जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?
जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे डॉ. अंबेडकर के निम्नलिखित तर्क हैं:
- जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन भी कराती है। सभ्य समाज में श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में विभाजन अस्वाभाविक है। इसे नहीं माना जा सकता।
- जाति प्रथा में श्रम विभाजन मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा निजी क्षमता का विचार किए बिना किसी दूसरे के द्वारा उसके लिए पेशा निर्धारित कर दिया जाए।
- जाति प्रथा मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध देती है, भले ही वह पेशा उसके लिए अनुपयुक्त या अपर्याप्त क्यों न हो। इससे उसके भूखों मरने की नौबत आ सकती है।
इस प्रकार डॉ. अंबेडकर के तर्क यह बताते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से जाति प्रथा गंभीर दोषों से मुका है।