए।
3. पड़ोस में एक महानुभाव रहते हैं जिनको लोग भगतजी कहते हैं।
4. कहीं आप भूल न कर बैठिएगा।
5. पैसे की व्यंग्य शक्ति को सुनिए।
नीचे दिए गए वाक्यों को पढ़िए:
(क) पैसा पावर है।
(ख) पैसे की उस पर्चेजिंग पावर के प्रयोग में ही पावर का रस है।
(ग) मित्र ने सामने मनीबैग फैला दिया।
(घ) पेशगी ऑर्डर कोई नहीं लेते।
ऊपर दिए गए इन वाक्यों की संरचना तो हिंदी भाषा की है लेकिन वाक्यों में एकाध शब्द अग्रेजी भाषा के आए हैं। इस तरह के प्रयोग को कोड मिक्सिंग कहते हैं। एक भाषा के शब्दों के साथ दूसरी भाषा के शब्दों का मेलजोल! अब तक आपने को पाठ पडे उसमें से ऐसे कोई पाँच उदाहरण चुनकर लिखिए। यह भी बताइए कि आगत शब्दों की जगह उनके हिंदी पर्यायों का ही प्रयोग किया जाए तो संप्रेषणीयता पर क्या प्रभाव पड़ता है।
विद्यार्थी पड़े हुए पाठों से ऐसे शब्द चुनें। ऐसे कुछ शब्द हैं?
- परंतु इस उदारता के डाइनामाइट ने क्षण भर में उसे उड़ा दिया।
- ‘पर्चेजिंग पॉवर’ के अनुपात में आया है।
- लोग स्पिरिचुअल कहते हैं।
नीचे दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश पर ध्यान देते हुए उन्हें पढिए-
(क) निर्बल ही धन की और झुकता है।
(ख) लोग संयमी भी होते हैं।
(ग) सभी कुछ तो लेने को जी होता था।
ऊपर दिए गए वाक्यों के रेखांकित अंश ‘ही’, ‘भी’, ‘तो’ निपात हैं जो अर्थ पर बल देने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। वाक्य में इनके होने-न-होने और स्थान क्रम बदल देने से वाक्य के अर्थ पर प्रभाव पड़ता है, जैसे-
मुझे भी किताब चाहिए। (मुझे महत्वपूर्ण है।)
मुझे किताब भी चाहिए। (किताब महत्वपूर्ण है।)
आप निपात (ही, भी, तो) का प्रयोग करते हुए तीन-तीन वाक्य बनाइए। साथ ही ऐसे दो वाक्यों का भी निर्माण कीजिए जिसमें ये तीनों निपात एक साथ आते हों।
ही - 1. कल राम ही जाएगा।
2. यह काम श्याम ने ही किया है।
3. तुम ही शरारती हो।
भी - 1. कल मैं. भी चलूँगा।
2 शशांक भी रो रहा है।
3. तुम कल भी आना।
तो - 1. पाठ तो पढ लो।
2 ताला तो खोल लेने दो।
3. संध्या तो होने दो।
तीनों निपातों के प्रयोग वाले वाक्य:
1. वह पुस्तक भी तो पड़ेगा ही।
2. गीता भी खाना ही तो पकाएगी।
बाजार की चकाचौंध से दूर पर्चेजिंग पावर का सकारात्मक उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है? आपकी मदद के लिए संकेत दिया जा रहा है-
(क) सामाजिक विकास के कार्यो में।
(ख) ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में..।
पर्चेजिंग पावर से अभिप्राय है-क्रय शक्ति। अर्थात् किसी इच्छित वस्तु को खरीदने की क्षमता।
पर्चेजिंग पावर का सकारात्मक उपयोग वारने के लिए अधिकाधिक वस्तुएँ सामाजिक विकास हेतु खरीदी जानी चाहिएँ। ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में इसका उपयोग किया जा सकता है।
लेखक के पड़ोस में कौन रहते हैं? उनके बारे में क्या बताया गया है?
लेखक के पड़ोस में एक महानुभाव रहते हैं जिनको लोग भगत जी कहते हैं। चूरन बेचते हैं। यह काम करते, जाने उन्हें कितने बरस हो गए हैं लेकिन किसी एक भी दिन चूरन से उन्होंने छ: आने पैसे से ज्यादा नहीं कमाए। चूरन उनका आस-पास सरनाम है। और खुद खूब लोकप्रिय हैं। कहीं व्यवसाय का गुर पकड़ लेते और उस पर चलते तो आज खुशहाल क्या मालामाल होते! क्या कुछ उनके पास न होता! इधर दस वर्षों से लेखक देख रहा है, उनका चूरन हाथों-हाथ बिक जाता है पर वह न उसे थोक देते हैं, न व्यापारियों को बेचते हैं। पेशगी आर्डर कोई नहीं लेते। बँधे वक्त पर अपनी चूरन की पेटी लेकर घर से बाहर हुए नहीं कि देखते-देखते छ: आने की कमाई उनकी हो जाती है। लोग उनका चूरन लेने को उत्सुक जो रहते हैं। चूरन से भी अधिक शायद वह भगत जी के प्रति अपनी सद्भावना का देय देने को उत्सुक रहते हैं। पर छ: आने पूरे हुए नहीं कि भगतजी बाकी चूरन बालकों को मुफ्त बाँट देते है। कभी ऐसा नहीं हुआ है कि कोई उन्हें पच्चीसवाँ पैसा भी दे सके। कभी चूरन में लापरवाही नही हुई है, और कभी रोगी होता भी लेखक ने उन्हें नहीं देखा।
इतना निश्चय मालूम होता है कि इन चूरन वाले भगतजी पर बाजार का जादू नहीं चल सकता।
एक बार जब लेखक को चूरन वाले भगतजी बाजार में मिल गए तब लेखक ने क्या बात देखी?
एक बार लेखक को चूरन वाले भगत जी बाजार चौक में दीख गए। लेखक को देखते ही उन्होंने जय-जयराम किया। लेखक ने भी जयराम कहा। उनकी आँखें बंद नहीं थीं और न उस समय वह बाजार को किसी भांति कोस रहे मालूम होते थे। राह में बहुत लोग बहुत बालक मिले जो भगतजी द्वारा पहचाने जाने के इच्छुक थे। भगतजी ने सबको ही हँसकर पहचाना। सबका अभिवादन लिया और सबको अभिवादन किया। इससे तनिक भी यह नहीं कहा जा सकेगा कि चौक-बाजार में होकर उनकी आँखें किसी से भी कम खुली थीं लेकिन भौंचक्के हो रहने की लाचारी उन्हें नहीं थी। व्यवहार में पसोपेश उन्हें नही था और खोए-से खड़े नहीं वह रह जाते थे। भाँति-भाँति के बढ़िया माल से चौक भरा पड़ा था। उस सबके प्रति अप्रीति इस भगत के मन मे नहीं थी। जैसे उस समूचे माल के प्रति भी उनके मन में आशीर्वाद हो सकता था। विद्रोह नहीं, प्रसन्नता ही भीतर थी। लेखक देखता है कि खुली आँख. तुष्ट और मग्न, वह चौक-बाजार में से चलते चले जाते हैं। राह में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं। कहीं भगत नहीं रुकते। रुकते हैं तो एक छोटी पंसारी की दुकान पर रुकते हैं। वहाँ दो-चार अपने काम की चीज लीं और चले आते हैं। बाजार से हठपूर्वक विमुखता उनमें नहीं है; लेकिन अगर जीरा और नमक चाहिए तो सारे चौक-बाजार की सत्ता उनके लिए तभी तक है, तभी तक उपयोगी है, जब तक वहाँ जीरा मिलता है। जरूरत- भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है। वह जानते हैं कि जो उन्हें चाहिए वह है जीरा, नमक।
लेखक अपने मित्र की किस बात का उल्लेख करता है?
लेखक एक बार की बात बताता है। उनके एक मित्र बाजार गए तो थे कोई एक मामूली चीज लेने पर लौटे तो एकदम बहुत-से बंडल पास थे। लेखक ने पूछा यह क्या है? वे बोले-यह जो साथ थीं। उनका आशय था कि पत्नी की महिमा है। उस महिमा का लेखक कायल है। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े तो क्या वह जोड़े? फिर भी सच सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्व की महिमा सविशेष है। वह तत्व है मनीबैग, अर्थात् पैसे की गर्मी या एनर्जी।
लेखक दूसरे मित्र द्वारा कुछ भी न खरीद पाने के उदाहरण से क्या बताना चाह रहा है?
लेखक एक और मित्र की बात बताता है। वे दोपहर के पहले के गए बाजार से कहीं शाम को वापिस आए। आए तो खाली हाथ। लेखक ने पूछा कहीं रहे? मित्र बोले-बाजार देखते रहे। लेखक ने कहा बाजार को देखते क्या रहे? बोले-क्यों? बाजार। तब लेखक ने कहा-लाए तो कुछ नहीं। मित्र बोले-हाँ! पर यह समझ न आता था कि न लूँ तो क्या? सभी कुछ तो लेने का जी होता है। कुछ लेने का मतलब था शेष सब कुछ को छोड़ देना। पर मैं कुछ भी नहीं छोड़ना चाहता था। इससे मैं कुछ भी नहीं ले सका।
लेखक को लगा कि मित्र की बात ठीक थी। अगर ठीक पता नहीं है कि क्या चाहते हो तो सब ओर की चाह तुम्हें घेर लेगी और तब परिणाम त्रास ही होगा गति नहीं होगी न कर्म।
लेखक ने पैसे को पावर क्यों कहा है?
लेखक ने पैसे को पावर कहा है। उसने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि पैसे में बड़ी शक्ति हैँ। पैसा ही क्रयशक्ति पैदा करता है। खरीदने की क्षमता बढ़ने पर व्यक्ति नई-नई चीजों को खरीदने के लिए लालायित होता है। इसी पावर (शक्ति) के बल पर व्यक्ति बाजार के आकर्षण में खो जाता है। वह बिना आवश्यकता के भी चीजें खरीदता है। पैसा ही उसका समाज में स्थान तय करता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि पैसे में पावर है।
बाजा़र के जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या प्रभाव पड़ता है?
बाजा़र के जादू चढ़ने पर मनुष्य पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं:
- मनुष्य अधिकाधिक चीजें खरीदना चाहता है।
- बाजा़र का जादू मनुष्य के सिर पर चढ़कर बोलता है। बाजार कहता है- ‘मुझे लूटी और लुटो।’
- बाजा़र मनुष्य को विकल बना देता है।
- वह विवेक खो बैठता है।
बाजार का जादू उतरने पर मनुष्य पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं.
- उसका बजट बिगड़ जाता है।
- उसे पता चलता है कि फिजूल की चीजें खरीद लाया है।
- उसके सुख-चैन में खलल पड़ता है।
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भगत जी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए।
इस पाठ में बताया गया है कि भगत जी अशिक्षित हैं। उनमें गहरा ज्ञान भले ही न हो पर उनमें सतोष का भाव अवश्य है। वे केवल वही सामान खरीदते हैं, जिसकी उन्हें आवश्यकता होती है। इसी प्रकार वे उतना सामान (चूरन) बेचते हैं जितने पैसों की उन्हें जरूरत होती है। वे अपने गुजारे लायक पैसे आते ही सामान बेचना बंद कर देते हैं और शेष सामान गरीब बच्चों को मुफ्त दै देते हैं। उनमें अपना चूरन बाँट देते हैं।
भगत जी बाजार को सार्थक और समाज को शांत कैसे कर रहे हैं? ‘बाजार-दर्शन’ पाठ के आधार पर बताइए।
भगतजी बाजार को सार्थक और समाज को शांत निम्न प्रकार से कर रहे थे:
निश्चित समय पर पेटी उठाकर चूरन बेचने के लिए निकलकर।
छह आने की कमाई होते ही चूरन बेचना बंद करके।
पंसारी से जीरा और नमक मात्र खरीदकर।
सभी का जय-जय राम से स्वागत करके।
छह आने के बाद जो चूरन बचता उसे मुफ्त बाँटकर।
बाजार की चमक-दमक से आकर्षित न होकर।
समाज को संतोषी जीवन की शिक्षा देकर।
बाजा़र में भगत जी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभरकर आया है? क्या उनका आचरण आज के व्यक्ति के जीवन में तनाव को कम करने में सहायक हो सकता है? ‘बाजार दर्शन’ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
इस पाठ में बताया गया है कि भगत जी अशिक्षित हैं। उनमें गहरा ज्ञान भले ही न हो पर उनमें संतोष का भाव अवश्य है। वे केवल वही सामान खरीदते हैं, जिसकी उन्हे आवश्यकता होती है। इसी प्रकार वे उतना सामान (चूरन) बेचते हैं जितने पैसों की उन्हें जरूरत होती है। वे अपने गुजारे लायक पैसे आते ही सामान बेचना बंद कर देते हैं और शेष सामान गरीब बच्चों को मुमुफ्ते देते हैं। उनमें अपना चूरन बाँट देते हैं।
भगत जी का आचरण व्यक्ति की आवश्यकताओं को सीमा में रखने की सीख देता है। इससे व्यक्ति का तनाव कम होता है।
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