आरंभिक समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों की विषमताएँ कितनी महत्त्वपूर्ण रही होंगी? कारण सहित उत्तर दीजिए।
आरंभिक भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के संबंधों में भेदभाव (विषमताएँ) था। ब्राह्मण ग्रंथों से यह स्पष्ट है कि समाज में पितृवंशिकता का 'आदर्श' स्थापित हो चुका था। इसमें वंश परंपरा पिता से पुत्र फिर पौत्र और प्रपौत्र आदि की ओर चलती थी। प्रारंभिक वैदिक साहित्य में औरत के प्रति सम्मान तो झलकता है, फिर भी पुरुषों को समाज में अधिक महत्त्व प्राप्त था । ऋग्वेद में पुत्र-कामना को प्राथमिकता दी गई। विशेषत: इंद्र जैसे वीर पुत्र की कामना की गई । उदाहरण के लिए ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा गया है कि 'मैं इसे(बेटी) यहाँ से यानी पिता के घर से मुक्त करता हूँ किंतु वहाँ(पति केघर) से नहीं। मैंने इसे वहाँ मजबूती से स्थापित किया है जिससे इंद्र के अनुग्रह से इसके उत्तम पुत्र हों और पति के प्रेम का सौभाग्य इसे प्राप्त हो।
शासक वर्गों में सिंहासन के उत्तराधिकारी भी पुत्र थे। उपनिषदों में पिता केआध्यात्मिक पुण्य का उत्तराधिकारी पुत्र को बताया गया अर्थात् पुत्र की उत्पत्ति किसी परिवार के लिए धर्म के अनुसार भी आवश्यक हो गई । फलत: सामान्य लोग भी इसी परंपरा से जुड़ते गए । इससे पितृवंशिक परंपरा समाज की एक आदर्श पंरपरा बन गई । महाभारत के युद्ध में भी पांडवों के विजयी होने के उपरांत युधिष्ठिर को शासक घोषित किया गया । इससे पितृवंशिकता का आदर्श और भी सुदृढ़ हुआ। वस्तुत: इस आदर्श के अपवाद यदा-कदा ही मिलते हैं। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही कुछ महिलाएँ सत्ता की उत्तराधिकारी बनी हैं। जैसे कि प्रभावती गुप्त का शासिका बननेका उदाहरण मिलता है।
विवाह प्रणाली में भी स्त्री-पुरुष के संबंधों में भेदभाव स्पष्ट झलकता है। गोत्र-बहिर्विवाह प्रणाली में पिता अपनी पुत्री का विवाह एक 'योग्य' युवक से कन्यादान संस्कार को संपन्न करता हुआ करता था । 'कन्यादान' का अर्थ कहीं-न-कहीं चेतन या अचेतन रूप में स्त्री को वस्तुसम मान लेना रहा है। प्राय: छोटी उम्र में ही लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था। विशेषत: ऊँची प्रतिष्ठा वाले परिवारों (ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि) में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में और भी खराब थी। उच्च या शासक परिवारों में बहू-पत्नी विवाह का प्रचलन था।
अधिकांश धर्मशास्त्र पति व पिता की संपत्ति में औरत की हिस्सेदारी को स्वीकार नहीं करते हैं। पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र थे। स्वाभाविक तौर पर इससे समाज में स्त्री की स्थिति पुरुष की तुलना में गौण हो गई। परिवार में औरत का अधिकार केवल उसे उपहार से प्राप्त धन (स्त्रीधन) पर ही था। अन्य किसी तरीके से अर्जित धन पर औरत का स्वामित्व नहींथा । कुलीन परिवारों में भी, जहाँ साधनों की कमी नहीं थी, औरत की स्थिति गौण ही रही, बल्कि पुरुष नियंत्रण ऐसे परिवारों में और भी अधिक होता था। सातवाहन (दक्कन में) शासकों की सूची से आभास मिलता है कि उनमें पिता की अपेक्षा माताएँ अधिक महत्त्वपूर्ण थीं क्योंकि शासकों को मातृनाम से (जैसे गौतमी-पुत्त सिरी-सातकणि) जाना गया। परंतु हमें यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि सातवाहन शासकों में भी राजसिंहासन की उत्तराधिकारी महिलाएं नहीं बल्कि पुरुष ही बनें।