नागार्जुन - यह दंतुरित मुसकान
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियां हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज भाग–2 में संकलित कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ से ली गई हैं। इसके रचयिता श्री नागार्जुन हैं। कवि घुमक्कड़ स्वभाव का था और जगह-जगह घूमता रहता था। उसने जब अपने छोटे से बच्चे के मुँह में छोटे-छोटे दाँत देखे तो उसे अपार प्रसन्नता हुई। उसने अपने भावों को अनेक बिंबों के माध्यम से प्रकट किया।
व्याख्या- कवि अपने छोटे से बच्चे को संबोधित करता हुआ कहता है कि तुम्हारे छोटे-छोटे दाँतों से सजे हुए और भरे मुंह की मुसकान इतनी आकर्षक है कि वह तो मृतकों में भी जान डालने की क्षमता रखती है। वह तो जीवन का संदेश देती है। तुम्हारे शरीर का अंग-प्रत्यंग धूल-मिट्टी में सना हुआ है। मुझे ऐसा लगता है कि तुम तालाब को छोड़ कर मेरी निर्धन की झोंपड़ी में खिलने वाले कमल हो। वह तालाब भी पहले पत्थर होगा पर तुम्हारे प्राणों का स्पर्श पा कर वह पिघल गया होगा और जल बन गया होगा। चाहे वह बाँस हो या बबूल, पर तुम से छू कर उससे भी शेफालिका के कोमल फूल झड़ने लगते हैं। कवि उस नन्हें बच्चे से पूछता है कि क्या उसने उसे पहचाना था कि नहीं। क्या वह नन्हा बच्चा हैरानी से भर कर बिना पलकें झपकाए लगातार उसकी ओर देखता ही रहेगा? क्या वह थक गया था? क्या वह उससे मुंह फेर ले? कवि कहता है कि यदि वह उसे पहले पहचान नहीं पाया तो भी कोई बात नहीं। भाव है कि वह अभी बहुत छोटा है पर वह बहुत भोला-भाला और सुंदर है।
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