भारतीय इतिहास के कुछ विषय Iii Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात
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    NCERT Solution For Class 12 ������������������ भारतीय इतिहास के कुछ विषय Iii

    उपनिवेशवाद और देहात Here is the CBSE ������������������ Chapter 10 for Class 12 students. Summary and detailed explanation of the lesson, including the definitions of difficult words. All of the exercises and questions and answers from the lesson's back end have been completed. NCERT Solutions for Class 12 ������������������ उपनिवेशवाद और देहात Chapter 10 NCERT Solutions for Class 12 ������������������ उपनिवेशवाद और देहात Chapter 10 The following is a summary in Hindi and English for the academic year 2021-2022. You can save these solutions to your computer or use the Class 12 ������������������.

    Question 1
    CBSEHHIHSH12028329

    ग्रामीण बंगाल के बहुत से इलाकों में जोतदार एक ताकतवर हस्ती क्यों था?

    Solution

    ग्रामीण बंगाल में बहुत-से इलाकों में जोतदार काफ़ी शक्तिशाली थे। वे ज़मींदारों से भी अधिक प्रभावशाली थे उनके शक्तिशाली होने के निम्नलिखित कारण थे:

    1. उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक आते-आते, जोतदारों ने जमीन के बड़े-बड़े रकबे, जो कभी-कभी तो कई हजार एकड़ में फैले थे, अर्जित कर लिए थे।
    2. स्थानीय व्यापार और साहूकार के कारोबार पर भी उनका नियंत्रण था और इस प्रकार वे उस क्षेत्र के गरीब काश्तकारों पर व्यापक शक्ति का प्रयोग करते थे।
    3. गाँवों में, जोतोदारों की शक्ति, जमींदारों की ताकत की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती थी। जमींदार के विपरीत जो शहरी इलाकों में रहते थे, जोतदार गाँवों में ही रहते थे और गरीब ग्रामवासियों के काफी बड़े वर्ग पर सीधे अपने नियंत्रण का प्रयोग करते थे।
    4. जोतदार ग्राम में ज़मींदारों के लगान वृद्धि के प्रयासों का विरोध करते थे। वे ज़मींदारी अधिकारीयों को अपने लगान वृद्धि को लागू करने से सम्बन्धित कर्तव्यों का पालन नहीं करने देते थे।

    Question 2
    CBSEHHIHSH12028330

    ज़मींदार लोग अपनी जमींदारियों पर किस प्रकार नियंत्रण बनाए रखते थे?

    Solution

    जमींदार द्वारा अपने ज़मींदारियों पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए कई प्रकार के हथकंडे अपनाते गए: 

    1. जमींदारों के एजेंट नीलामी की प्रक्रिया में जोड़-तोड़ की नीति को अपनाते थे। अपनी भू-संपदा की बिक्री के समय उनके अपने ही आदमी ऊँची बोली लगाकर ज़मींदारी (भू-संपदा) को खरीद लेते थे। बाद में वे खरीद की राशि चुकाने से इनकार कर देते थे। इस प्रकार ज़मींदारी जमींदार के नियंत्रण में ही रहती थी।
    2. ज़मींदार ज़मींदारी पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए फ़र्ज़ी बिक्री का सहारा लेते थे। फ़र्ज़ी बिक्री के कारण ज़मींदारी को बार-बार बेचना पड़ता था। बार-बार बोली लगाने से सरकार तथा बोली लगाने वाले दोनों ही थक जाते थे। जब कोई भी बोली लगता था, तो सरकार को वह ज़मींदारी पुराने जमींदार को ही कम कीमत पर बेचनी पड़ती थी।
    3. जमींदार अपनी जमींदारियों के कुछ भाग परिवार की महिलाओं के नाम कर देते थे, क्योंकि कम्पनी की नीति में महिलाओं की सम्पत्ति न छीनने का प्रावधान था। ऐसा करने से भी जमींदार अपनी ज़मींदारी पर नियंत्रण बनाए रखते थे।
    4. ज़मदार अपनी ज़मींदारी पर किसी अन्य व्यक्ति का कब्ज़ा सरलतापूर्वक नहीं होने देते थे। जब कोई नया खरीददार ज़मींदारी खरीद लेता था, तो पुराने जमींदार के 'लठियाल' मारपीट कर उसे भगा देते थे। कभी-कभी स्वयं रैयत नए खरीददार को ज़मीन में नहीं घुसने देते थे।

    Question 3
    CBSEHHIHSH12028331

    पहाड़िया लोगों ने बाहरी लोगों के आगमन पर कैसी प्रतिक्रिया दर्शाई?

    Solution

    पहाड़िया लोग बाहर से आने वाले लोगों को संदेह तथा अविश्वास की दृष्टि से देखते थे। बाहरी लोगों का आगमन पहाड़ियां लोगों के लिए जीवन का संकट बन गया था। उनके पहाड़ व जंगलों पर कब्जा करके खेत बनाए जा रहे थे। पहाड़ी लोगों में इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। पहाड़ियों के आक्रमणों में तेजी आती गई। अनाज व पशुओं की लूट के साथ इन्होने अंग्रेजों की कोठियों, ज़मींदारों की कचहरियों तथा महाजनों के घर-बारों पर अपने मुखियाओं के नेतृत्व में संगठित हमले किए और लूटपाट की।
    वही दूसरी तरफ़, ब्रिटिश अधिकारियों ने दमन की नीति को अपनाया। उन्हें बेरहमी से मारा-पीटा गया परंतु पहाड़ियां लोग दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में जाकर बाहरी लोगों (ज़मींदारों व जोतदारों) पर हमला करते रहे। ऐसे क्षेत्रों में अंग्रेज़ों के सैन्य बलों के लिए भी इनसे निपटना आसान नहीं था। ऐसे में ब्रिटिश अधिकारियों ने शांति संधि के प्रयास शुरू किए जिसमें उन्हें सालाना भत्ते की पेशकश की गई। बदले में उनसे यह आश्वासन चाहा कि वे शांति व्यवस्था बनाए रखेंगे। उल्लेखनीय हैं कि अधिकतर मुखियाओं ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। जिन कुछ मुखियाओं ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया था, उन्हें पहाड़िया लोगों ने पसंद नहीं किया।

    Question 4
    CBSEHHIHSH12028332

    संथालों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह क्यों किया?

    Solution

    संथालों के विद्रोह के निम्नलिखित कारण थे: 

    1. संथालों ने जिस जंगली भूमि को अत्यधिक परिश्रम करके कृषि योग्य बनाया था, वह इस्तमरारी बंदोबस्त के कारण उनके हाथों से निकलने लगी थी। महेशपुर और पाकुड़ के पड़ोसी राजाओं ने संथालों के गावों को आगे छोटे ज़मींदारों व साहूकारों को पट्टे पर दे दिया। वे मनमाना लगान वसूल करने लगे।
    2. लगान अदा न कर पाने की स्थिति में संथाल किसान साहूकारों से ऋण लेने के लिए विवश हुए। इससे शोषण व उत्पीड़न का चक्र शुरू हुआ। साहूकार उनके ऋण पर बहुत ऊँची दर पर ब्याज लगा रहे थे।
    3. अंग्रेज अधिकारियों ने संथालों के नियंत्रित प्रदेशों और भू-भागों में मूल्यवान पत्थरों और खनिजों को खोजने की कोशिश की। उन्होंने लौह-खनिज, अभ्रक, ग्रेनाइट और साल्टपीटर से संबंधित सभी स्थानों की जानकारी प्राप्त कर ली। यही नहीं, उन्होंने बड़ी चालाकी के साथ नमक बनाने और लोहा निकालने की संथालों और स्थानीय पद्धतियों का निरीक्षण किया। इन सबसे संथाल बहुत चिढ़ गए।
    4. संथाल अपनी दुर्दशा के लिए ब्रिटिश प्रशासन को उत्तरदायीं समझते थे। अतः वे ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करके अपने लिए एक ऐसे आदर्श संसार का निर्माण करना चाहते थे जहाँ उनका अपना शासन हो। इन सब कारणों ने संथालों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए तैयार कर दिया।

    Question 5
    CBSEHHIHSH12028333

    दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति क्रुद्ध क्यों थे?

    Solution

    दक्कन के रैयत निम्नलिखित कारणों से ऋणदाताओं  के प्रति क्रुद्ध थे:

    1. 1870 ई के आस-पास दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति अत्यधिक क्रुद्ध थे। ऋणदाता द्वारा ऋण देने से इनकार किए जाने पर, रैयत समुदाय को बहुत गुस्सा आया। किसानों को लगता था की ऋणदाता इतना संवेदनहीन हो गए है जो उनकी हालत पर तरस नहीं खाता। 
    2. ऋणदाता लोग देहात के प्रथागत मानकों यानी रूढ़ि रिवाजों का भी उल्लंघन कर रहे थे। उदाहरण के लिए ब्याज मूलधन से अधिक नहीं लिया जा सकता था। परन्तु ऋणदाता इस मानक की धज्जियाँ उड़ा रहे थे। एक मामले में ऋणदाता ने 100 रु.के मूलधन पर 2000 रु. से भी अधिक ब्याज लगा रखा था।
    3. बिना चुकाई गई ब्याज की राशि को नए बंधपत्रों में शालिम कर लिया जाता था, ताकि ऋणदाता कानून के शिकंजे से बचा रहे और उसकी राशि भी न डूबे।
    4. साहूकार अथवा ऋणदाता किसानों को अनेक प्रकार से ठगते रहते थे; ऋण का भुगतान किए जाने के समय वे रैयत को उसकी रसीद नहीं देते थे, अनुबंध पत्रों में जाली आँकड़ों को भर लिया जाता था, किसानों की फसलों का दाम बहुत कम आँका जाता था और अंत में उनकी धन-संपदा पर ही अधिकार जमा लिया जाता था।

    Question 6
    CBSEHHIHSH12028334

    इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद बहुत-सी जमींदारियाँ क्यों नीलाम कर दी गईं?

    Solution

    सरकार उसकी भूमि का कुछ भाग बेचकर लगान की वसूली कर सकती थी। इस्तमरारी बन्दोबस्त के बाद बहुत सी ज़मींदारियां नीलाम की जाने लगी। इसके अनेक कारण थे:

    1. कंपनी द्वारा निर्धारित प्रारंभिक राजस्व माँगें अत्यधिक ऊँची थीं। स्थायी अथवा इस्तमरारी बंदोबस्त के अंतर्गत राज्य की राजस्व माँग का निर्धारण स्थायी रूप से किया गया था। इसका तात्पर्य था कि आगामी समय में कृषि में विस्तार तथा मूल्यों में होने वाली वृद्धि का कोई अतिरिक्त लाभ कंपनी को नहीं मिलने वाला था। अत: इस प्रत्याशित हानि को कम-से-कम करने के लिए कंपनी राजस्व की माँग को ऊँचे स्तर पर रखना चाहती थी। ब्रिटिश अधिकारियों का विचार था कि कृषि उत्पादन एवं मूल्यों में होने वाली वृद्धि के परिणामस्वरूप ज़मींदारों पर धीरे-धीरे राजस्व की माँग का बोझ कम होता जाएगा और उन्हें राजस्व भुगतान में कठिनता का सामना नहीं करना पड़ेगा। किंतु ऐसा संभव नहीं हो सका। परिणामस्वरूप ज़मींदारों के लिए राजस्व-राशि का भुगतान करना कठिन हो गया।
    2. उल्लेखनीय है कि भू-राजस्व की ऊँचीं माँग 1790 के दशक में लागू की गई थी। इस काल में कृषि उत्पादों की कीमतें कम थी, जिससे रैयत (किसानों) के लिए, जमींदार को उनकी देय राशियाँ चुकाना मुश्किल था। इस प्रकार जमींदार किसानों से राजस्व इकट्ठा नहीं कर पाता था और कंपनी को अपनी निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थ हो जाता था।
    3. राजस्व की माँग में परिवर्तन नहीं किया जा सकता था। उत्पादन अधिक हो या बहुत कम, राजस्व का भुगतान ठीक समय पर करना होता था। इस संबंध में सूर्यास्त कानून का अनुसरण किया जाता था। इसका तात्पर्य था कि यदि निश्चित तिथि को सूर्य छिपने तक भुगतान नहीं किया जाता था तो जमींदारियों को नीलाम किया जा सकता था।
    4. इस्तमरारी अथवा स्थायी बंदोबस्त के अंतर्गत जमींदारों के अनेक विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया गया था। उनकी सैनिक टुकड़ियों को भंग कर दिया गया। उनके सीमाशुल्क वसूल करने के अधिकार को समाप्त कर दिया गया था। उन्हें उनकी स्थानीय न्याय तथा स्थानीय पुलिस की व्यवस्था करने की शक्ति से भी वंचित कर दिया गया। परिणामस्वरूप अब ज़मींदार शक्ति प्रयोग द्वारा राजस्व वसूली नहीं कर सकते थे।
    5. राजस्व वसूली के समय जमींदार का अधिकारी जिसे सामान्य रूप से 'अमला' कहा जाता था, ग्राम में जाता था। कभी कम मूल्यों और फसल अच्छी न होने के कारण किसान अपने राजस्व का भुगतान करने में असमर्थ हो जाते थे, तो कभी रैयत जानबूझकर ठीक समय पर राजस्व का भुगतान नहीं करते थे। इस प्रकार जमींदार ठीक समय पर राजस्व का भुगतान नहीं कर पाता था और उसकी ज़मींदारी नीलाम कर दी जाती थी।
    6. कई बार ज़मींदार जानबूझकर राजस्व का भुगतान नहीं करते थे। भूमि के नीलाम किए जाने पर उनके अपने एजेन्ट कम से कम बोली लगाकर उसे ( अपने ज़मींदार के लिए) प्राप्त कर लेते थे। इस प्रकार ज़मींदार को राजस्व के रूप में पहले की अपेक्षा कहीं कम धनराशि का भुगतान करना पड़ता था।

    Question 7
    CBSEHHIHSH12028335

    पहाड़िया लोगों की आजीविका संथालों की आजीविका से किस रूप में भिन्न थी?

    Solution

    पहाड़िया लोगों की आजीविका तथा संथालों की आजीविका में अंतर विभिन्न उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता हैं: 

    1. पहाड़िया लोगों की खेती कुदाल पर आधारित थी। ये राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहते थे। वे हल को हाथ लगाना पापा समझते थे। वही दूसरी ओर, संथाल हल की खेती यानी स्थाई कृषि सीख रहे थे। ये गुंजारिया पहाड़ियों की तलहटी में रहने वाले लोग थे।
    2. पहाड़िया लोग झूम खेती करते थे और जंगल के उत्पादों से अपना जीविकोपार्जन करते थे। जंगल के छोटे से भाग में झाड़ियों को काटकर तथा घास-फूस को जलाकर वे जमीन साफ़ कर लेते थे। राख की पोटाश से जमीन पर्याप्त उपजाऊ बन जाती थी। पहाड़िया लोग उस ज़मीन पर अपने खाने के लिए विभिन्न प्रकार की दालें और चार बाजरा उगाते थे। इस प्रकार वे अपनी आजीविका के लिए जंगलों और चरागाहों पर निर्भर थे। किन्तु संथाल अपेक्षाकृत स्थायी खेती करते थे। ये परिश्रमी थे और इन्हें खेती की समझ थी। इसलिए जमींदार लोग इन्हें नई भूमि निकालने तथा खेती करने के लिए मज़दूरी पर रखते थे।
    3. कृषि के अतिरिक्त शिकार व जंगल के उत्पाद पहाड़ियां लोगों की आजीविका के साधन थे। वे काठ कोयला बनाने के लिए जंगल से लकड़ियाँ एकत्रित करते थे। खाने के लिए महुआ नामक पौधें के फूल एकत्र करते थे। जंगल से रेशम के कीड़ें के कोया (Silkcocoons) एवं राल (Resin) एकत्रित करके बेचते थे। वही दूसरी ओर खानाबदोश जीवन को छोड़कर एक स्थान पर बस जाने के कारण संथाल स्थायी खेती करने लगे थे, वे बढ़िया तम्बाकू और सरसों जैसी वाणिज्यिक फसलों को उगाने लगे थे। परिणामस्वरूप, उनकी आर्थिक स्थिति उन्नत होने लगी और वे व्यापारियों एवं साहूकारों के साथ लेन-देन भी करने लगे।
    4. पहाड़िया लोग उन मैदानी भागों पर बार-बार आक्रमण करते रहते थे, जहाँ किसानों द्वारा एक स्थान पर बसकर स्थायी खेती की जाती थी। इस प्रकार मैदानों में रहने वाले लोग प्रायः पहाड़िया लोगों के आक्रमणों से भयभीत रहते थे। किंतु संथाल लोगों के जमींदारों और व्यापारियों के साथ संबंध प्रायः मैत्रीपूर्ण होते थे। वे व्यापारियों एवं साहूकारों के साथ लेन-देन भी करते थे।

    Question 8
    CBSEHHIHSH12028336

    अमेरिकी गृहयुद्ध ने भारत में रैयत समुदाय के जीवन को कैसे प्रभावित किया ?

    Solution

    अमेरिकी गृहयुद्ध के कारण भारत में रैयत समुदाय का जीवन निम्न कारणों से प्रभावित हुआ:

    1. अमेरिका में गृहयुद्ध सन् 1861 से 1865 के बीच हुआ। इस गृहयुद्ध के दौरान भारत की रैयत को खूब लाभ हुआ। कपास की कीमतों में अचानक उछाल आया क्योंकि इंग्लैंड के उद्योंगों को अमेरिका से कपास मिलना बंद हो गया था। भारतीय कपास भी माँग बढ़ने के कारण कपास उत्पादक रैयत को ऋण की भी समस्या नहीं रही।  
    2. इस बात का दक्कन के देहाती इलाकों में काफी असर हुआ। दक्कन के गाँवों के रैयतों को अचानक असीमित ऋण उपलब्ध होने लगा। उन्हें कपास उगाने वाली प्रत्येक एकड़ भूमि के लिए अग्रिम राशि दी जाने लगी। साहूकार भी सबसे ऋण देने के लिए हर समय तैयार थे।
    3. जब तक अमेरिका में संकट की स्थिति बनी रही तब तक बंबई दक्कन में कपास का उत्पादन बढ़ता गया। 1860 से 1864 के दौरान कपास उगाने वाले एकड़ों की संख्या दोगुनी हो गई। 1862 तक स्थिति यह आई कि ब्रिटेन में जितना भी कपास का आयात होता था, उसका 90 प्रतिशत भाग अकेले भारत से जाता था।
    4. इस तेजी में भी सभी कपास उत्पादकों को समृद्धि प्राप्त नहीं हो सकी। कुछ धनी किसानों को तो लाभ अवश्य हुआ, लेकिन अधिकांश किसान कर्ज के बोझ से और अधिक दब गए।
    5. जिन दिनों कपास के व्यापार में तेजी रही, भारत के कपास व्यापारी, अमेरिका को स्थायी रूप से विस्थापित करके, कच्ची कपास के विश्व बाजार को अपने कब्जे में करने के सपने देखने लगे। 1861 में बांबे गजट के संपादक ने लिखा, “दास राज्यों (संयुक्त राज्य अमेरिका) को विस्थापित करके, लंकाशायर को कपास का एकमात्र आपूर्तिकर्ता बनने से भारत को कौन रोक सकता है?'
    6. लेकिन 1865 तक ऐसे सपने आने बंद हो गए। जब अमेरिका में गृहयुद्ध समाप्त हो गया तो वहाँ कपास का उत्पादन फिर से चालू हो गया और ब्रिटेन में भारतीय कपास के निर्यात में गिरावट आती चली गई।
    7. महाराष्ट्र में निर्यात व्यापारी और साहूकार अब दीर्घावधिक ऋण देने के लिए उत्सुक नहीं रहे। उन्होंने यह देख लिया था कि भारतीय कपास की माँग घटती जा रही है और कपास की कीमतों में गिरावट आ रही है। इसलिए उन्होंने अपना कार्य-व्यवहार बंद करने, किसानों को अग्रिम राशियाँ प्रतिबंधित करने और बकाया ऋणों को वापिस माँगने का निर्णय लिया। इन परिस्थितियों में किसानों की दशा अत्यधिक दयनीय हो गई।

    Question 9
    CBSEHHIHSH12028337

    किसानों का इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों के उपयोग के बारे में क्या समस्याएँ आती हैं?

    Solution

    यह सत्य है कि इतिहास के पुनर्निर्माण में सरकारी स्रोतों; जैसे-राजस्व अभिलेखों, सरकार द्वारा नियुक्त सर्वेक्षणकर्ताओं की रिपोर्टों और पत्रिकाओं आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। किंतु किसानों का इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों का उपयोग करते समय लेखक को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है:

    1. सरकारी स्रोत वास्तविक स्थिति का निष्पक्ष वर्णन नहीं करते। अतः उनके द्वारा प्रस्तुत विवरणों पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता हैं।
    2. इन सरकारी स्रोतों के आधार पर किसान संबंधी इतिहास लिखने में सबसे बड़ी समस्या होती है उन स्रोतों के 'उद्देश्य एवं दृष्टिकोण' की खोज-बिन करना। क्योंकि ये किसी-न-किसी रूप में सरकारी दृष्टिकोण एवं अभिप्रायों के पक्षधर होते हैं। वे विभिन्न घटनाओं का विवरण सरकारी दृष्टिकोण से ही प्रस्तुत करते हैं।
    3. सरकारी स्रोतों में दी गई जानकारी सरकारी दृष्टिकोण तथा सरकार के हित से प्रेरित होती है। इनमें किसी घटना के लिए सरकार को दोषी ठहराने की बजाए विरोधी पक्ष को दोषी सिद्ध करने का प्रयास होता है। उदाहरण के लिए, दक्कन दंगा आयोग की नियुक्ति विशेष रूप से यह पता लगाने के लिए की गई थी कि सरकारी राजस्व की माँग का विद्रोह के प्रारंभ में क्या योगदान था अथवा क्या किसान राजस्व की ऊँची दर के कारण विद्रोह के लिए उतारू हो गए थे। आयोग ने संपूर्ण जाँच-पड़ताल करने के बाद जो रिपोर्ट प्रस्तुत की उसमें विद्रोह का प्रमुख कारण ऋणदाताओं अथवा साहूकारों को बताया गया। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से यह कहा गया कि सरकारी माँग किसानों की उत्तेजना अथवा क्रोध का कारण कदापि नहीं थी।
      किन्तु आयोग इस प्रकार की टिप्पणी करते हुए यह भूल गया कि आखिर किसान साहूकारों की शरण में जाते क्यों थे। वास्तव में, सरकार द्वारा निर्धारित भू-राजस्व की दर इतनी अधिक थी और वसूली के तरीके इतने कठोर थे कि किसान को विवशतापूर्वक साहूकार की शरण में जाना ही पड़ता था। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह था कि औपनिवेशिक सरकार जनता में व्याप्त असंतोष अथवा रोष के लिए स्वयं को उत्तरदायी मानने के लिए तैयार नहीं थी। 
      इस प्रकार, सरकारी रिपोर्टें इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए बहुमूल्य स्रोत सिद्ध होती हैं। लेकिन उन्हें हमेशा सावधानीपूर्वक पड़ा जाना चाहिए और समाचारपत्रों, गैर-सरकारी वृतांतों, वैधिक अभिलेखों और यथासंभव मौखिक स्रोतों से संकलित साक्ष्य के साथ उनका मिलान करके उनकी विश्वसनीयता की जाँच की जानी चाहिए।

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