निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।।
माता पितहि उरिन भय नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जी कें।।
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढां।।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देऊँ मैं थैली खोली।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।
भृगुबर परसु देखाबहु मोही। बिप्र विचारि बचौं नृपद्रोही।।
मिले ने कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े।।
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे।।
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोप कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।
प्रसंग- प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के ‘बाल कांड’ से लिया गया है। लक्ष्मण और परशुराम में सीता स्वयंवर के समय शिवजी के धनुष टूट जाने पर विवाद हुआ था जिसे राम ने अधिक बढ़ने से पहले ही रोक दिया था।
व्याख्या- लक्ष्मण ने कहा-हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता- पिता से तो भली-भांति ऋणमुक्त हो ही चुके हैं। अब गुरु का ऋण आप पर रह गया है जिसका आपके मन पर बड़ा बोझ है; आपको उसकी चिंता सता रही है। वह ऋण मानो हमारे ही माथे निकाला था। बहुत दिन बीत गए। इसमें ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब-किताब करने वाले को बुला लाइए, तो मैं तुरंत थैली खोलकर उधार चुका दूँ। लक्ष्मण के कड़वे वचन सुनकर परशुराम ने अपना फरसा संभाला। सारी सभा हाय! हाय! करके पुकार उठी। लक्ष्मण ने कहा-हे भृगु श्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु! मैं आपको ब्राहमण समझकर अब तक बचा रहा हूँ। लगता है कि आपको कभी रणधीर बलवान् वीर नहीं मिले। हे ब्राह्मण, देवता आप घर ही में बड़े हैं। यह सुनते ही सभी लोग पुकार उठे कि ‘यह अनुचित है, अनुचित है, तब रघुकुल पति श्री राम ने संकेत से लक्ष्मण को रोक दिया। लक्ष्मण के उत्तर जो आहुति के समान थे, परशुराम के क्रोध रूपी आग को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री राम ने जल के समान शीतल वचन कहे।