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बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर

Question
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समता का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता। इसका और भी आधार उपलब्ध है। एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है, न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो, मानवता के दृष्टिकोण से समाज दो वर्गों और श्रेणियों में नहीं बाँटा जा सकता।

A.

राजनीतिज्ञ जनता की इच्छाओं की पूर्ति क्यों नहीं कर पाता?

B.

‘समता’ से क्या आशय है? उसकी क्या आवश्यकता है?

C.

राजनीतिज्ञ जनता को खुश रखने के लिए क्या कर सकता है?

D.

समाज को दो वर्गों में क्यों नहीं बाँटा जा सकता?

Solution

A.

राजनीतिज्ञ जनता की इच्छाओं की पूर्ति इसलिए नहीं कर पाता क्योंकि एक ओर बहुत बड़ी जनसंख्या है और दूसरी ओर वह समयाभाव के कारण वह प्रत्येक की आवश्यकता और क्षमता को नहीं पहचान पाता।

B.

‘समता’ से यह आशय है-मानवमात्र के प्रति समान व्यवहार। मानवता के लिए जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठना सामाजिक विकास के लिए आवश्यक।

C.

राजनीतिज्ञ जनता को खुश करने के लिए समता के आधार पर सबको प्रसन्न कर सकता है। मानवता की स्थापना कर सकता है।

D.

समानता का आधार है सबके साथ समान व्यवहार। आवश्यकता और क्षमता होने या न होने के आधार का वर्गीकरण मानवता के दृष्टिकोण से ठीक नहीं है। अत: समाज को दो वर्गों में नहीं बाँटा जा सकता।

Some More Questions From बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर Chapter

यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज ‘कार्य-कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है, कि जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती, बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

1) जातिवाद के पोषकों के समर्थन का आधार क्या है?

2) इस तर्क में क्या बात आपत्तिजनक है?

3) भारत की जाति-प्रथा क्या काम करती है?

4) कथा आप लेखक के मत से सहमत हैं? क्यों?

निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर उत्तर दीजिये-
जाति प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्राय: आतंकी है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व टेक्निक में निरन्तर विकास और कभी-कभी अकस्मात् परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतन्त्रता न हो तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

1. जाति प्रथा पेशे के बारे में क्या गलत काम करती है?
2. आधुनिक युग में यह स्थिति आतंकी क्यों है?
3. हिंदू धर्म की जाति प्रथा व्यक्ति को क्या अधिकार नहीं देती?
4. भारत में जाति प्रथा बेरोजगारी और भुखमरी का कारण क्यों बनी हुई है?



निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर उत्तर दीजिये- 
श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता। ‘पूर्व लेख’ ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग ‘निर्धारित’ कार्य को ‘अरुचि’ के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावत: मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने व कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। भारत में ऐसे अनेक व्यवसाय या उद्योग हैं जिन्हें ‘हिंदू लोग’ घृणित मानता है और इस कारण इनमें लगे हुए लोगों में अपने काम के प्रति अरुचि व विरक्ति बनी रहती है क्योंकि इन व्यवसायों को करने के कारण ही हिन्दू समाज उन्हें भी घृणित और त्याज्य समझता है, अत: प्रत्येक व्यक्ति ऐसे व्यवसायों से बचना व उनसे भागना चाहता है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अत: यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकारक प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि व आत्म-शक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ा कर निष्क्रिय बना देती है।

1. जाति प्रथा का दोष क्या है?
2. आज की बड़ी समस्या क्या नहीं है और क्या है?
3. व्यक्ति किस प्रकार के व्यवसायों से बचना व भागना चाहता है?
4. क्या बात निर्विवाद रूप से सिद्ध है?


जाति प्रथा के पोषक, जीवन, शारीरिक-सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मनुष्य के लक्षण एवं प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता का अर्थ होगा अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है, तो उसका अर्थ उसे ‘दासता’ में जकड़कर रखना होगा, क्योंकि ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। ‘दासता’ में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है। उदाहरणार्थ जाति-प्रथा की तरह ऐसे वर्ग होना संभव है, जहाँ कुछ लोगों को अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं।

समता का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता। इसका और भी आधार उपलब्ध है। एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है। अपनी जनता से व्यवहार करते समय राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है, न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी जिससे वह सबकी अलग-अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार वांछित व्यवहार अलग-अलग कर सके। वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो, मानवता के दृष्टिकोण से समाज दो वर्गों और श्रेणियों में नहीं बाँटा जा सकता।

जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?

जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?

लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?

शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक परंपरा की दृष्टि में असमानता संभावित रहने के बावजूद डॉ. अंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?

सही में डॉ. आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व और मान्यता के लिए जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों व जीवन सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?