भवानी प्रसाद मिश्र
पिता जी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा
जो अभी भी दौड़ जाएँ,
जो अभी भी खिलखिलाएँ
मौत के आगे न हिचकें,
शेर के आगे न बिचकें,
बोल में बादल गरजता
काम में झंझा लरजता
आज गीता-पाठ करके
दंड दो सौ साठ करके,
खूब मुगदर हिला लेकर
मूठ उनकी मिला लेकर
प्रसंग- भवानी प्रसाद मिश्र सरल और सहज कविता के प्रतिनिधि कवि हैं। यह कविता मिश्र जी की लंबी कविता ‘घर की याद’ से अवतरित है जो हमारी पाठ्य- पुस्तक ‘आरोह’ में संकलित है। 1942 के ‘भारत छोड़ आन्दोलन, में कवि को तीन वर्ष जेल यातना सहन करनी पड़ी थी। सावन के महीने में बरसते बादलों को देखकर कवि को घर की याद सताई। इसके अन्तर्गत कवि अपने पिता के सरल और सहज स्वभाव का वर्णन करता है-
व्याख्या-कवि बताता है कि पिताजी का -थे, भाव इतना हँसमुख है कि अभी तक उन्हें वृद्धावस्था ने स्पर्श नहीं किया। वे अपने सरल और हँसमुख स्वभाव के कारण बुढ़ापे को नहीं आने देते। वे आज बड़े होकर भी दौड़- भाग कर सकते हैं और सबके साथ खिलखिलाकर हँस सकते हैं। पिता जी का स्वभाव सरल, सहज और हँसमुख है जिन पर अभी बुढ़ापे का कोई असर नहीं है। पिता जी इतने निडर और निर्भीक हैं कि मृत्यु से भी नहीं डरते। वे शेर के सामने जाने से भी नहीं डरते। वे बड़े ही शक्तिशाली हैं। जब वे बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि बादल गरज रहे हों, उनकी वाणी गंभीर है। जब वे काम करतै हैं तो तूफान-सा मच जाता है और उनके काम के समक्ष तूफान भी शान्त हो जाता है। इस प्रकार की उनकी कार्यशैली है। पिताजी नित्य श्रीमद्गीता का पाठ करते हैं। वे वृद्धावस्था में भी व्यायाम करने के अभ्यासी हैं और प्रतिदिन दो सौ साठ दण्ड लगाते हैं। इस अवस्था में इतना व्यायाम मुश्किल है, फिर भी वे रोज करते हैं। जब वे व्यायाम करके नीचे आए होंगे, मुझे नं पाकर मेरे प्रेम’ के कारण उनकी आँखों में आँसू भर आए. होंगे। इस प्रकार कवि को बरसते सावन में घर की याद आ रही है।
विशेष: (1) प्रस्तुत काव्य पक्तियों में कवि मिश्र जी ने खड़ी बोली की छन्दमुक्त कविता का प्रयोग किया है। संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ स्थानीय और विदेशी भाषाओं को सहज रूप से प्रयोग किया हे। बोल, हिचकना, बिचकना, लरजना स्थानीय शब्दों के साथ मौत, शेर आदि विदेशी शब्दों का प्रयोग किया है।
(2) पिता के स्वाभाविक शब्दचित्र वर्णन से चित्रात्मकता झलकती है।
(3) भाषा मुहावरेदार है। पिता के निर्भीक, सशक्त, गंभीर, परिश्रमी स्वभाव के साथ-साथ उनके नियम से गीता पाठ करने तथा प्रतिदिन व्यायाम करने का वर्णन किया है। साथ ही पुत्र-प्रेम से पिता की आँखों में आँसुओं के आने से उनकी भावुकता का वर्णन भी किया है।
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हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवें को वे न तरसें,
मैं मजे में हूँ सही है,
घर नहीं हूँ बस यही है,
किंतु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से सब विरस है,
किंतु उनसे यह न कहना
उन्हें देते धीर रहना,
उन्हें कहना लिख रहा हूँ,
उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ।
काम करता हूँ कि कहना,
नाम करता हूँ कि कहना,
चाहते हैं लोग कहना,
मत करो कुछ शोक कहना,
और कहना मस्त हूँ मैं,
कातने में व्यस्त हूँ मैं,
वजन सत्तर सेर मेरा,
और भोजन ढेर मेरा,
कूदता हूँ, खेलता हूँ,
दू:ख डट कर ठेलता हूँ,
और कहना मस्त हूँ, मैं,
यों न कहना अस्त हूँ मैं,
हाय रे, ऐसा न कहना,
है कि जो वैसा न कहना,
कह न देना जागता हूँ,
आदमी से भागता हूँ,
कह न देना मौन हूँ मैं,
खुद ना समझुँ कौन हूँ मैं,
देखना कुछ बक न देना,
उन्हें कोई शक न देना,
हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवें को वे न तरसें।,
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मैं मजे में हूँ सही है
घर नहीं हूँ बस यही है
किंतु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से बस विरस है।
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