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तुलसीदास - राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद
तुलसीदास ने अवधी भाषा के लोकप्रिय और परिनिष्ठित रूप को साहित्यिक रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने व्याकरण के नियमों का पूर्ण रूप से निर्वाह किया है। उनकी भाषा में कहीं भी शिथिलता दिखाई नहीं देती। उनकी वाक्य-रचना पूर्ण रूप से निर्दोष है। उन्होंने शब्द प्रयोग में उदार नीति का परिचय दिया है जिसमें तत्सम- तद्भव शब्दावली के साथ देशी शब्दों का प्रयोग दिखाई देता है। लोक प्रचलित मुहावरों और लोकोक्तियों के कारण उनकी भाषा सजीव, प्रवाहपूर्ण और प्रभावशाली बन गई है-
(i) गाधिसू नु कह ह्रदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
(ii) मिले न कबहुँ सुभर रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बाड़े।।
गोस्वामी जी ने प्रसंगानुकूल भाषा का प्रयोग किया है। रसकी अनुकूलता के अतिरिक्त उन्होंने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि किस स्थान पर किस शब्द का प्रयोग किया जाए। उनकी भाषा सर्वत्र भावों और विचारों की सफल अभिव्यक्ति मे समय दिखाई देती है। गुण के सहारे रस की अभिव्यक्ति करने में उन्होंने सफलता पाई है। उनकी भाषा की वर्ण मैत्री दर्शनीय है। इन्होने नाद सौंदर्य का पूरा ध्यान रखा है। वास्तव में भाषा पर जैसा अधिकार तुलसीदास जी का है वैसा किसी भी और हिंदी कवि का नहीं है।
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