सिंधु-सभ्यता को जल-संस्कृति भी कह सकते है। इस कथन के पक्ष या विपक्ष में तर्क दीजिए।
नदी, कुएँ, स्नानागार और बेजोड़ निकासी व्यवस्था को देखते हुए अगर लेखक सिन्धु सभ्यता को जल संस्कृति कहता है तो मैं लेखक के इस विचार से पूरी तरह सहमत हूँ। आज हमारे गाँवों एवं शहरों के सामने सबसे बड़ी समस्या जल की उपलब्धता और उसकी निकासी से जुड़ी हुई है। सिन्धु सभ्यता में सामूहिक स्नान के लिए बने स्नानागार वास्तुकला के उदाहरण हैं। एक पात में आठ स्नानघर हैं जिनमें किसी के भी द्वार एक-दूसरे के सामने नहीं खुलते हैं। इसी प्रकार कुंड में पानी, ईंटों का जमाव है। कुंड के तल में और दीवारों पर ईटों के बीच चूने और चिराड़ी के गारे का इस्तेमाल हुआ है जिससे कुंड का पानी रिस न सके और बाहर का ‘अशुद्ध’ पानी कुंड में न आए। इसी प्रकार सिन्धु सभ्यता के नगरों में सड़कों के साथ बनी हुई नालियाँ पक्की ईटों से ढकी है। यह पानी निकासी का सुव्यवस्थित बन्दोबस्त है। आज भी शहरों का नियोजन करते समय इन्हीं बातों का ध्यान रखा जाता है। आधुनिक वास्तुकार सिन्धु सभ्यता की इस व्यवस्था का महत्व स्वीकार करते हैं। इस तरह यह सभ्यता ‘जल संस्कृति’ का स्तर छू लेती है।