भवानी प्रसाद मिश्र
और माँ बिन - पड़ी मेरी
दु:ख में वह गढ़ी मेरी
माँ कि जिसकी गोद में सिर
रख लिया तो दुख नहीं फिर
माँ कि जिसकी स्नेह- धारा
का यहाँ तक भी पसारा
उसे लिखना नहीं आता
जो कि उसका पत्र पाता।
प्रसंग- प्रस्तुत काव्याशं भवानीप्रसाद मिश्र द्वारा रचित कविता ‘घर की याद’ से उद्धृत है। कवि अपने जेल-प्रवास में घर को बहुत याद करता है। उसे रह- रहकर घर के सभी सदस याद आते हैं। यहाँ वह अपनी माँ के बारे में बता रहा है।
व्याख्या-कवि बताता है कि उसकी माँ पढ़ी-लिखी नहीं है। वह तो दुख में गढ़ी हुई है। उसके जीवन में दुख रहे हैं। वह ऐसी प्यारी माँ है कि उसकी गोद में सिर रखने के पश्चात् किसी प्रकार का दुख नहीं रह जाता। माँ सभी प्रकार के दुखों-कष्टों का हरण कर लेती है।
मां के प्रेम-स्नेह का प्रसार बहुत दूर-दूर तक है। उसका स्नेह यहां जेल तक भी पसरा हुआ है अर्थात् यहाँ जेल में भी मैं उसके स्नेह का अनुभव करता हूँ। मेरी माँ को लिखना-पढ़ना नहीं आता, अत: वह पत्र नहीं लिख सकती। मैं उसका कोई पत्र नहीं पा सकता, क्योंकि वह पत्र लिखना जानती ही नहीं।
विशेष: 1 यहाँ कवि ने मां की सहजता एवं स्नेहिल छाया का मार्मिक अंकन किया है।
2. भाषा अलंकारों के प्रयोग से सर्वथा मुक्त है। यह सीधी सरल है।
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और माँ ने कहा होगा,
दुःख कितना बहा होगा,
आँख में किस लिए पानी
वहाँ अच्छा है भवानी
वह तुम्हारा मन समझकर,
और अपनापन समझकर,
गया है सो ठीक ही है,
यह तुम्हारी लीक ही है,
पाँव जो पीछे हटाता,
कोख को मेरी लजाता,
इस तरह होओ न कच्चे,
रो पड़ेंगे और बच्चे,
पिता जी ने कहा होगा,
हाय, कितना सहा होगा,
कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ,
धीर मैं खोता कहाँ हूँ,
हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवें को वे न तरसें,
मैं मजे में हूँ सही है,
घर नहीं हूँ बस यही है,
किंतु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से सब विरस है,
किंतु उनसे यह न कहना
उन्हें देते धीर रहना,
उन्हें कहना लिख रहा हूँ,
उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ।
काम करता हूँ कि कहना,
नाम करता हूँ कि कहना,
चाहते हैं लोग कहना,
मत करो कुछ शोक कहना,
और कहना मस्त हूँ मैं,
कातने में व्यस्त हूँ मैं,
वजन सत्तर सेर मेरा,
और भोजन ढेर मेरा,
कूदता हूँ, खेलता हूँ,
दू:ख डट कर ठेलता हूँ,
और कहना मस्त हूँ, मैं,
यों न कहना अस्त हूँ मैं,
हाय रे, ऐसा न कहना,
है कि जो वैसा न कहना,
कह न देना जागता हूँ,
आदमी से भागता हूँ,
कह न देना मौन हूँ मैं,
खुद ना समझुँ कौन हूँ मैं,
देखना कुछ बक न देना,
उन्हें कोई शक न देना,
हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पाँचवें को वे न तरसें।,
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निम्नलिखित पंक्तियों में ‘बस’ शब्द के प्रयोग की विशेषता बताइए।
मैं मजे में हूँ सही है
घर नहीं हूँ बस यही है
किंतु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से बस विरस है।
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