भारतीय इतिहास के कुछ विषय I Chapter 2 राजा किसान और नगर
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    NCERT Solution For Class 12 ������������������ भारतीय इतिहास के कुछ विषय I

    राजा किसान और नगर Here is the CBSE ������������������ Chapter 2 for Class 12 students. Summary and detailed explanation of the lesson, including the definitions of difficult words. All of the exercises and questions and answers from the lesson's back end have been completed. NCERT Solutions for Class 12 ������������������ राजा किसान और नगर Chapter 2 NCERT Solutions for Class 12 ������������������ राजा किसान और नगर Chapter 2 The following is a summary in Hindi and English for the academic year 2021-2022. You can save these solutions to your computer or use the Class 12 ������������������.

    Question 1
    CBSEHHIHSH12028257

    आरंभिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाणों की चर्चा कीजिए। हड़प्पा के नगरों के प्रमाण से ये प्रमाण कितने भिन्न हैं?

    Solution

    आरंभिक ऐतिहासिक नगरोंका उदय छठी सदी ई०पू० में हुआ। इनके शिल्प उत्पाद निम्नलिखित प्रकार से थे:

    1. इस काल में मिट्टी के उत्तम श्रेणी के कटोरे व थालियाँ बनाई जाती थीं। इन बर्तनों पर चिकनी कलई चढ़ी होती थी । इन्हें उत्तरी काले पॉलिश मृदभांड (N.B.P.W.) के नाम से जाना जाता है।
    2. नगरों में लोहे के उपकरण, सोने, चाँदी के गहने, लोहे के हथियार, बर्तन (कांस्य व ताँबे के), हाथी दाँत का सामान, शीशे, शुद्ध व पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ भी बनाई जाती थीं।
    3. भूमि अनुदान पत्रों से जानकारी मिलती है कि नगरों में वस्त्र बनाने का कार्य, बढ़ई का कार्य, आभूषण बनाने का कार्य, मृदभांड बनाने का कार्य, लोहे के औजार, उपकरण बनाने का कार्य होता था ।

    हड़प्पा के नगरों से तुलना: हड़प्पा के शिल्प उत्पादों तथा आरंभिक ऐतिहासिक नगरों के शिल्प उत्पादों में काफी भिन्नता पाई जाती है। हड़प्पा सभ्यता के शिल्प कार्यों में मनके बनाना, शंख की कटाई, धातु-कर्म, मुहर बनाना तथा बाट बनाना सम्मिलित थे। परंतु हड़प्पा केलोग लोहे के उपकरण नहीं बनाते थे। उनके उपकरण पत्थर, कांस्य व ताँबे के थे। दूसरी ओर, प्रारंभिक नगरों के लोग बड़ी मात्रा में लोहे के औजार, उपकरण और वस्तुएँ बनाते थे।

    Question 2
    CBSEHHIHSH12028258

    महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षणों का वर्णन कीजिए।

    Solution

    छठी सदी ई०पू० के बौद्ध और जैन ग्रंथों में हमें 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है। बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय में हमें इन राज्यों के नामों का उल्लेख मिलता हैं।


    विशिष्ट अभिलक्षण - इन महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षण निम्नलिखित प्रकार से हैं:

    1. अधिकांश जनपदों में राजतंत्रात्मक प्रणाली थी जिसमें राजा सर्वोच्च व वंशानुगत था, लेकिन निरंकुश नहीं था। मन्त्रिपरिषद् अयोग्य राजा को पद से हटा दिया करती थी।
    2. कुछ महाजनपदों में गणतंत्रीय व्यवस्था थी। इन्हें गण या संघ कहते थे। गणराज्यों का मुखिया 'गणमुख्य' कहलाता था। जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि शासन करते थे। ये 'राजन' (राजा) कहलाते थे। वह अपनी
      परिषद् के सहयोग से राज्य करता था। वस्तुत: इन गण राज्यों में कुछ लोगों के समूह का शासन होता था।
    3. प्रत्येक महाजनपद की अपनी राजधानी थी जिसकी किलेबंदी की जाती थी।
    4. इस काल में रचित धर्मशास्त्रों में शासक तथा लोगों के लिए नियमों का निर्धारण किया गया है। इन शास्त्रों में राजा को यह सलाह दी गई कि वह कृषकों, व्यापारियों और दस्तकारों से कर प्राप्त करे। पड़ोसी राज्य पर हमला कर धन लूटना या प्राप्त करना वैध उपाय बताया गया।
    5. धीरे-धीरे इनमें से कई राज्यों ने स्थायी सेना और नौकरशाही तंत्र का गठन कर लिया था परंतु कुछ राज्य अभी भी अस्थायी सेना पर निर्भर थे।

    Question 3
    CBSEHHIHSH12028259

    सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण इतिहासकार कैसे करते हैं ?

    Solution

    सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करने में इतिहासकारों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है क्योंकि सामान्य लोगों ने अपने विचारों और अनुभवों के संबंध में शायद ही कोई वृत्तांत छोड़ा हो। फिर भी इतिहासकार सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करने का प्रयास करते हैं क्योंकि इतिहास निर्माण में इन लोगों के द्वारा ही अहम् भूमिका निभाई गई । इस कार्य को पूरा करने के लिए इतिहास विभिन्न प्रकार के स्रोतों का सहारा लेते हैं।

    1. विभिन्न स्थानों पर खुदाई से अनाज के दाने तथा जानवरों की हड्डियाँ मिलती हैं जिससे यह पता चलता है कि वे किन फसलों से परिचित थे तथा किन पशुओं का पालन करते थे।
    2. भवनों और मृदभांडों से उनके घरेलू जीवन का पता चलता है।
    3. अभिलेखों से शिल्प उत्पादों का पता चलता है।
    4. भूमि अनुदान पत्रों से भी ग्रामीण जीवन की झांकी का पता चलता है। इनमें ग्राम के उत्पादन तथा ग्राम के वर्गों की जानकारी मिलती है।
    5. कुछ साहित्य भी सामान्य लोगों के जीवन पर प्रकाश डालता है। उदाहरण के लिए जातक कथाओं और पंचतंत्र की कहानियों से इस प्रकार के संदर्भ निकाले जाते हैं।
    6. विभिन्न ग्रंथों में नगरों में रहने वाले सर्वसाधारण लोगों का पता चलता है। इन लोगों में धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहार, छोटे व्यापारी आदि होते थे।

    Question 4
    CBSEHHIHSH12028260

    पांड् य सरदार (स्रोत 3) को दी जाने वाली वस्तुओं की तुलना दन्गुन गाँव (स्रोत 8) की वस्तुओं से कीजिए। आपको क्या समानताएँ और असमानताएँ दिखाई देती हैं?

    Solution

    पांड् य सरदार को भेंट की गई वस्तुओंकी जानकारी हमें शिल्पादिकारम् में दिए वर्णन से प्राप्त होती है तथा दंगुन गाँव वह गाँव है जिसे प्रभावती गुप्त ने एक भिक्षु को भूमि अनुदान में दिया था। इस अनुदान पत्र से हमें गाँव में पैदा होने वाली वस्तुओं की जानकारी मिलती है। पांड् य सरदार को प्राप्त वस्तुओं व दंगुन गाँव की वस्तुओं की सूची निम्नलिखित प्रकार से है:

    1. पहाड़ी लोग वाणिज्य के राजा के लिए हाथी दाँत, शहद, चंदन, सिंदूर के गोले, काजल, हल्दी, इलायची, काली मिर्च, कंद का आटा वगैरह भेंट लाए । उन्होंने राजा को बड़े नारियल, आम, दवाई में काम आने वाली हरी पत्तियों की मालाएँ, तरह-तरह के फल, प्याज, गन्ना, फूल, सुपारी के गुच्छे, पके केलों के गुच्छे, जानवरों व पक्षियों के बच्चे आदि का अर्पण किया ।
    2. दंगुन गाँव की वस्तुओं में घास, जानवरों की खाल, कोयला, मदिरा, नमक, खनिज-पदार्थ, खदिर वृक्ष के उत्पाद, फूल,दूध आदि सम्मिलित थे।

    समानताएँ:  दोनों सूचियों की वस्तुओं में बहुत कम समानता है। दोनों सूचियों में मात्र फूल का नाम पाया गया है। ऐसा लगता है कि पांड् य राजा भी उपहार मिलने.के बाद जानवरों की खाल का इस्तेमाल करते थे।

    असमानताएँ: इन दोनों सूचियों में अधिकतर असमानताएँ ही दिखाई देती हैं। वस्तुएँ प्राप्त करने के तरीकों में भी बहुत असमानताएँ दिखती हैं। एक और जहाँ पांड् य सरदार को लोग ख़ुशी से नाच गाकर वस्तुएँ भेंट कर रहे हैं तो दूसरी और दंगुन गाँव के लोगों को दान प्राप्तकर्ता को ये वस्तुएँ देनी ही पड़ती थीं। अनुदान पत्र से स्पष्ट है कि ऐसे करने के लिए वे बाध्य थे।

    Question 5
    CBSEHHIHSH12028261

    अभिलेखशास्त्रियों की कुछ समस्याओं की सूची बनाइए।

    Solution

    अभिलेखों के अध्ययनकर्त्ता तथा विश्लेषणकर्त्ता को अभिलेखशास्त्री कहते हैं। अपने कार्य के संपादन में अभिलेखशास्त्रियों को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है:

    1. अभिलेखशास्त्रियों को कभी-कभी तकनीकी सीमा का सामना करना पड़ता है। अक्षरों को हल्के ढंग से उत्कीर्ण किया जाता है जिन्हें पढ़ पाना कठिन होता है। कभी-कभी अभिलेखों के कुछ भाग नष्ट हो जाते हैं। इससे अक्षर लोप हो जाते हैं जिस कारण शब्दों/वाक्यों का अर्थ समझ पाना कठिन हो जाता है।
    2. कई अभिलेख विशेष स्थान या समय से संबंधित होते हैं, इससे भी हम वास्तविक अर्थ को नहीं समझ पाते।
    3. एक सीमा यह भी रहती है कि अभिलेखों में उनके उत्कीर्ण करवाने वाले के विचारों को बढ़ा-चढ़ाकर व्यक्त किया जाता है। अत: तत्कालीन सामान्य विचारों से इनका संबंध नहीं होता। फलत: कई बार ये जन-सामान्य के विचारों और कार्यकलापों पर प्रकाश नहीं डाल पाते। अत: स्पष्ट है कि सभी अभिलेख राजनीतिक और आर्थिक इतिहास की जानकारी प्रदान नहीं कर पाते।
    4. अनेक अभिलेखों का अस्तित्व नष्ट हो गया है या अभी प्राप्त नहीं हुए हैं। अत: अब तक जो अभिलेख प्राप्त हुए हैं वे कुल अभिलेखों का एक अंश हैं।
    5. अभिलेखशास्त्रियों को अनेक सूचनाएँअभिलेखों पर नहीं मिल पातीं। विशेष तौर पर जनसामान्य से जुड़ी गतिविधियों पर अभिलेखों में बहुत कम या नहीं के बराबर लिखा गया है।
    6. अभिलेखों में सदा उन्हीं के विचारों को व्यक्त किया जाता है जो उन्हें उत्कीर्ण करवाते हैं। ऐसे में अभिलेखशास्त्री को अत्यंत सावधानी तथा आलोचनात्मक अध्ययन से इनकी सूचनाओं को परखना जरूरी होता है।

    Question 6
    CBSEHHIHSH12028262

    मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। अशोक के अभिलेखों में इनमें से कौन-कौन से तत्त्वों के प्रमाण मिलते हैं?

    Solution

    मौर्य साम्राज्य भारत में प्रथम ऐतिहासिक साम्राज्य था। मगध महाजनपद ने अन्य जनपदों पर अधिकार स्थापित कर साम्राज्य का निर्माण किया। साम्राज्य की अवधारणा चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में फलीभूत हुई। बिंदुसार तथा सम्राट्अ शोक इस साम्राज्य के अन्य प्रमुख शासक रहे। मौर्य साम्राज्य के अभिलक्षणों की जानकारी हमें उस काल के ग्रंथों तथा अशोक के अभिलेखों से मिलती है। मौर्य साम्राज्य के प्रमुख अभिलक्षण निम्नलिखित प्रकार हैं:

    1. राजा: मौर्य राज्य भारत में प्रथम सर्वाधिक विस्तृत और शक्तिशाली साम्राज्य था । साम्राज्य में समस्त शक्ति का स्रोत सम्राट था । वास्तव में राजा और राज्य का भेद कम रह गया था। अर्थशास्त्र में लिखा है कि 'राजा ही राज्य' है। वह सर्वाधिकार संपन्न था। वह सर्वोच्च सेनापति व सर्वोच्च न्यायाधीश था।
    2. मंत्रि परिषद् चाणक्य ने कहा है, ''रथ केवल एक पहिए से नहीं चलता इसलिए राजा को मंत्रियों की नियुक्ति करनी चाहिए और उनकी सलाह के अनुसार कार्य करना चाहिए । मंत्रि परिषद् के सदस्यों को अमात्य कहा जाता था । सबसे प्रमुख मंत्री थे- प्रधानमंत्री, पुरोहित और सेनापति । समाहर्ता (वित्त मंत्री) और संधिधाता (कोषाध्यक्ष) अन्य महत्त्वपूर्ण मंत्री थे।'
    3. प्रांतीय प्रशासन-विस्तृत साम्राज्य को पाँच प्रांतों (राजनीतिक केंद्रों) में बाँटा हुआ था।
      1. उत्तरापथ - इसमें कम्बोज, गांधार, कश्मीर, अफगानिस्तान तथा पंजाब आदि के क्षेत्र शामिल थे। इसकी राजधानी तक्षशिला थी।
      2. पश्चिमी प्रांत - इसमें काठियावाड़ - गुजरात से लेकर राजपूताना-मालवा आदि के सभी प्रदेश शामिल थे। इसकी राजधानी उज्जयिनी थी।
      3. दक्षिणपथ-इसमें विंध्याचल से लेकर दक्षिण में मैसूर (कर्नाटक) तक सारा प्रदेश शामिल था। इसकी राजधानी सुबर्णगिरी थी।
      4. कलिंग- इसमें दक्षिण -पूर्व का उड़ीसा का क्षेत्र शामिल था, जिसमें दक्षिण की ओर जाने के महत्त्वपूर्ण स्थल व समुद्री मार्ग थे। इसकी राजधानी तोशाली थी।
      5. प्राशी (पूर्वी प्रदेश)-इसमें मगध तथा समस्त उत्तरी भारत का प्रदेश था। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। यह प्रदेश पूर्ण रूप से सम्राट् के नियंत्रण में ही था। 
        प्रांतों का शासन-प्रबन्ध राजा का प्रतिनिधि (वायसराय) करता था, जिसे कुमार या आर्यपुत्र कहते थे।
    4. नगर का प्रबन्ध: मैगस्थनीज़ केअनुसार नगर का प्रशासन 30 सदस्यों की एक परिषद् करती थी, जो 6 उपसमितियों में विभाजित थी।
      1. पहली समिति - यह शिल्प उद्योगों का निरीक्षण करती थी । शिल्पकारों के अधिकारों की रक्षा भी करती थी।
      2. दूसरी समिति- यह विदेशी अतिथियों का सत्कार, उनके आवास का प्रबंध तथा उनकी गतिविधियों पर नज़र रखने का कार्य करती थी। उनकी चिकित्सा का प्रबंध भी करती थी।
      3. तीसरी समिति - यह जनगणना तथा कर निर्धारण के लिए, जन्म-मृत्यु का ब्यौरा रखती थी।
      4. चौथी समिति-यह व्यापार की देखभाल करती थी। इसका मुख्य काम तौल के बट्टों तथा माप के पैमानों का निरीक्षण तथा सार्वजनिक बिक्री का आयोजन यानी बाजार लगवाना था।
      5. पाँचवीं समिति- यह कारखानों और घरों में बनाई गई वस्तुओं के विक्रय का निरीक्षण करती थी। विशेषत: यह ध्यान रखती थी कि व्यापारी नई और पुरानी वस्तुओंको मिलाकर न बेचें। ऐसा करने पर दण्ड की व्यवस्था थी।
      6. छठी समिति- इसका कार्य बिक्री कर वसूलना था। जो वस्तु जिस कीमत पर बेची जाती थी, उसका दसवां भाग बिक्री कर के रूप में दुकानदार से वसूला जाता था । यह कर न देने पर मृत्यु दण्ड की व्यवस्था थी।
    5. असमान शासन व्यवस्था: मौर्य साम्राज्य अति विशाल साम्राज्य था । साम्राज्य में शामिल क्षेत्र बड़े विविध और  भिन्न-भिन्न प्रकार के थे। इसमें अफगानिस्तान का पहाड़ी क्षेत्र शामिल था, वहीं उड़ीसा जैसा तटवर्ती क्षेत्र भी था। स्पष्ट है कि इतने बड़े तथा विविधताओं से भरपूर साम्राज्य का प्रशासन एक-समान नहीं होगा।
    6. आवागमन की सुव्यवस्था: साम्राज्य के संचालन के लिए भू-तल और नदी मार्गों से आवागमन होता था। इनकी सुव्यवस्था की जाती थी। राजधानी से प्रांतों तक पहुँचने में भी समय लगता था। अत: मार्ग में ठहरने व खान-पान की व्यवस्था की जाती थी। अशोक ने मार्गों पर सराएँ बनवाईं, कुएँ खुदवाए तथा पेड़ लगवाए।

    Question 7
    CBSEHHIHSH12028263

    यह बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री, डी सी. सरकार का वक्तव्य है: भारतीयों के जीवन, संस्कृति और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसका प्रतिबिंब अभिलेखों में नहीं है: चर्चा कीजिए।

    Solution

    सुप्रसिद्ध अभिलेखशास्त्री डी०सी० सरकार ने मत व्यक्त किया है कि अभिलेखों से भारतीयों के जीवन, संस्कृति और सभी गतिविधियों से संबंधित सभी प्रकार की जानकारी प्राप्त होती है।अभिलेखों से मिलने वाली जानकारी का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से है:

    1. शासकों के नाम-अभिलेखों से हमें राजाओं के नाम का पता चलता है। साथ ही हम उनकी उपाधियों के बारे में भी जान पाते हैं। उदाहरण के लिए अशोक का नाम अभिलेखों में आया है तथा उसकी दो उपाधियों(देवनाम्प्रिय तथा पियदस्स) का भी उल्लेख मिलता है। समुद्रगुप्त, खारवेल, रुद्रदामा आदि के नाम भी अभिलेखों में आए हैं।
    2. राज्य-विस्तार-उत्कीर्ण अभिलेखों की स्थापना वहीं पर की जाती थी जहाँ पर उस राजा का राज्य विस्तार होता था। उदाहरण के लिए मौर्य साम्राज्य का विस्तार जानने के लिए हमारे पास सबसे प्रमुख स्रोत अशोक के अभिलेख हैं।
    3. राजा का चरित्र-ये अभिलेख शासकों के चरित्र का चित्रण करने में भी सहायक हैं। उदाहरण के लिए अशोक जनता के बारे में क्या सोचता था। अनेक विषयों पर उसने स्वयं के विचार व्यक्त किए हैं। इसी प्रकार समुद्रगुप्त के चरित्र-चित्रण के लिए प्रयाग प्रशस्ति उपयोगी है। यद्यपि इनमें राजा के चरित्र को बढ़ा-चढ़ाकर लिखा गया है।
    4. काल-निर्धारण-अभिलेख की लिपि की शैली तथा भाषा के आधार पर शासकों के काल का भी निर्धारण कर लिया जाता है।
    5. भाषा व धर्म केबारे में जानकारी: अभिलेखों की भाषा से हमें उस काल के भाषा के विकास का पता चलता है। इसी प्रकार अभिलेखों पर धर्म संबंधी जानकारी भी प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए, अशोक के धम्म की जानकारी के स्रोत उसके अभिलेख हैं। भूमि अनुदान पत्रों से भी धर्म व संस्कृति के बारे में जानकारी मिलती है।
    6. कला-अभिलेख कला के भी नमूने हैं। विशेषतौर पर मौर्यकाल के अभिलेख विशाल पाषाण खंडों को पालिश कर चमकाया गया तथा उन पर पशुओं की मूर्तियाँ रखवाई गईं। ये मौर्य कला के उकृष्ट नमूने हैं।
    7. सामाजिक वर्गों की जानकारी- अभिलेखों से हमें तत्कालीन वर्गों के बारे में भी जानकारी मिलती है। हमें पता चलता है कि शासक एवं राज्याधिकारियों केअलावा नगरों में व्यापारी व शिल्पकार (बुनकर, सुनार, धोबी, लौहकार, बढ़ई) आदि भी रहते थे।
    8. भू-राजस्व व प्रशासन-अभिलेखों से हमें भू-राजस्व प्रणाली तथा प्रशासन के विविध पक्षों की जानकारी भी प्राप्त  होती है। विशेषतौर पर भूदान पत्रों से हमें राजस्व की जानकारी मिलती है। साथ ही जब भूमि अनुदान राज्याधिकारियों को दिया जाने लगा तो धीरे-धीरे स्थानीय सामंतों की शक्ति में वृद्धि हुई। इस प्रकार भूमि अनुदान पत्र राजा की घटती शक्ति को छुपाने के प्रयास की जानकारी भी देते हैं।

    उक्त सभी बातों के साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इन अभिलेखों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करना चाहिए । अभिलेखों की सीमाएँ भी होती हैं। विशेषतौर पर जनसामान्य से संबंधित जानकारी इन अभिलेखों में कम पाई जाती है। तथापि अभिलेखों से समाज के विविध पक्षों से काफी जानकारी मिलती है।

    Question 8
    CBSEHHIHSH12028264

    मौर्य काल में विकसित राजत्व के विचारों की चर्चा कीजिए।

    Solution

    मौर्य काल में राजत्व का एक नया विचार जोर पकड़ने लगा । यह नया विचार या सिद्धांत दिव्य राजत्व का सिद्धांत था । इस सिद्धांत के तहत राजा अपने आपको ईश्वर से जोड़ने लगे। स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है कि शासकों ने अपने आपको देवता या देवताओं से उत्पन्न बताया । इस माध्यम से वे प्रजा में अपना रुतबा बहुत ऊँचा कर लेना चाहते थे। प्रजा के दिलो-दिमागों में अपना नेतृत्व स्थापित करना चाहते थे। उल्लेखनीय है कि धर्म या धार्मिक रीतियों का प्रयोग कर, स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि या दैवीय उत्पत्ति बताकर प्रजा में राजा के प्रति आस्था पैदा करना शासकों की प्राचीन काल से ही रणनीति रही थी । उत्तरवैदिक काल में शासक अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए यज्ञों का सहारा लेते थे। यह यज्ञ बहुत-से ब्राह्मणों द्वारा लंबे समय तक करवाए जाते थे। इन यज्ञों में राजसूय यज्ञ (राज्यारोहण पर), वाजपेय (शक्तिप्रदपेय) तथा अश्वमेध यज्ञ प्रमुख थे जिसके माध्यम से राजाओं को दैवीय शक्तियाँ प्राप्त होती थीं। मौर्य शासक अशोक ने भी दैवीय सिद्धांत का सहारा लिया । वह अपने आपको 'देवानाम्प्रियदर्शी' (देवों का प्यारा) की उपाधि से विभूषित करता है। मौर्योतर काल में कुषाण शासकों ने भी बड़ी-बड़ी उपाधियों को धारण किया तथा दिव्य राजत्व को अपनाया । कुषाणों ने मध्य एशिया से मध्य भारत तक के विशाल भू-क्षेत्र पर लगभग प्रथम सदी ई०पू० से प्रथम ई० सदी तक शासन किया। उनके द्वारा प्रचलित दैवत्व की परिकल्पना उनके सिक्कों और मूर्तियों से बेहतर रूप में अभिव्यक्त होती है।
    मथुरा (उत्तरप्रदेश) के समीप माट के एक देवस्थान से स्थापित की गई। कुषाण शासकों की विशालकाय मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
    इसी प्रकार की मूर्तियाँ अफगानिस्तान में एक देवस्थान से प्राप्त हुई हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि देवस्थानों में विशाल मूर्तियों की स्थापना का विशेष उद्देश्य रहा होगा । वस्तुत: वे अपने आपको 'देवतुल्य' प्रस्तुत करना चाहते होंगे। उल्लेखनीय है कि कुषाण शासकों ने भारतीय धर्मों (शैव, बौद्ध, वैष्णव आदि) को अपनाया तथा इन धर्म के प्रतीकों को अपने सिक्कों पर भी खुदवाया। विम ने अपने सिक्कों पर शिव की आकृति, नंदी और त्रिशूल आदि का प्रयोग किया। कुषाण शासकों ने 'देवपुत्र' की उपाधि धारण की। ऐसा करने की प्रेरणा कुषाणों को चीनी शासकों से मिली होगी जो स्वयं को 'स्वर्गपुत्र' मानते थे।

    Question 9
    CBSEHHIHSH12028265

    वर्णित काल में कृषि के तौर-तरीकों में किस हद तक परिवर्तन हुए?

    Solution

    600 ई०पू० से 600 ई० के लंबे कालखंड में भारत में अनेक परिवर्तन आए। इन परिवर्तनों का प्रमुख आधार कृषि प्रणाली का विकसित होना था। इस काल में शासक अधिक मात्रा में कर वसूल करना चाहते हैं। करों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए किसान उपज बढ़ाने के उपाय ढूँढने लगे। शासकों ने भी इसमें योगदान दिया। उन्होंने सिंचाई कार्यों को बढ़ावा दिया। फलत: कृषि के तौर-तरीकों में निम्नलिखित बदलाव आए:

    1. सिंचाई कार्य- मौर्य शासकों ने खेती-बाड़ी को बढ़ाने की ओर विशेष ध्यान दिया। राज्य किसानों के लिए सिंचाई व्यवस्था/जल वितरण का कार्य करता था । मैगस्थनीज ने 'इंडिका' में लिखा है कि मिस्र की तरह मौर्य राज्य में भी सरकारी अधिकारी जमीन की पैमाइश करते थे। नहरों का निरीक्षण करते थे जिनसे होकर पानी छोटी नहरों में पहुँचता था। जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त मौर्य के एक गवर्नर पुष्यगुप्त ने सौराष्ट्र (गुजरात) में गिरनार के पास सुदर्शन झील पर एक बाँध बनवाया था जो सिंचाई के काम आता था। पाँचवीं सदी में स्कंदगुप्त ने भी इसी झील का जीर्णोद्धार करवाया था । कुँओं व तालाबों से सिंचाई कर कृषि उपज बढ़ाई जाती थी। नहरों का निर्माण शासक या संपन्न लोग ही करवा पाते थे। परंतु कुओं-तालाबों के निर्माण में समुदाय तथा व्यक्तिगत प्रयास भी प्रमुख भूमिका निभाते थे।
    2. हल से खेती-कृषि उपज बढ़ाने का एक उपाय हल का-प्रचलन था। अधिक बरसात वाले क्षेत्रों में हल के लोहे के फाल' का प्रयोग प्रचलन में आया । इसकी मदद से मिट्टी को गहराई तक जोता जाने लगा। उल्लेखनीय है कि गंगा व कावेरी की घाटियों के उपजाऊ क्षेत्र में छठी सदी ई० पू० से लोहे वाले फाल सहित हल का प्रयोग होने लगा था । प्राचीन पालि ग्रंथों में कृषि केलिए लोहे के औजारों का उल्लेख है। अष्टाध्यायी में भी आयोविकर कुशि (लोहे की फाल) का उल्लेख है। उत्तरी भारत में इस संबंध में कुछ पुरातात्विक साक्ष्य भी मिलते हैं। इसका परिणाम कृषि क्षेत्र में वृद्धि, कृषक बस्तियों का प्रसार और उत्पादन का बढ़ना है, जिसका लाभ राज्य को भी मिला।
    3. धान रोपण की विधि की शुरुआत- कृषि क्षेत्र में पैदावार बढ़ाने में एक अन्य महत्त्वपूर्ण उपाय धान रोपण की शुरुआत है। भारत में धान रोपण की शुरुआत 500 ई०पू० में स्वीकार की जाती है। धान लगाने की प्रक्रिया के लिए रोपण और रोपेति जैसे शब्दोंका प्रयोग किया गया है। सालि का तात्पर्य उखाड़कर लगाए जाने वाली जाड़े की फसलों से है। पालि ग्रंथों में इस प्रक्रिया को बीजानि पतितापेति के नाम से जाना जाता है। ज्ञातधर्म कोष में प्राकृत वाक्यांश उक्साय निहाए का अर्थ है ''उखाड़ना और प्रतिरोपित करना'' प्रतिरोपण की इस प्रणाली से पैदावार बड़ी। इससे गाँवों में परिवर्तन आया।

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