समकालीन विश्व राजनीति Chapter 3 समकालीन विश्व में अमरीकी वर्चस्व
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    NCERT Solution For Class 12 राजनीतिक विज्ञान समकालीन विश्व राजनीति

    समकालीन विश्व में अमरीकी वर्चस्व Here is the CBSE राजनीतिक विज्ञान Chapter 3 for Class 12 students. Summary and detailed explanation of the lesson, including the definitions of difficult words. All of the exercises and questions and answers from the lesson's back end have been completed. NCERT Solutions for Class 12 राजनीतिक विज्ञान समकालीन विश्व में अमरीकी वर्चस्व Chapter 3 NCERT Solutions for Class 12 राजनीतिक विज्ञान समकालीन विश्व में अमरीकी वर्चस्व Chapter 3 The following is a summary in Hindi and English for the academic year 2021-2022. You can save these solutions to your computer or use the Class 12 राजनीतिक विज्ञान.

    Question 4
    CBSEHHIPOH12041350

    निम्नलिखित में मेल बैठायें:-

    A. ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच (i) तालिबान और अल-कायदा के खिलाफ जंग
    B. ऑपरेशन इंड् यूइरंग फ्रीडम (ii) इराक पर हमले के इच्छुक देशों का गठबंधन
    C. ऑपरेशन डेजर्ट स्टार्म (iii) सूडान पर मिसाइल से हमला
    D. ऑपरेशन इराकी फ्रीडम (iv) प्रथम खाड़ी युद्ध

    Solution

    A.

    ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच

    (i)

    सूडान पर मिसाइल से हमला

    B.

    ऑपरेशन इंड् यूइरंग फ्रीडम

    (ii)

    तालिबान और अल-कायदा के खिलाफ जंग

    C.

    ऑपरेशन डेजर्ट स्टार्म

    (iii)

    प्रथम खाड़ी युद्ध

    D.

    ऑपरेशन इराकी फ्रीडम

    (iv)

    इराक पर हमले के इच्छुक देशों का गठबंधन

    Question 5
    CBSEHHIPOH12041351

    इस अध्याय में वर्चस्व के तीन अर्थ बताए गए हैं। प्रत्येक का एक-एक उदाहरण बतायें। ये उदाहरण इस अध्याय में बताए गए उदाहरणों से अलग होने चाहिए।

    Solution

    राजनीति एक ऐसी कहानी है जो शक्ति के इर्द-गिर्द घूमती है। किसी भी आम आदमी की तरह हर समूह भी ताकत पाना और कायम रखना चाहता है। विश्व राजनीति में भी विभिन्न देश या देशों के समूह ताकत पाने और कायम रखने की लगातार कोशिश करते हैं।
    अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में जब एक राष्ट्र शक्तिशाली बन जाता है और दूसरे राष्ट्रों पर अपना प्रभाव जमाने लगता है, तो उसे एकध्रुवीय व्यवस्था कहते हैं, लेकिन इस शब्द का यहाँ प्रयोग करना सर्वथा गलत हैं, क्योंकि इसी को 'वर्चस्व' के नाम से भी जाना जाता है अर्थात् दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि विश्व राजनीति में एक देश का अन्य देशों पर प्रभाव होना ही 'वर्चस्व' कहलाता है।

    सैन्य वर्चस्व: अमरीका की मौजूदा ताकत की रीढ़ उसकी बड़ी-चढ़ी सैन्य शक्ति है। आज अमरीका की सैन्य शक्ति अपने आप में अनूठी है और बाकी देशों की तुलना में बेजोड। अनूठी इस अर्थ में कि आज अमरीका अपनी सैन्य क्षमता के बूते पूरी दुनिया में कहीं भी निशाना साध सकता है। उदहारण के तौर पर, इराक पर हमला, 2011 को अमेरिका में हुए आतंकी हमले के बाद अफ़ग़ानिस्तान के अलकायदा के ठिकानों पर हमला करने के लिए पाकिस्तान में सैन्य हवाई अड्डों का प्रयोग अमेरिकी वर्चस्व की ही उदहारण है जो आज तक भी अमेरिकी नियंत्रण में ही है।

    ढाँचागत ताकत के रूप में वर्चस्व: वर्चस्व का यह अर्थ, इसके पहले अर्थ में बहुत अलग है। ढाँचागत वर्चस्व का अर्थ हैं वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी मर्जी चलाना तथा अपने उपयोग की चीजों को बनाना व बनाए रखना। अनेक ऐसे उदाहरण हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि अमरीका का ढाँचागत क्षेत्र में भी वर्चस्व कायम है; जैसे छोटे-छोटे देशों के ऋणों में कटौती तथा उन पर अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनाना आदि। अमरीका उसकी बात न मानने वाले देशों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाने में भी कामयाब रहता है।

    सांस्कृतिक वर्चस्व: वर्चस्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष सांस्कृतिक पक्ष भी है। आज विश्व में अमरीका का दबदबा सिर्फ सैन्य शक्ति और आर्थिक बढ़त के बूते ही नहीं बल्कि अमरीका की सांस्कृतिक मौजूदगी भी इसका एक कारण है। अमरीकी संस्कृति बड़ी लुभावनी है और इसी कारण सबसे ज्यादा ताकतवर है। वर्चस्व का यह सांस्कृतिक पहलू है जहाँ जोर-जबर्दस्ती से नहीं बल्कि रजामंदी से बात मनवायी जाती है। समय गुजरने के साथ हम उसके इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि अब हम इसे इतना ही सहज मानते हैं जितना अपने आस-पास के पेडू-पक्षी या नदी को। जैसे भारतीय समाज में विचार एवं कार्यशैली की दृष्टि से बढ़ता खुलापन अमरीकी सांस्कृतिक प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है।

    Question 6
    CBSEHHIPOH12041352

    उन तीन बातों का जिक्र करें जिनसे साबित होता है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमरीकी प्रभुत्व का स्वभाव बदला है और शीतयुद्ध के वर्षो के अमरीकी प्रभुत्व की तुलना में यह अलग है।

    Solution

    इसमें कोई दोराहे नहीं कि शीतयुद्ध का अंत 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ हो गया था और सोवियत संघ एक महाशक्ति के रूप में विश्व परिदृश्य से गायब हो गया था। यह बात सही नहीं हैं कि अमेरिकी वर्चस्व सन् 1991 के पश्चात कायम हुआ है, क्योंकि अगर विश्व राजनीती के इतिहास पर दृष्टि डाली जाए तो अमेरिकी वर्चस्व का काल द्वित्य विश्वयुद्ध (1945) से ही प्रारम्भ हो गया था, लेकिन यह बात भी सही है कि इसने अपना वास्तविक रूप 1991 से दिखाना शुरू किया था। आज पूरा विश्व अमेरिकी वर्चस्व के आश्रय में जीने को बाध्य हैं:

    1. अमेरिकी वर्चस्व का पहला उदहारण 1990 के अगस्त में इराक ने कुवैत पर हमला किया और बड़ी तेजी से उस पर कब्जा जमा लिया। उस समय एक शक्तिशाली और प्रभावशाली वर्चस्व के रूप में अमेरिका ने उसे समझाने का प्रयास किया और अंत में जब इराक को समझाने-बुझाने की तमाम राजनयिक कोशिशें नाकाम रहीं तो संयुक्त राष्ट्रसंघ ने कुवैत को मुक्त कराने के लिए बल-प्रयोग की अनुमति दे दी। संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिहाज से यह एक नाटकीय फैसला था।
    2. प्रथम खाड़ी युद्ध भी अमेरिकी वर्चस्व के प्रभाव को दर्शाता हैं। 34 देशों की मिली-जुली और 6,60,000 सैनिकों की भारी- भरकम फौज ने इराक के विरुद्ध मोर्चा खोला और उसे परास्त कर दिया। इसे प्रथम खाड़ी युद्ध कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के इस सैन्य अभियान को 'ऑपरेशन डेजर्ट स्टार्म' कहा जाता है जो एक हद तक अमरीकी सैन्य अभियान ही था। इसमें प्रतिशत सैनिक अमेरिकी ही थे। हालाँकि इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का ऐलान था कि यह ' सौ जंगों की एक जंग ' साबित होगा लेकिन इराकी सेना जल्दी ही हार गई और उसे कुवैत से हटने पर मजबूर होना पड़ा।
    3. अमेरिकी वर्चस्व का एक स्वरूप यहाँ भी देखने को मिला जब अमेरिका पर आतंकवादी हमले हुए। 9/11 हमले के जवाब में अमरीका ने फौरी कदम उठाये और भयंकर कार्रवाई की। अब क्लिंटन की जगह रिपब्लिकन पार्टी के जार्ज डब्लयूं बुश राष्ट्रपति थे। क्लिंटन के विपरीत बुश ने अमरीकी हितों को लेकर कठोर रवैया अपनाया और इन हितों को बढ़ावा देने के लिए कड़े कदम उठाये। ' आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध' के अंग के रूप में अमरीका ने 'ऑपरेशन एन्डयूइरंग फ्रीडम' चलाया । यह अभियान उन सभी के खिलाफ चला जिन पर 9/11 का शक था।

    इस प्रकार उपरोक्त तीनों घटनाओं के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि आज का अमेरिकी प्रभुत्व शीतयुद्ध के दौर से पूरी तरह अलग है। सोवितय संघ के विघटन के साथ ही शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद से संक्युत राज्य अमेरिका अपनी सैन्य व आर्थिक शक्ति का प्रयोग करके पूरी विश्व व्यवस्था पर अपना मनमाना आचरण थोपने लग गया जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका का वर्चस्व स्वरूप बदला है। शीतयुद्ध के दौरान इसका इतना प्रभाव नहीं रहा है।

    Question 7
    CBSEHHIPOH12041353

    भारत-अमरीका समझौते से संबंधित बहस के तीन अंश इस अध्याय में दिए गए हैं। इन्हें पढ़ें और किसी एक अंश को आधार मानकर पूरा भाषण तैयार करें जिसमें भारत- अमरीकी संबंध के बारे में किसी एक रुख का समर्थन किया गया हो।

    Solution

    इसमें कोई दो-राहे नहीं की यह अमेरिका के विश्वव्यापी वर्चस्व का दौर है और बाकि देशों की तरह भारत को भी फैसला करना है की वह अमेरिका के साथ किस तरह के संबंध रखना चाहता है। यद्यपि भारत में इस संबंध में तीन संभावित रणनीतियों पर बहस चल रही है:

    1. भारत के जो विद्वान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को सैन्य शक्ति के संदर्भ में देखते-समझते हैं, वे भारत और अमरीका की बढ़ती हुई नजदीकी से भयभीत हैं। ऐसे विद्वान यही चाहेंगे कि भारत वाशिगंटन से अपना अलगाव बनाए रखे और अपना ध्यान अपनी राष्ट्रीय शक्ति को बढ़ाने पर लगाए।
    2. कुछ विद्वान मानते हैं कि भारत और अमरीका के हितों में तालमेल लगातार बढ़ रहा है और यह भारत केलिए ऐतिहासिक अवसर है' ये विद्वान एक ऐसी रणनीति अपनाने की तरफदारी करते हैं जिससे भारत अमरीकी वर्चस्व
      का फायदा उठाए। वे चाहते हैं कि दोनों के आपसी हितों का मेल हो और भारत अपने लिए सबसे बढिया विकल्प ढूँढ सके। इन विद्वानों की राय है कि अमरीका के विरोध की रणनीति व्यर्थ साबित होगी और आगे चलकर इससे भारत को नुकसान होगा।
    3. कुछ विद्वानों की राय है कि भारत अपनी अगुआई में विकासशील देशों का गठबंधन बनाए। कुछ सालों में यह गठबंधन ज्यादा ताकतवर हो जाएगा और अमरीकी वर्चस्व के प्रतिकार में सक्षम हो जाएगा।

    अत: भारत-अमरीकी संबंधों के सन्दर्भ में व्यक्त तीनो विचारों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दोनों देशों के बीच संबंध इतने जटिल है कि किसी एक रणनीति पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। अमरीका से निर्वाह करने के लिए भारत को विदेश नीति की कई रणनीतियों का एक समुचित मेल तैयार करना होगा।

    Question 8
    CBSEHHIPOH12041354

    ''यदि बड़े और संसाधन संपन्न देश अमरीकी वर्चस्व का प्रतिकार नहीं कर सकते तो यह मानना अव्यावहारिक है कि अपेक्षाकृत छोटी और कमजोर राजयतर संस्थाएँ अमरीकी वर्चस्व का कोई प्रतिरोध कर पाएँगी। '' इस कथन की जाँच करें और अपनी राय बताएँ।

    Solution
    1. अमेरिकी वर्चस्व आखिर कब तक चलेगा? यह प्रश्न सबके समक्ष है और इसका कोई भी जवाब अभी तक नहीं दिखाई पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में यह एक सर्वमान्य सच्चाई हैं कि आज अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली व साधन सम्पन देश है। ऐसे में यदि बड़े एवं साधन सम्पन देश जैसे कि चीन, भारत, रूस इत्यादि ही इसका प्रतिकार नहीं कर पाते तो शायद यह असंभव प्रतीत होता है कि अपेक्षाकृत छोटे और कमजोर राज्य उसका कोई प्रतिरोध कर पाएँगे।
    2. आज समस्त विश्व में अमेरिकी विचारधारा के रूप में पूँजीवाद का प्रचार दिनों दिन यहां तक कि साम्यवादी देशों में जिस तरह बढ़ता जा रहा है उससे उसकी वैचारिक परिवर्तन दृढ़ होती जा रही है अतः ऐसे में अमेरिकी वर्चस्व के प्रतिकार की बात सोचना अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण होगा।
    3. उदहारण के लिए आज विश्व परिदृश्य पर नजर डालें तो चीन इस विचारधारा का सबसे बड़ा समर्थक देश है। आज चीन में भी ताइवान, तिब्बत और अन्य क्षेत्रों में अलगाववाद, उदारीकरण व वैश्वीकरण के पक्ष में आवाज उठती रहती है तथा वहाँ पर जो वातावरण बन रहा है वह पूँजीवादी विचारधारा से ही प्रेरित है।
    4. आज अमेरिका अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे; संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुमति के बिना भी आक्रमण करने की स्थिति में है। अत: यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि छोटे एवं कमजोर राज्य द्वारा अमेरिकी वर्चस्व के प्रतिकार की बात सोचना बहुत जटिल विचारधारा है।
    5. अमेरिका का अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं जैसे विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, आदि पर गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में छोटे एवं कमजोर राष्ट्र उसकी सहायता पर निर्भर हो जाते है। अत: उनका उसके 'प्रतिकार' की बात सोचना भी असम्भव लगता है।
    6. कुछ लोग का मत है कि अमरीकी वर्चस्व का प्रतिकार कोई देश अथवा देशों का समूह नहीं कर पाएगा क्योंकि आज सभी देश अमरीकी ताकत के आगे बेबस हैं। ये लोग मानते हैं कि राज्येतर संस्थाएँ अमरीकी वर्चस्व के प्रतिकार के लिए आगे आएंगी। अमरीकी वर्चस्व को आर्थिक और सांस्कृतिक धरातल पर चुनौती मिलेगी। यह चुनौती स्वयंसेवी संगठन, सामाजिक आंदोलन और जनमत के आपसी मेल से प्रस्तुत होगी; मीडिया का एक तबका, बुद्धिजीवी, कलाकार और लेखक आदि अमरीकी वर्चस्व के प्रतिरोध के लिए आगे आएंगे।
    Question 9
    CBSEHHIPOH12041355

    अमरीकी वर्चस्व की राह में कौन-से व्यवधान हैं? आप क्या जानते हैं कि इनमें से कौन-सा व्यवधान आगामी दिनों में सबसे महत्त्वपूर्ण साबित होगा?

    Solution

    इतिहास बताता है कि साम्राज्यों का पतन उनकी अंदरूनी कमजोरियों के कारण होता है। ठीक इसी तरह अमरीकी वर्चस्व की सबसे बड़ी बाधा खुद उसके वर्चस्व के भीतर मौजूद है। अमरीकी शक्ति की राह में तीन अवरोध सामने आए हैं:

    अमेरिका की संस्थागत बनावट: पहला व्यवधान स्वयं अमरीका की संस्थागत बुनावट है। यहाँ शासन के तीन अंग हैं तथा तीनो के बीच शक्ति का बँटवारा है और यही बुनावट कार्यपालिका द्वारा सैन्य शक्ति के बेलगाम इस्तेमाल पर अंकुश लगाने का काम करती है। उदहारण के लिए अमेरिका में 9/11 की आतंकवादी घटना के बाद विधानपालिका (कांग्रेस) ने राष्ट्रपति को आतंकवाद से लड़ने के लिए सभी प्रकार के कदम उठाने की स्वीकृति दे दी, परंतु अब वहाँ अमेरिकी जनमत को देखते हुए कांग्रेस ने इराक युद्ध एवं उस पर आगे सैन्य खर्च को बढ़ाने के पक्ष में नहीं है। इस बात से यह स्पष्ट है कि अमेरिकी शासन का आंतरिक ढाँचा अमेरिकी राष्ट्रपति के निर्णय के रास्ते में एक व्यवधान के रूप में कार्य करता है।

    जनमत: अमेरिकी वर्चस्व में दूसरी सबसे बड़ी अड़चन भी अंदरूनी है। इस अड़चन के मूल में है अमरीकी समाज जो अपनी प्रकृति में उम्मुक्त है। अमरीका में जन-संचार के साधन समय-समय पर वहाँ के जनमत को एक खास दिशा में मोड़ने की भले कोशिश करें लेकिन अमरीकी राजनीतिक संस्कृति में शासन के उद्देश्य और तरीके को लेकर गहरे संदेह का भाव भरा है। अमरीका के विदेशी सैन्य-अभियानों पर अंकुश रखने में यह बात बड़ी कारगर भूमिका निभाती है।
    जैसे अमेरिका-इराक युद्ध और उसके बाद अमेरिकी सैनिकों की निरंतर होती मौतों के कारण वहां की जनता निरंतर इराक से अपनी फौजों को वापस बुलाने की माँग कर रही है जिसका प्रभाव यह है कि अमेरिकी प्रशासन की कठोर एवं निरंकुश सैन्य कार्यवाही पर जनमत को देखते हुए नियंत्रण किया हुआ है।

    नाटो: अमरीकी ताकत की राह में मौजूद तीसरा व्यवधान सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में आज सिर्फ एक संगठन है जो संभवतया अमरीकी ताकत पर लगाम कस सकता है और इस संगठन का नाम है 'नाटो ' अर्थात् उत्तर अटलांटिक ट्रीटी आर्गनाइजेशन। स्पष्ट ही अमरीका का बहुत बड़ा हित लोकतांत्रिक देशों के इस संगठन को कायम रखने से जुड़ा है क्योंकि इन देशों में बाजारमूलक अर्थव्यवस्था चलती है। इसी कारण इस बात की संभावना बनती है कि 'नाटो' में शामिल अमरीका के साथी देश उसके वर्चस्व पर कुछ अंकुश लगा सकें।

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