किन मायनों में सामाजिक अनुबंध की बौद्ध अवधारणा समाज के उस ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से भिन्न थी जो 'पुरुषसूक्त' पर आधारित था।
ब्राह्मण ग्रंथों में ऋग्वेद के 'पुरुष सूक्त' पर आधारित सामाजिक विषमताओं की व्याख्या मिलती है। इस व्याख्या में वर्ण व जाति को ईश्वरीय बताया गया है। इसमें सामाजिक भेदभाव निहित था। बौद्ध ग्रंथों में इसके विपरीत सामाजिक विषमताओं (भेदभावों) को ईश्वर की देन या पुनर्जन्म का परिणाम नहीं माना गया है। उनके अनुसार ये भेदभाव सदैव से नहीं थे। प्रारम्भ में मानव सहित सभी जीव शान्ति की अवस्था में रहते थे। इनमें कोई मेरा-तेरा नहीं था, न कोई अमीर व न कोई गरीब था। संग्रह की प्रवृत्ति भी नहीं थी । यह व्यवस्था पतन की ओर तब बढ़ने लगी जब मानव में लालसा, मक्कारी और संचय जैसी भावनाएँ पैदा हुईं। ऐसी स्थिति में सामाजिक भेदभावों का उदय हुआ।
सामाजिक भेदभावों को दूर करने के लिए बौद्ध ग्रंथों में एक सामाजिक अनुबंध की व्याख्या मिलती है, जिसके अनुसार सब लोगों ने मिलकर राजपद स्थापित किया। ऐसे व्यक्ति (राजा) को यह अधिकार दिया कि वह अपराधी को सजा दे। इस प्रकार बौद्ध व्याख्या में राजपद ईश्वरीय नहीं माना गया, जैसा कि ब्राह्मण ग्रंथ मानते है बल्कि इसे एक सामाजिक समझौता (अनुबंध) माना गया।