हरिवंशराय बच्चन
‘आत्म-परिचय’ कविता का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
‘आत्म-परिचय’ शीर्षक कविता में कवि अपना परिचय देता है। उसका कहना है कि वह समाज (जग) का अंग होते हुए भी उससे अलग व्यक्तित्व का स्वामी है। स्वयं को जानना इस संसार को जानने से भी अधिक कठिन है। समाज से व्यक्ति का नाता खट्टा--मीठा तो होता ही है, पर जगजीवन से पूरी तरह निरपेक्ष रहना संभव नहीं है। यह सही है कि यह दुनिया हमें अपने व्यंग्य बाणों से तथा अपने व्यवहार से हमें काफी कष्ट पहुँचाती है, पर फिर भी हम इससे पूरी तरह कटकर नहीं रह सकते। व्यक्ति की अस्मिता एव पहचान इस दुनिया के कारण ही है। इस दुनिया के साथ हमारा द्विधात्मक एवं धात्मक संबंध है। कवि दुनिया में रहकर इसी से संघर्ष करता है। इस जीवन को अनेक विरोधाभासों के मध्य जीना पड़ता है। कवि इन विरोधाभासों के साथ सामजस्य बिठाते हुए जीवन में मस्ती उतार लाता है।
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कवि किसका पान किया करता है और इससे उसकी हालत कैसी हो जाती है?
कवि संसार के बारे में क्या बताता है?
दिये गये काव्याशं सप्रसंग व्याख्या करें?
कवि क्या लिए फिरता है?
कवि को यह संसार कैसा प्रतीत होता है?
कवि किस मन: स्थिति में रहता है?
कवि इस संसार में अपना जीवन किस प्रकार से बिताता है?
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय 2 किसी की याद लिए फिरता हूँ,
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर छू न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!
कवि कैसा उन्माद लिए फिरता है? इसका उसे क्या प्रतिफल मिलता है?
कवि किस मन: स्थिति में जी रहा है और क्यों?
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