भारतीय इतिहास के कुछ विषय I Chapter 4 विचारक विश्वास और इमारतें
  • Sponsor Area

    NCERT Solution For Class 12 ������������������ भारतीय इतिहास के कुछ विषय I

    विचारक विश्वास और इमारतें Here is the CBSE ������������������ Chapter 4 for Class 12 students. Summary and detailed explanation of the lesson, including the definitions of difficult words. All of the exercises and questions and answers from the lesson's back end have been completed. NCERT Solutions for Class 12 ������������������ विचारक विश्वास और इमारतें Chapter 4 NCERT Solutions for Class 12 ������������������ विचारक विश्वास और इमारतें Chapter 4 The following is a summary in Hindi and English for the academic year 2021-2022. You can save these solutions to your computer or use the Class 12 ������������������.

    Question 1
    CBSEHHIHSH12028275

    क्या उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों और भौतिकवादियों से भिन्न थे? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।

    Solution

    नि:संदेह नियतिवादियों और भौतिकवादियों के विचार उपनिषदों के दार्शनिकों से भिन्न थे। उपनिषदों में आत्मिक ज्ञान पर बल दिया गया था, जिसका अर्थ आत्मा और परमात्मा के संबंधों को जानना। परमात्मा ब्रह्मा है, जिससे संपूर्ण जगत पैदा हुआ है। है। जीवात्मा अमर है और ब्रह्म का ही अंश है। जीवात्मा ब्रह्म में लीन होकर मुक्ति प्राप्त करती है। इसके लिए सद्कर्मों और आत्मिक ज्ञान की जरूरत है।

    उपनिषदों के इस ज्ञान से नियतिवादियों और भौतिकवादियों के विचार भिन्न थे जो निम्नलिखित तर्कों से स्पष्ट हैं:

    1. नियतिवादियों का मानना था कि प्राणी नियति यानी भाग्य के अधीन है। मनुष्य उसी केअनुरूप सुख-दुख भोगता है। सद्कर्मों अथवा आत्मज्ञान से नियति नहीं बदलती।
    2. भौतिकवादियों का मानना था कि मानव का शरीर पूध्वी, जल, अग्नि तथा वायु से बना है। आत्मा और परमात्मा कोरी कल्पना है। मृत्यु के पश्चात शरीर में कुछ शेष नहीं बचता। अत:भौतिकवादियों के विचार भी आत्मा-परमात्मा या अन्य विचार भी उपनिषदों के दार्शनिकों से बिल्कुल भिन्न थे।

    Question 2
    CBSEHHIHSH12028276

    जैन धर्म की महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं को संक्षेप में लिखिए।

    Solution

    जैन धर्म की मुख्य शिक्षाएँ इस प्रकार हैं:

    1. अहिंसा: जैन धर्म की शिक्षाओं का केंद्र-बिंदु अहिंसा का सिद्धांत है। जैन दर्शन के अनुसार संपूर्ण विश्व प्राणवान है अर्थात् पेड़-पौधे, मनुष्य, पशु-पक्षियों सहित पत्थर और पहाड़ों में भी जीवन है। अत: किसी भी प्राणी या निर्जीव वस्तु को क्षति न पहुँचाई जाए। यही अहिंसा है। इसे मन, वचन और कर्म तीनों रूपों में पालन करने पर जोर दिया गया।
    2. तीन आदर्श वाक्य:जैन शिक्षाओं में तीन आदर्श वाक्य हैं: सत्य विश्वास, सत्य ज्ञान तथा सत्य चरित्र । इन तीनों वाक्यों को त्रिरत्न कहा गया है।
    3. पाँच महाव्रत:जैन शिक्षाओं में मनुष्य को पापों से बचाने के लिए पाँच महाव्रतों के पालन पर जोर दिया गया है। ये व्रत हैं: अहिंसा का पालन, चोरी न करना, झूठ न बोलना, धन संग्रह न करना तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना।
    4. कठोर तपस्या: जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति के लिए और पिछले जन्मों के बुरे कर्मों के फल को समाप्त करने के लिए कठोर तपस्या पर बल दिया गया है।

    Question 3
    CBSEHHIHSH12028277

    साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका की चर्चा कीजिए।

    Solution

    भोपाल की दो शासिकाओं शाहजहाँ बेगम और सुस्तानजहाँ बेगम ने साँची के स्तूप को बनाए रखने में उल्लेखनीय योगदान दिया। उन्होंने इसके संरक्षण के लिए धन भी दिया और इसके पुरावशेषों को भी संरक्षित किया। 1818 में इस स्तूप की खोज के बाद बहुत-से यूरोपियों का इसके पुरावशेषों के प्रति विशेष आकर्षण था। फ्रांसीसी और अंग्रेज अलंकृत पत्थरों को ले जाकर अपने-अपने देश के संग्रहालयों में प्रदर्शित करना चाहते थे। फ्रांसीसी विशेषतया पूर्वी तोरणद्वार, जो सबसे अच्छी स्थिति में था, को पेरिस ले जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने शाहजहाँ बेगम से इजाजत माँगी। ऐसा प्रयत्न अंग्रेजों ने भी किया। बेगम ने सूझ-बूझ से काम लिया। वह इस मूल कृति को भोपाल राज्य में अपनी जगह पर ही संरक्षित रखना चाहती थी । सौभाग्यवश कुछ पुरातत्ववेत्ताओं ने भी इसका समर्थन कर दिया। इससे यह स्तूप अपनी जगह सुरक्षित रह पाया।
    भोपाल की बेगमों ने स्तूप के रख-रखाव के लिए धन भी उपलब्ध करवाया। सुन्तानजहाँ बेगम ने स्तूप स्थल के पास एक संग्रहालय एवं अतिथिशाला भी बनवाई।

    Question 4
    CBSEHHIHSH12028278

    निम्नलिखित संक्षिप्त अभिलेख को पढ़िए और उत्तर दीजिए:
    महाराज हुविष्क (एक कुषाण शासक) के तैंतीसवें साल में गर्म मौसम के पहले महीने के आठवें दिन त्रिपिटक जानने वाले भिक्खु बल की शिष्या, त्रिपिटक जाननेवाली बुद्धमिता के बहन की बेटी भिक्खुनी धनवती ने अपने माता-पिता के साथ मधुवनक में बोधिसत्त की मूर्ति स्थापित की।

    (क) धनवती नेअपने अभिलेख की तारीख कैसे निश्चित की?
    (ख) आपके अनुसार उन्होंने बोधिसत्त की मूर्ति क्यों स्थापित की?
    (ग) वे अपने किन रिश्तेदारों का नाम लेती हैं?
    (घ) बे कौन-से बौद्ध ग्रंथों को जानती थीं?
    (ढ़) उन्होंने ये पाठ किससे सीखे थे?

    Solution

    (क) धनवती ने तत्कालीन कुषाण शासक हुविष्क के शासनकाल के तैंतीसवें वर्ष के गर्म मौसम के प्रथम महीने के आठवें दिन का उल्लेख करके अपने अभिलेख की तिथि को निश्चित किया।
    (ख) उन्होंने बौद्ध धर्म में अपनी आस्था प्रकट करने और स्वयं को सच्ची भिक्खुनी को निश्चित करने के लिए मधु वनक में बोधिसत्त की मूर्ति की स्थापना की।
    (ग) वह अभिलेख में अपनी मौसी(माता की बहन) बुद्धिमता तथा उसके गुरु बल और अपने माता-पिता का नाम लेती है।
    (घ) धनवती त्रिपिटक (सुत्तपिटक, विनयपिटक तथा अभिधम्म पिटक) बौद्ध ग्रंथों को जानती थी।
    (ड) उन्होंने ये पाठ बल की शिष्या बुद्धिमता से सीखे थे।

    Question 5
    CBSEHHIHSH12028279

    आपके अनुसार स्त्री पुरुष संघ में क्यों जाते थे?

    Solution

    बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने के लिए महात्मा बुद्ध ने बौद्ध संघ की स्थापना की। बौद्ध संघ महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं पर आधारित एक धार्मिक व्यवस्था भी थी। अतः इसमें स्त्री-पुरुष निम्नलिखित कारणों से शामिल हुए:

    1. बौद्ध संघ की व्यवस्था समानता पर आधारित थी। इसमें किसी वर्ण, जाति या वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता था। संघ का संगठन गणतंत्रात्मक प्रणाली पर आधारित था।
    2. शुरू में संघ में स्त्रियों को भी शामिल नहीं किया गया था परंतु बाद में स्त्रियों को भी संघ का सदस्य बनाया गया। वे भी बौद्ध धर्म की ज्ञाता बनीं।
    3. बौद्ध धर्म के शिक्षक- शिक्षिकाएँ बनने के लिए स्त्री-पुरुष संघ के सदस्य बने थे। वे बौद्ध धर्म ग्रंथों का गहन अध्ययन करते थे ताकि उनकी शिक्षाओं का प्रचार प्रसार कर सकें।

    Question 6
    CBSEHHIHSH12028280

    साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य के ज्ञान से कहाँ तक सहायता मिलती है?

    Solution

    साहित्य ग्रंथों के व्यापक अध्ययन से प्राचीन मूर्तिकला के अर्थ को समझाया जा सकता है। यह बात साँची स्तूप की मूर्तिकला के संदर्भ में भी लागू होती है। इसलिए इतिहासकार साँची की मूर्ति गाथाओं को समझने के लिए बहुत साहित्यिक परंपरा के ग्रंथों का गहन अध्ययन करते हैं। बहुत बार तो साहित्यिक गाथाएँ ही पत्थर में मूर्तिकार द्वारा उभारी गई होती है। साँची की मूर्तिकला को समझने में बौद्ध साहित्य काफी हद तक सहायक है; जैसे कि नीचे दिए गए उदहारणों से स्पष्ट होता है -

    1. वेसान्तर जातक की कथा: साँची के उत्तरी तोरणद्वार के एक हिस्से में एक मूर्तिकला अंश को देखने से लगता है कि उसमें ग्रामीण दृश्य चित्रित किया गया है। परंतु यह दृश्य वेसान्तर जातक की कथा से है, जिसमें एक राजकुमार अपना सब कुछ एक ब्राह्मण को सौंपकर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ वनों में रहने के लिए जा रहा है। अतः स्पष्ट है कि जिस व्यक्ति को जातक कथाओं का ज्ञान नहीं होगा वह मूर्तिकला के इस अंश को नहीं जान पाएगा।
    2. प्रतीकों की व्याख्या: मूर्तिकला में प्रतीकों को समझना और भी कठिन होता है। इन्हें तो बौद्ध परंपरा के ग्रंथों को पढ़े बिना समझा ही नहीं जा सकता। साँची में कुछ एक प्रारंभिक मूर्तिकारों ने बौद्ध वृक्ष के नीचे ज्ञान-प्राप्ति वाली घटना को प्रतीकों के रूप में दर्शाने का प्रयत्न किया है। बहुत से प्रतीकों में वृक्ष दिखाया गया है, लेकिन कलाकार का तात्पर्य संभवतया इनमें एक पेड़ दिखाना नहीं रहा, बल्कि पेड़ बुद्ध के जीवन की एक निर्णायक घटना का प्रतीक था।
      इसी तरह साँची की एक और मूर्ति में एक वृक्ष के चारों ओर बौद्ध भक्तों को दिखाया गया है। परंतु बीच में जिसकी वे पूजा कर रहे हैं वह महात्मा बुद्ध का मानव रूप में चित्र नहीं है, बल्कि एक खाली स्थान -दिखाया गया है- यही रिक्त स्थान बुद्ध की ध्यान की दशा का प्रतिक बन गया।

    अत: स्पष्ट है की मूर्तिकला में प्रतीकों अथवा चिह्रों को समझने के लिए बौद्ध ग्रंथों का अध्यन होना चाहिए। यहाँ यह भी ध्यान रहे की केवल बौद्ध ग्रंथो के अध्यन से ही साँची की सभी मूर्तियों को नहीं समझा जा सकता। इसके लिए तत्कालीन अन्य धार्मिक परंपराओं और स्थानीय परंपराओं को ज्ञान होना भी जरुरी है, क्योंकि इसमें लोक परंपराओं का समावेश भी हुआ है। उत्कीर्णित सर्प, बहुत-से जानवरों के मूर्तियाँ तथा सालभंजिका की मूर्तियाँ इत्यादि इसके उदहारण है।

    Question 7
    CBSEHHIHSH12028281

    चित्र 1 और चित्र 2 में साँची से लिए गए दो परिदृश्य दिए गए हैं। आपको इनमें क्या नज़र आता है? वास्तुकला,पेड़-पौधे और जानवरों को ध्यान से देखकर तथा लोगों के काम-धंधों को पहचान कर यह बताइए कि इनमें से कौन-से ग्रामीण और कौन-से शहरी परिदृश्य हैं?

    Solution

    साँची के स्तूप में मूर्तिकला के उल्लेखनीय नमूने देखने को मिलते हैं। इनमें जातक कथाओं को उकेरा गया है, साथ ही बौद्ध परंपरा के प्रतीकों को भी उभारा गया है, यहाँ तक कि अन्य स्थानीय परंपराओं को शामिल किया गया है।


    चित्र I और II में भी बौद्ध परंपरा से जुड़ी धारणाओं को उकेरा गया है।
    चित्र I को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसमें अनेक पेड़-पौधे और जानवरों को दिखाया गया है। दृश्य ग्रामीण परिवेश का लगता है। लेकिन बौद्ध धर्म की दया, प्रेम और अहिंसा की धारणाएँ इसमें स्पष्ट झलकती हैं। चित्र के ऊपरी भाग में जानवर निश्चिंत भाव से सुरक्षित दिखाई दे रहे हैं, जबकि निचले भाग में कई जानवरों के कटे हुए सिर और धनुष-बाण लिए हुए मनुष्यों के चित्र हैं, जो बलि प्रथा और शिकारी-जीवन, हिंसा को प्रकट करते हैं।
    चित्र-II बिल्कुल अलग परिदृश्य को व्यक्त कर रहा है। संभवत: यह कोई बौद्ध संघ का भवन है जिसमें बौद्ध भिक्षु ध्यान और प्रवचन जैसे कार्यों में व्यस्त हैं। चित्र में उकेरा गया सभाकक्ष और उसके स्तंभों में भी बौद्ध धर्म के प्रतीक दिखाई दे रहे हैं। स्तंभों के ऊपर हाथी और दूसरे जानवर बने हैं। ध्यान रहे इनसे जुड़े साहित्य का यदि हम अध्ययन करें तो संभवत: इन चित्रों का और भी गहन अर्थ निकालने में सक्षम हो पाएँगे। 

    Question 8
    CBSEHHIHSH12028282

    वैष्णववाद और शेववाद के उदय से जुड़ी वास्तुकला और मूर्तिकला के विकास की चर्चा कीजिए।

    Solution

    लगभग 600 ईसा पूर्व से 600 ई० के मध्य वैष्णववाद और शैववाद का विकास हुआ। इसे हिंदू धर्म या पौराणिक हिंदू धर्म भी कहा जाता है। इन दोनों नवीन विचारधाराओं की अभिव्यक्ति मूर्तिकला और वास्तुकला के माध्यम से भी हुई । इस संदर्भ में मूर्तिकला और वास्तुकला के विकास का परिचय निम्नलिखित है:

    1. मूर्तिकला: बौद्ध धर्म की महायान शाखा की भाँति पौराणिक हिंदू धर्म में भी मूर्ति-पूजा का प्रचलन शुरू हुआ। भगवान विष्णु व उनके अवतारों को मूर्तियों के रूप में दिखाया गया। अन्य देवी-देवताओं की भी मूर्तियाँ बनाई गईं। प्राय: भगवान् को उनके प्रतीक लिंग के रूप में प्रस्तुत किया गया। लेकिन कई बार उन्हें मानव रूप में भी दिखाया गया । विष्णु की प्रसिद्ध प्रतिमा देवगढ़ दशावतार मंदिर में मिली है। इसमें उन्हें शेषनाग की शय्या पर लेटे हुए दिखाया गया है। कुंडल, मुकुट वा माला आदि पहने हैं। इसके एक और शिव तथा दूसरी और इंद्र की प्रतिमाएँ है। नाभि से निकले कमल पर ब्रह्मा विराजमान हैं। लक्ष्मी विष्णु के चरण दबा रही हैं। वराह पृथ्वी को प्रलय से बचाने के लिए दाँतों पर उठाए हुए हैं। पृथ्वी को भी नारी रूप में दिखाया गया है। गुप्तकालीन शिव मंदिरों में एक-मुखी और चतुर्मुखी शिवलिंग मिले हैं।
    2. वास्तुकला: वैष्णववाद और शैववाद के अंतर्गत मंदिर वास्तुकला का विकास हुआ। संक्षेप में, शुरुआती मंदिरों के स्थापत्य (वास्तुकला) की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार है:

      1. मंदिरों का प्रारंभ गर्भ-गृह (देव मूर्ति का स्थान) के साथ हुआ। यह चौकोर कमरे थे। इनमें एक दरवाजा होता था, जिसमें उपासक पूजा के लिए भीतर जाते थे। गर्भ-गृह के द्वार अलंकृत थे।

      2. धीरे धीरे गर्भ ग्रह के ऊपर एक ऊँचा ढांचा बनाया जाने लगा जिसे शिखर कहा जाता था।

      3. शुरुआती मंदिर ईंटों से बनाए गए साधारण भवन हैं, लेकिन गुप्त काल तक आते-आते स्मारकीय शैली का विचार उत्पन्न हो चुका था, जो आगमी शताब्दियों में भव्य पाषाण मंदिरों के रूप में अभिव्यक्त हुआ। इनमें ऊंची दीवारें, तोरणद्वार और विशाल सभास्थल बनाए गए, यहाँ तक कि जलापूर्ति का प्रबंध भी किया गया।

         

      4. पूरी एक चट्टान को तराशकर मूर्तियों से अलंकृत पूजा-स्थल बनाने की शैली भी विकसित हुई। उदयगिरी का विष्णु मंदिर इस शैली से बनाया गया। इस संदर्भ में महाबलीपुरम् के मंदिर भी विशेष उल्लेखनीय है।

    Question 9
    CBSEHHIHSH12028283

    स्तूप क्यों और कैसे बनाए जाते थे? चर्चा कीजिए।

    Solution

    स्तूप बौद्ध धर्म के अनुयायियों के पूजनीय स्थल हैं। यहां क्यों और कैसे बनाए गए, इसका वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है:

    1. स्तूप क्यों बनाए गए?: स्तूप का शाब्दिक अर्थ टीला है। ऐसे टीले, जिनमें महात्मा बुद्ध के अवशेषों जैसे उनकी अस्थियाँ, दाँत, नाखून इत्यादि) या उनके द्वारा प्रयोग हुए सामान को गाड़ दिया गया था, बौद्ध स्तूप कहलाए। ये बौद्धों के लिए पवित्र स्थल थे।
    यह संभव है कि स्तूप बनाने की परंपरा बौद्धों से पहले रही हो, फिर भी यह बौद्ध धर्म से जुड़ गई। इसका कारण वे पवित्र अवशेष थे जो स्तूपों में संजोकर रखे गए थे। इन्हीं के कारण वे पूजनीय स्थल बन गए। महात्मा बुद्ध के सबसे प्रिय शिष्य आनंद ने बार-बार आग्रह करके बुद्ध से उनके अवशेषों को संजोकर रखने की अनुमति ले ली थी।
    बाद में सम्राट अशोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से करके उन पर मुख्य शहर में स्तूप बनाने का आदेश दिया। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक सारनाथ, साँची, भरहुत, बौद्ध गया इत्यादि स्थानों पर बड़े-बड़े स्तूप बनाए जा चुके थे। अशोक व कई अन्य शासकों के अतिरिक्त धनी व्यापारियों, शिल्पकारों, श्रेणियों व बौद्ध भिक्षुओं व भिक्षुणियों ने भी स्तूप बनाने के लिए ध्यान दिया।
    2. स्तूप कैसे बनाए गए - प्रारंभिक स्तूप साधारण थे, लेकिन समय बीतने के साथ- साथ इनकी संरचना जटिल होती गई। इनकी शुरुआत कटोरेनुमा मिट्टी के टीले से हुई। बाद में इस टीले को अंड के नाम से पुकारा जाने लगा। अंड के ऊपर बने छज्जे जैसे ढांचा ईश्वर निवास का प्रतीक था। इसे हर्मिका कहा गया। इसी में बौद्ध अथवा अन्य बोधिसत्वों के अवशेष रखे जाते थे। हर्मिका के बीच में एक लकड़ी का मस्तूल लगा होता था। इस पर एक छतरी बनी होती थी। अंड के चारों ओर एक वेदिका होती थी। अब पवित्र स्थल को सामान्य दुनिया से पृथक रखने का प्रतीक थी।

    Mock Test Series

    Sponsor Area

    Sponsor Area

    NCERT Book Store

    NCERT Sample Papers

    Entrance Exams Preparation

    1