यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज ‘कार्य-कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है, कि जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती, बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
1) जातिवाद के पोषकों के समर्थन का आधार क्या है?
2) इस तर्क में क्या बात आपत्तिजनक है?
3) भारत की जाति-प्रथा क्या काम करती है?
4) कथा आप लेखक के मत से सहमत हैं? क्यों?
1) जातिवाद के पोषक अपनी मान्यता के समर्थन में यह कहते हैं कि आधुनिक सभ्य समाज में कार्यकुशलता लाने के लिए श्रम विभाजन आवश्यक है। जाति प्रथा इसी श्रम विभाजन का दूसरा रूप है अत: इसमें कोई बुराई नहीं है।
2) इस तर्क में यह बात आपत्तिजनक है कि यह जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है। यह ठीक है कि श्रम विभाजन सभ्य समाज की आवश्यकता है परंतु कोई भी सभ्य समाज श्रमिकों का विभिन्न श्रेणियों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करता।
3) भारत की जाति प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन तो करती ही है, इसके साथ-साथ विभाजित वर्गो को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है। ऐसा विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
4) हाँ, हम लेखक के मत से सहमत हैं। भारत में जातिवाद एक गलत रूप लेता जा रहा है। श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में विभाजन अनुचित है।