भवानी प्रसाद मिश्र
पठित कविता ‘पिता’ के आधार पर भवानीप्रसाद मिश्र की भाषा-शैली की समीक्षा कीजिए।
भवानी प्रसाद मिश्र की भाषा खड़ी बोली है। उनकी भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक और जनसाधारण योग्य है। छन्दमुक्त कविता उन्हें अभीष्ट है।
मिश्र जी की भाषा की सादगी और ताजगी पाठकों को अपनी ओर खींच लेती है। इनकी भाषा संवेदनशील और भावपूर्ण है। संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ स्थानीय और विदेशी शब्दों का प्रयोग मिश्र जी की भाषा को सहज और स्वाभाविक बना देता है। मानवीय भावों के सम्प्रेषण में इनकी भाषा पूर्ण सक्षम है। इनकी भाषा में कृत्रिमता का सर्वथा अभाव है। ‘घर की याद’ मिश्र जी की संस्मरणात्मक कविता है। ‘पिता’ शीर्षक कविता उसी का अंश है। इस कविता में मिश्र जी ने पिता जी के स्मरण चित्र चित्रित किए हैं- “पिताजी भोले, बहादुर, व्रज- भुज नवनीत सा उर।” अनेक तत्सम शब्दों के साथ स्थानीय शब्दों का प्रयोग भी किया है। तिर रहा है, हिचके, बिचके, बोल, पहाड़, बड़, खम स्थानीय शब्दों के साथ फ्रिक, मजे, शक, खुद, बक आदि विदेशी भाषा के शब्द है। इस कविता में अनेक मुहावरे हिचकना-बिचकना, नैनों में जल छाना, जी चीर देना का सटीक प्रयोग हुआ है। अनेक स्थान पर अनुप्रास, रूपक, उपमा, मानवीकरण अलंकारो का प्रयोग हुआ है। कविता की भाषा अत्यधिक सरल और संवेदनशील है और कवि के मानवीय भावों को स्पष्ट करने में सक्षम है। अनेक स्थानों पर चित्रात्मकता प्रधान रही है। पिता का हृदय बड़ के वृक्ष की भाँति संवेदनशील बताया गया है। कवि के अतुलनीय पितृ प्रेम को उनकी भाषा पूर्णरूप से वर्णन करने में सफल है।
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आज पानी गिर रहा है,
बहत पानी गिर रहा है,
रात भर गिरता रहा है,
प्राण मन घिरता रहा है,
बहुत पानी गिर रहा है
घर नजर में तिर रहा है
घर कि मुझसे दूर है जो
घर खुशी का पुर है जो
घर कि घर में चार भाई
मायके मे ‘बहिन आई,
बहिन आई बाप के घर
हाय रे परिताप के घर!
घर कि घर में सब जुड़े हैं
सब कि इतने कब जुड़े हैं
चार भाई चार बहिने
भुजा भाई प्यार बहिने
और माँ बिन - पड़ी मेरी
दु:ख में वह गढ़ी मेरी
माँ कि जिसकी गोद में सिर
रख लिया तो दुख नहीं फिर
माँ कि जिसकी स्नेह- धारा
का यहाँ तक भी पसारा
उसे लिखना नहीं आता
जो कि उसका पत्र पाता।
पिता जी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा
जो अभी भी दौड़ जाएँ,
जो अभी भी खिलखिलाएँ
मौत के आगे न हिचकें,
शेर के आगे न बिचकें,
बोल में बादल गरजता
काम में झंझा लरजता
आज गीता-पाठ करके
दंड दो सौ साठ करके,
खूब मुगदर हिला लेकर
मूठ उनकी मिला लेकर
जब कि नीचे आए होंगे
नैन जल से छाए होंगे,
हाय, पानी गिर रहा है,
घर नजर में तिर रहा है,
चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिनें,
खेलते या खड़े होंगे,
नजर उनको पड़े होंगे।
पिता जी जिनको बुढ़ापा
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
रो पड़े होंगे बराबर,
पाँचवें का नाम लेकर
पाँचवाँ मैं हूँ अभागा,
जिसे सोने पर सुहागा
पिता जी कहते रहे हैं,
प्यार में बहते रहे हैं,
आज उनके स्वर्ण बेटे,
लगे होंगे उन्हें हेटे
क्योंकि मैं उनपर सुहागा
बँधा बैठा हूँ अभागा,
और माँ ने कहा होगा,
दुःख कितना बहा होगा,
आँख में किस लिए पानी
वहाँ अच्छा है भवानी
वह तुम्हारा मन समझकर,
और अपनापन समझकर,
गया है सो ठीक ही है,
यह तुम्हारी लीक ही है,
पाँव जो पीछे हटाता,
कोख को मेरी लजाता,
इस तरह होओ न कच्चे,
रो पड़ेंगे और बच्चे,
पिता जी ने कहा होगा,
हाय, कितना सहा होगा,
कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ,
धीर मैं खोता कहाँ हूँ,
हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवें को वे न तरसें,
मैं मजे में हूँ सही है,
घर नहीं हूँ बस यही है,
किंतु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से सब विरस है,
किंतु उनसे यह न कहना
उन्हें देते धीर रहना,
उन्हें कहना लिख रहा हूँ,
उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ।
काम करता हूँ कि कहना,
नाम करता हूँ कि कहना,
चाहते हैं लोग कहना,
मत करो कुछ शोक कहना,
और कहना मस्त हूँ मैं,
कातने में व्यस्त हूँ मैं,
वजन सत्तर सेर मेरा,
और भोजन ढेर मेरा,
कूदता हूँ, खेलता हूँ,
दू:ख डट कर ठेलता हूँ,
और कहना मस्त हूँ, मैं,
यों न कहना अस्त हूँ मैं,
हाय रे, ऐसा न कहना,
है कि जो वैसा न कहना,
कह न देना जागता हूँ,
आदमी से भागता हूँ,
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