भारतीय इतिहास के कुछ विषय I Chapter 3 बंधुत्व जाति तथा वर्ग
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    NCERT Solution For Class 12 ������������������ भारतीय इतिहास के कुछ विषय I

    बंधुत्व जाति तथा वर्ग Here is the CBSE ������������������ Chapter 3 for Class 12 students. Summary and detailed explanation of the lesson, including the definitions of difficult words. All of the exercises and questions and answers from the lesson's back end have been completed. NCERT Solutions for Class 12 ������������������ बंधुत्व जाति तथा वर्ग Chapter 3 NCERT Solutions for Class 12 ������������������ बंधुत्व जाति तथा वर्ग Chapter 3 The following is a summary in Hindi and English for the academic year 2021-2022. You can save these solutions to your computer or use the Class 12 ������������������.

    Question 1
    CBSEHHIHSH12028266

    स्पष्ट कीजिए कि विशिष्ट परिवारों में पितृवंशिकता क्यों महत्त्वपूर्ण रही होगी?

     

    Solution

    पितृवंशिकता वह पारिवारिक परंपरा है जिसमें वंश परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि की ओर चलती है। इसमें परिवार की संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र ही होते हैं। राजाओं के संदर्भ में सिंहासन के उत्तराधिकारी पुत्र ही थे।
    ब्राह्मण ग्रंथों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में पितृवंशिकता का 'आदर्श' स्थापित हो चुका था। ऋग्वेद में भी इन्द्र जैसे वीर पुत्र की कामना की गई है। विशिष्ट उच्च परिवारों में पितृवंशिकता और भी अधिक महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि उनमें भूमि और सत्ता के स्वामित्व का प्रश्न महत्त्वपूर्ण होता था। महाभारत का युद्ध सत्ता और साधनों के प्रश्न को लेकर ही हुआ था। इस युद्ध में पांडव और कौरव दोनों चचेरे परिवार थे। जीत पांडवों की हुई तो ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर को शासक घोषित किया गया। इससे पितृवंशिकता का आदर्श और भी सुदृढ़ हुआ। पितृवंशिकता के अपवाद यदा-कदा ही मिलते हैं। जैसे कि पुत्र के न होने पर भाई या फिर चचेरा भाई राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लेता था । कुछ विशेष परिस्थितियों में औरतें भी सत्ता की उत्तराधिकारी बनीं।

    Question 2
    CBSEHHIHSH12028267

    क्या आरंभिक राज्यों में शासक निश्चित रूप से क्षत्रिय ही होते थे? चर्चा कीजिए।

    Solution

    वर्ण व्यवस्था केअनुसार समाज की रक्षा का दायित्व और शासक बनने का अधिकार क्षत्रियों के पास था। परंतु हम देखते हैं कि आरंभिक राज्यों में सभी शासक क्षत्रिय वंश से नहीं थे। बहुत-से-गैर-क्षत्रिय शासक वंशों का भी पता चलता है। उदाहरण केलिए ह्वेनसांग के समय उज्जैन व महेश्वरपुर के शासक ब्राह्मण थे। चन्द्रगुप्त मौर्य को भी ब्राह्मण ग्रंथों (पुराणों) में शूद्र बताया गया जबकि बौद्ध ग्रंथ उसे क्षत्रिय मानते हैं। मौर्यों के बाद शुंग व कण्व ब्राह्मण शासक बने। गुप्तवंश के शासक तथा हर्षवर्धन भी संभवत: वैश्य थे। इनकेअतिरिक्त प्राचीन काल में बाहर से आने वाले बहुत-से आक्रमणकारी शासक (शक, कुषाण इत्यादि) भी क्षत्रिय, नहींथे। दक्कन भारत के सातवाहन शासक भी स्वयं को ब्राह्मण मानते थे। अत: स्पष्ट है कि भारत में आरम्भिक राज्यों में सभी शासक संभवत: क्षत्रिय नहीं थे।

    Question 3
    CBSEHHIHSH12028268

    द्रोण, हिडिम्बा और मातंग की कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना कीजिए तथा उनके अंतर को भी स्पष्ट कीजिए।

    Solution

    महाभारत के आदिपर्व में द्रोण व हिडिम्बा की तथा जातक ग्रंथ में बोधिसत्त्व मातंग की कथा मिलती है। तीनों कथाओं में धर्म के मानदंडों की तुलना बड़ी रुचिकर है। भारतीय संदर्भ में धर्म की व्याख्या वर्ण-कर्त्तव्य पालन के संदर्भ में की गई है। ब्राह्मण ग्रंथों में वर्ण-धर्म के पालन पर अत्यधिक बल दिया गया है। उसे 'उचित' सामाजिक कर्त्तव्य बताया गया है।

    द्रोण की कथा में एकलव्य निषाद जाति से था जिसे वर्ण-धर्म के अनुसार धनुर्विद्या सीखने का अधिकार नहीं था। इसलिए गुरुद्रोण ने उसे शिक्षा देने से इंकार कर दिया था । फिर भी एकलव्य ने यह विद्या अपनी लगन से प्राप्त की। गुरु द्रोण ने गुरु दक्षिणा में दायें हाथ का अंगूठा लिया। स्पष्ट है कि इस कथा के माध्यम से निषादों को धर्म का संदेश दिया जा रहा था । दूसरी कथा हिडिम्बा-भीम की है जिसमें भीम ने वर्ण-धर्म का पालन करते हुए वनवासी लड़की (हिडिम्बा) के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया था । लेकिन इसमें भी प्रचलित परंपरा से हटने का आभास मिलता है जब युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई भीम (उच्च कुल) को निम्न कुल से संबंधित हिडिम्बा के साथ विवाह की अनुमति दे दी थी।

    तीसरी कथा मातंग की है जिसका जन्म चाण्डाल के घर में हुआ था । जिसे देखकर मांगलिक नामक व्यापारी की बेटी (दिथ्य) चिल्लाने लगी कि उसने 'अशुभ' देख लिया है। मातंग को मारा पीटा गया परंतु उसने हार माननेकी बजाय विरोध स्वरूप 'मरण व्रत' धारण कर लिया। वस्तुत: यह कथा ब्राह्माणिक धर्म परंपरा के विरोध का उदाहरण है। यह विरोध मातंग के इन शब्दों में स्पष्ट झलकता है, ''जिन्हें अपने जन्म पर गर्व है पर अज्ञानी हैं, वे भेंट के पात्र नहीं हैं। इसके विपरीत जो दोषमुक्त हैं, वे भेंट के योग्य हैं। ''
    अत: तीनों कथाओं में वर्ण-धर्म के पालन करने पर बल दिया गया है, परंतु साथ ही इस धर्म के विरुद्ध विरोध का स्वर स्पष्ट झलकता है।

    Question 4
    CBSEHHIHSH12028269

    किन मायनों में सामाजिक अनुबंध की बौद्ध अवधारणा समाज के उस ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से भिन्न थी जो 'पुरुषसूक्त' पर आधारित था।

    Solution

    ब्राह्मण ग्रंथों में ऋग्वेद के 'पुरुष सूक्त' पर आधारित सामाजिक विषमताओं की व्याख्या मिलती है। इस व्याख्या में वर्ण व जाति को ईश्वरीय बताया गया है। इसमें सामाजिक भेदभाव निहित था। बौद्ध ग्रंथों में इसके विपरीत सामाजिक विषमताओं (भेदभावों) को ईश्वर की देन या पुनर्जन्म का परिणाम नहीं माना गया है। उनके अनुसार ये भेदभाव सदैव से नहीं थे। प्रारम्भ में मानव सहित सभी जीव शान्ति की अवस्था में रहते थे। इनमें कोई मेरा-तेरा नहीं था, न कोई अमीर व न कोई गरीब था। संग्रह की प्रवृत्ति भी नहीं थी । यह व्यवस्था पतन की ओर तब बढ़ने लगी जब मानव में लालसा, मक्कारी और संचय जैसी भावनाएँ पैदा हुईं। ऐसी स्थिति में सामाजिक भेदभावों का उदय हुआ।

    सामाजिक भेदभावों को दूर करने के लिए बौद्ध ग्रंथों में एक सामाजिक अनुबंध की व्याख्या मिलती है, जिसके अनुसार सब लोगों ने मिलकर राजपद स्थापित किया। ऐसे व्यक्ति (राजा) को यह अधिकार दिया कि वह अपराधी को सजा दे। इस प्रकार बौद्ध व्याख्या में राजपद ईश्वरीय नहीं माना गया, जैसा कि ब्राह्मण ग्रंथ मानते है बल्कि इसे एक सामाजिक समझौता (अनुबंध) माना गया।

    Question 5
    CBSEHHIHSH12028270

    निम्नलिखित अवतरण महाभारत से है जिसमें ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर दूत संजय को संबोधित कर रहे हैं:

    संजय धृतराष्ट्र गृह के सभी ब्राह्यणों और मुख्य पुरोहित को मेरा विनीत अभिवादन दीजिएगा। मैं गुरु द्रोण के सामने नतमस्तक होता हूँ.... मैं कृपाचार्य के चरण स्पर्श करता हूँ:.... (और) कुरु वंश के प्रधान भीष्म के। मैं वृद्ध राजा (धृतराष्ट्र) को नमन करता हूँ। मैं उनके पुत्र दुर्योधन और उनके अनुजों के स्वास्थ्य के बारे में पूछता हूँ तथा उनको शुभकामनाएं देता हूँ .. मैं उन सब युवा कुरु योद्धाओं का अभिनंदन करता हूँ जो हमारे भाई, पुत्र और पौत्र हैं.... सर्वोपरि मैं उन महामति विदुर को (जिनका जन्म दासी से हुआ है) नमस्कार करता हूँ जो हमारे पिता और माता के सदृश हैं.... मैं उन सभी वृद्धा स्त्रियों को प्रणाम करता हूँ जो हमारी माताओं के रूप में जानी जाती हैं। जो हमारी पत्नियाँ हैं उनसे यह कहिएगा कि, ''मैं आशा करता हूँ की वे सुरक्षित हैं''..... मेरी ओर से उन कुलवधुओं का जो उत्तम परिवारों में जन्मी हैं और बच्चों की माताएँ हैं, अभिनंदन कीजिएगा तथा हमारी पुत्रियों का आलिंगन कीजिएगा......सुन्दर, सुंगंधित, सुवेशित गणिकाओं को शुभकामनाएँ दीजिएगा। दासियों और उनकी संतानों तथा वृद्ध, विकलांग और असहाय जनों को भी मेरी ओर से नमस्कार कीजिएगा.......

    इस सूची को बनाने के आधारों की पहचान कीजिए - उम्र, लिंग, भेद व बंधुत्व के सन्दर्भ में। क्या कोई अन्य आधार भी हैं? प्रत्येक श्रेणी के लिए स्पष्ट कीजिए कि सूची में उन्हें एक विशेष स्थान पर क्यों रखा गया हैं?

    Solution

    इस अवतरण में जेष्ठ पांडव युधिष्ठिर आयु, लिंग-भेद और बंधुत्व के अतिरिक्त समाज में स्थिति, ज्ञान के आधार पर संबोधन करते हैं। संबोधन की सूची में वर्ण व्यवस्था द्वारा स्थापित मानदंडों का विशेष ध्यान रखा गया है। उदाहरण के लिए सबसे पहले ब्राह्मणों और मुख्य पुरोहित का अभिवादन किया गया है। गुरु द्रोण एवं कृपाचार्य को चरण स्पर्श कहा गया है फिर कुरु वंश के प्रमुख भीष्म पितामह और फिर धृतराष्ट्र के प्रति सम्मान व्यक्त किया गया है। दुर्योधन और अन्य कुरु योद्धाओं को शुभकामनाएं दी गई हैं। तत्पश्चात महामति विदुर(दासीपुत्र) का आदर पूर्वक अभिवादन किया गया है। इसके बाद महिलाओं को सूची में शामिल किया गया है जो पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता को दर्शाता है। इसके बाद गणिकाओं और सबसे अंत में वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले स्तर पर स्थित दस -दसियों को शामिल किया गया है। इसके साथ विकलांग व असहाय को रखा गया है।

    स्पष्ट है कि सामाजिक स्थिति के अनुरूप बनाए गए मानदंडों के कारण ही सूची में विभिन्न लोगों को स्थान दिया गया है।

    Question 6
    CBSEHHIHSH12028271

    भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार मोरिस विंटरविट्ज़ ने महाभारत के बारे में लिखा था कि: चूँकि महाभारत संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है........ बहुत सारी और अनेक प्रकार की चीजें इसमें निहित हैं...... वह भारतीयों की आत्मा की अगाध गहराई को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।' चर्चा कीजिए।

    Solution

    महाभारत एक विस्तृत महाकाव्य है। इसकी मूल कथा कौरवों और पांडवों के बीच सत्ता और साधनों को लेकर लड़े गए युद्ध से संबंधित है। चूँकि यह एक गतिशील ग्रंथ रहा है इसलिए इसमें इस मूल कथा के साथ-साथ अन्य कथाएँ मिथक और घटनाक्रम जुड़ते गए। इसमें बहुत-से उपदेश भी हैं। विद्वानों का विचार है कि लगभग 1000 वर्षों (500 ई०पू० से 500 ई०) में यह ग्रंथ संपूर्ण हुआ है। शुरू में इसमें मात्र 8800 श्लोक थे और जयस यानी विजय संबंधी ग्रंथ कहलाता था। कालांतर में यह लगभग 24000 श्लोकों के साथ भारत नाम से जाना गया। अन्तत: यह महाभारत कहलाया। अब इसमें लगभग एक लाख श्लोक हैं।
    चूँकि महाभारत दीर्घ अवधि में रचा और लिखा गया है, इसलिए इसमें भारतीय समाज के अनेक पक्ष शामिल होते गए। आर्यों के उत्तर भारत में विस्तार के बाद मध्य और दक्षिणी भारत में उनका फैलाव हुआ तो उनके इस ग्रंथ में भी अनेक सामाजिक,आर्थिक, राजनीतिक व धार्मिक पक्ष जुड़ते गए। यह ग्रंथ मात्र आर्यों का नहीं रह गया। आर्य लोगों का भारत में बसने वाले अन्य जन-जातियों और कबीलों से समायोजन हुआ, तो इन लोगों के सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्ष भी इसमें जुड़ते गए । इस प्रकार मौरिस विन्टरविट्ज़ का यह निष्कर्ष उचित है कि 'महाभारत संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है। '

    उनका यह वाक्य और भी सारगर्भित है कि यह ग्रंथ 'भारतीयों की आत्मा की अगाध गहराई को एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। ' इसका अर्थ है कि इस ग्रंथ में मात्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पक्षों का ही वर्णन नहीं है बल्कि नैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और गहन दार्शनिक विवेचन भी है। उदाहरण के लिए इस ग्रंथ का महत्त्वपूर्ण भाग श्रीमद् भगवतगीता को लें जो संपूर्ण भारतीय दर्शन का निचोड़ है। इसमें मोक्ष प्राप्ति के तीनों मार्गों-ज्ञान, कर्म और भक्ति का अद् भुत समन्वय मिलता है।

    भारतीय समाज की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता वर्ण व जाति व्यवस्था रही है। इस व्यवस्था के नैतिक और सामाजिक आदर्शों को महाभारत ग्रंथ ने विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है। यहाँ तक कि उपदेशों के माध्यम से भी उन्हें व्यक्त किया है। उदाहरण के लिए एकलव्यगाथा, जिसमें वर्ण-धर्म की पालना का उपदेश दिया गया है। अत: संक्षेप में कहा जा सकता है कि महाभारत में भारतीयों के सामाजिक जीवन का सार मिलता है। इसलिए यह संपूर्ण साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है।

    Question 7
    CBSEHHIHSH12028272

    क्या यह संभव है कि महाभारत का एक ही रचयिता था? चर्चा कीजिए।

    Solution

    महाभारत के रचनाकार के विषय में भी इतिहासकार एकमत नहीं हैं। जनश्रुतियों के अनुसार महर्षि व्यास ने इस ग्रंथ को श्रीगणेश जी से लिखवाया था। परंतु आधुनिक विद्वानों का विचार है कि इसकी रचना किसी एक लेखक द्वारा नहीं हुई। वर्तमान में इस ग्रंथ में एक लाख श्लोक हैं लेकिन शुरू में इसमें मात्र 8800 श्लोक ही थे। दीर्घकाल में रचे गए इन श्लोकों का रचयिता कोई एक लेखक नहीं हो सकता । इतिहासकार मानते हैं कि इसकी मूल गाथा के रचयिता भाट सारथी थे, जिन्हें सूत कहा जाता था। यह 'सूत' क्षत्रिय योद्धाओं के साथ रणक्षेत्र में जाते थेऔर उनकी विजयगाथाएँ रचते थे। विजयों का बखान करने वाली यह कथा परंपरा मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलती रही। इतिहासकारों का अनुमान है कि पाँचवीं शताब्दी ई०पू० से इस कथा परंपरा को ब्राह्मण लेखकों ने अपनाकर इसे और विस्तार दिया। साथ ही इसे लिखित रूप भी दिया । यही वह समय था जब उत्तर भारत में क्षेत्रीय राज्यों और राजतंत्रों का उदय हो रहा था । कुरु और पांचाल, जो महाभारत कथा के केंद्र बिंदु हैं, भी छोटे सरदारी राज्यों से बड़े राजतंत्रों के रूप में उभर रहे थे। संभवत: इन्हीं नई परिस्थितियों में महाभारत की कथा में कुछ नए अंश शामिल हुए। यह भी संभव है कि नए राजा अपने इतिहास को नियमित रूप से लिखवाना चाहते हों।

    जैसे-जैसे आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ बदलती गईं, महाभारत की मूल गाथा में उनके अनुरूप नए अंश जुड़ते गए। महाभारत ज्ञान का एक अपूर्व खजाना बनता गया। धर्म, दर्शन और उपदेश इत्यादि अंश मूल कथा के साथ जुड़कर महाभारत एक विशाल ग्रंथ बनता गया। इस ग्रंथ की रचना का एक और महत्त्वपूर्ण चरण लगभग 200 ई०पू० से 200 ईसवी के बीच शुरू हुआ। यह वही चरण था जिसमें आराध्य देव के रूप में विष्णु की महत्ता बढ़ रही थी। श्रीकृष्ण, जो इस महाकाव्य के महानायकों में से एक थे, को भगवान श्री विष्णु के अवतार के रूप में स्वीकार किया गया। इस प्रकार लगभग 1000 वर्ष से भी अधिक अवधि में यह ग्रंथ अपना वृहत् रूप धारण कर पाया। इससे यह भी स्पष्ट है कि इसकी रचना करने.में एक से अधिक विद्वानों का योगदान है।

    Question 8
    CBSEHHIHSH12028273

    आरंभिक समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों की विषमताएँ कितनी महत्त्वपूर्ण रही होंगी? कारण सहित उत्तर दीजिए।

    Solution

    आरंभिक भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों में भेदभाव (विषमताएँ) था। ब्राह्मण ग्रंथों से यह स्पष्ट है कि समाज में पितृवंशिकता का 'आदर्श' स्थापित हो चुका था। इसमें वंश परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र और प्रपौत्र आदि की ओर चलती थी। प्रारंभिक वैदिक साहित्य में औरत के प्रति सम्मान तो झलकता है, फिर भी पुरुषों को समाज में अधिक महत्त्व प्राप्त था । ऋग्वेद में पुत्र-कामना को प्राथमिकता दी गई। विशेषत: इंद्र जैसे वीर पुत्र की कामना की गई । उदाहरण के लिए ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा गया है कि 'मैं इसे(बेटी) यहाँ से यानी पिता के घर से मुक्त करता हूँ किंतु वहाँ(पति केघर) से नहीं। मैंने इसे वहाँ मजबूती से स्थापित किया है जिससे इंद्र के अनुग्रह से इसके उत्तम पुत्र हों और पति के प्रेम का सौभाग्य इसे प्राप्त हो।

    शासक वर्गों में सिंहासन के उत्तराधिकारी भी पुत्र थे। उपनिषदों में पिता केआध्यात्मिक पुण्य का उत्तराधिकारी पुत्र को बताया गया अर्थात् पुत्र की उत्पत्ति किसी परिवार के लिए धर्म के अनुसार भी आवश्यक हो गई । फलत: सामान्य लोग भी इसी परंपरा से जुड़ते गए । इससे पितृवंशिक परंपरा समाज की एक आदर्श पंरपरा बन गई । महाभारत के युद्ध में भी पांडवों के विजयी होने के उपरांत युधिष्ठिर को शासक घोषित किया गया । इससे पितृवंशिकता का आदर्श और भी सुदृढ़ हुआ। वस्तुत: इस आदर्श के अपवाद यदा-कदा ही मिलते हैं। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही कुछ महिलाएँ सत्ता की उत्तराधिकारी बनी हैं। जैसे कि प्रभावती गुप्त का शासिका बननेका उदाहरण मिलता है।

    विवाह प्रणाली में भी स्त्री-पुरुष के संबंधों में भेदभाव स्पष्ट झलकता है। गोत्र-बहिर्विवाह प्रणाली में पिता अपनी पुत्री का विवाह एक 'योग्य' युवक से कन्यादान संस्कार को संपन्न करता हुआ करता था । 'कन्यादान' का अर्थ कहीं-न-कहीं चेतन या अचेतन रूप में स्त्री को वस्तुसम मान लेना रहा है। प्राय: छोटी उम्र में ही लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था। विशेषत: ऊँची प्रतिष्ठा वाले परिवारों (ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि) में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में और भी खराब थी। उच्च या शासक परिवारों में बहू-पत्नी विवाह का प्रचलन था।

    अधिकांश धर्मशास्त्र पति व पिता की संपत्ति में औरत की हिस्सेदारी को स्वीकार नहीं करते हैं। पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र थे। स्वाभाविक तौर पर इससे समाज में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में गौण हो गई। परिवार में औरत का अधिकार केवल उसे उपहार से प्राप्त धन (स्त्रीधन) पर ही था। अन्य किसी तरीके से अर्जित धन पर औरत का स्वामित्व नहींथा । कुलीन परिवारों में भी, जहाँ साधनों की कमी नहीं थी, औरत की स्थिति गौण ही रही, बल्कि पुरुष नियंत्रण ऐसे परिवारों में और भी अधिक होता था। सातवाहन (दक्कन में) शासकों की सूची से आभास मिलता है कि उनमें पिता की अपेक्षा माताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण थीं क्योंकि शासकों को मातृनाम से (जैसे गौतमी-पुत्त सिरी-सातकणि) जाना गया। परंतु हमें यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि सातवाहन शासकों में भी राजसिंहासन की उत्तराधिकारी महिलाएं नहीं बल्कि पुरुष ही बनें।

    Question 9
    CBSEHHIHSH12028274

    उन साक्ष्यों की चर्चा कीजिए जो यह दर्शाते हैं कि बंधुत्व और विवाह संबंधी बाद्यणीय नियमों का सर्वत्र अनुसरण नहीं होता था।

    Solution

    बंधुत्व और विवाह संबंधी नियम ब्राह्मण ग्रंथों में मिलते हैं। इन ग्रंथों के लेखकों का यह विश्वास था कि इन नियमों के निर्धारण में उनका दृष्टिकोण सार्वभौमिक था। इन नियमों का पालन सभी स्थानों पर सभी के द्वारा होना चाहिए परंतु व्यवहार में ऐसा नहीं था। व्यवहार में तो जब इन नियमों की उल्लंघना होने लगी थी तभी तो ब्राह्मण विधि ग्रंथों (जैसे कि मनुस्मृति, नारदस्मृति या अन्य ग्रंथ) की जरूरत महसूस हुई और उनकी रचना की गई। इन ग्रंथों में बंधुत्व व विवाह संबंधी नियमों की उल्लंघना करने वालों के लिए दंड का विधान बताया गया था।

    भारत एक उपमहाद्वीप है। इसकेविशाल भू-भाग में अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएँ विद्यमान थीं। सामाजिक संबंधों में अनेक जटिलताएँ थीं। संचार केसाधन अविकसित थे। एक स्थान से दूसरे स्थान पर आना-जाना आसान नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में ब्राह्मणीय नियम सार्वभौमिक नहीं बन सकते थे। ब्राह्मणीय नियमों के अनुसार चचेरे, मौसेरे व ममेरे आदि भाई-बहनों में रक्त संबंध होने के कारण विवाह वर्जित था। परंतु यह नियम दक्षिण भारत के अनेक समुदायों में प्रचलित नहीं था। उत्तर भारत में भी सर्वत्र रूप से इनका अनुसरण नहीं होता था। आश्वलायन गृहसूत्र में विवाह केआठ प्रकारों के बारे में पता चलता है। स्पष्ट है कि विवाह के नियम एक जैसे नहीं थे। इन विवाहों में से पहले चार विवाहों (ब्रह्म, देव, आर्ष व प्रजापत्य) को ही उत्तम माना गया। उन्हें धर्मानुकूल और आदर्श बताया गया। जबकि असुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों को अच्छा नहीं माना गया, परंतु ये प्रचलन में तो थे। यह इस बात का प्रमाण है कि ब्राह्मणीय नियमों से बाहर विवाह प्रथाएँ अस्तित्व में थीं।

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