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कवि ने फसल को हजार-हजार खेतों की मिट्टी का गुण-धर्म कहा है-
मिट्टी के गुण-धर्म को आप किस तरह परिभाषित करेंगे?
कवि ने फसल को हजार-हजार खेतों की मिट्टी का गुण-धर्म कहा है-
वर्तमान जीवन शैली मिट्टी के गुण-धर्म को किस-किस तरह प्रभावित करती है?
मिट्टी द्वारा अपना गुण-धर्म छोड़ने की स्थिति में क्या किसी भी प्रकार के जीवन की कल्पना की जा सकती है?
मिट्टी के गुण-धर्म को पोषित करने में हमारी क्या भूमिका हो सकती है?
91-मॉडल टाऊन,
कानपुर
23 मार्च, 20..... .
संपादक,
दैनिक भास्कर,
लखनऊ।
विषय: सुदृढ़ कृषि-व्यवस्था हेतु सुझाव।
मान्यवर,
मैं आप के समाचार-पत्र के माध्यम से सुदृढ़ कृषि-व्यवस्था हेतु कुछ सुझाव देना चाहता हूँ जो किसानों और उनके खेतों के लिए निश्चित रूप से महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे। हमारा देश कृषि-प्रधान देश है। इसकी लगभग 80% जनता गाँवों में ही रहती है और वह किसी-न-किसी प्रकार से कृषि पर ही आश्रित हैं।
सुदृढ़ कृषि व्यवस्था के लिए खेती योग्य अधिकतम भूमि पर हमें फसल उगाने की योजनाएं बनानी चाहिएँ। कृषि करने की परंपरागत पद्यति को त्याग कर वैज्ञानिक आधार पर फसलें उगानी चाहिए। हर खेत की मिट्टी एक-सी फसल उगाने योग्य नहीं होती। कृषि संस्थानों से मिट्टी की परख करवाकर हमें जान लेना चाहिए कि वह किस प्रकार की फसल के लिए अधिक उपयोगी है। यदि उसमें किसी विशेष तत्त्व की कमी है तो उसे रासायनिक पदार्थो के प्रयोग से पूरा कर लेना चाहिए। फसल के लिए उन्नत और संकरण से प्राप्त बीज ही बोने चाहिएं जो कृषि संस्थानों से प्राप्त हो जाते हैं। समय-समय पर खरपतवार नाशियों और कीटनाशियों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। सिंचाई के लिए परंपरागत तरीके छोड़ कर स्पिंरकरज़ का प्रयोग करना चाहिए। इससे सारे खेत की सिंचाई एक समान होती है। उर्वरकों के साथ-साथ कंपोस्ट और वर्मीकंपोस्ट का प्रयोग करना चाहिए। इससे फसल की प्राप्ति अच्छी होती है। सुदृढ़ कृषि व्यवस्था के अंतर्गत फूलों की खेती की और अवश्य ध्यान देना चाहिए। वर्ष भर में केवल दो फसलें प्राप्त न कर तीन-चार अंतराफसलें प्राप्त करनी चाहिए। कीटनाशियों के अच्छे प्रयोग से भी हम अपनी फसलों को नष्ट होने से बचा सकते हैं।
आशा है कि आप अपने प्रतिष्ठित समाचार-पत्र में इन सुझावों को स्थान देंगे।
भवदीय,
राकेश भारद्वाज।
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प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियां हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज भाग–2 में संकलित कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ से ली गई हैं। इसके रचयिता श्री नागार्जुन हैं। कवि घुमक्कड़ स्वभाव का था और जगह-जगह घूमता रहता था। उसने जब अपने छोटे से बच्चे के मुँह में छोटे-छोटे दाँत देखे तो उसे अपार प्रसन्नता हुई। उसने अपने भावों को अनेक बिंबों के माध्यम से प्रकट किया।
व्याख्या- कवि अपने छोटे से बच्चे को संबोधित करता हुआ कहता है कि तुम्हारे छोटे-छोटे दाँतों से सजे हुए और भरे मुंह की मुसकान इतनी आकर्षक है कि वह तो मृतकों में भी जान डालने की क्षमता रखती है। वह तो जीवन का संदेश देती है। तुम्हारे शरीर का अंग-प्रत्यंग धूल-मिट्टी में सना हुआ है। मुझे ऐसा लगता है कि तुम तालाब को छोड़ कर मेरी निर्धन की झोंपड़ी में खिलने वाले कमल हो। वह तालाब भी पहले पत्थर होगा पर तुम्हारे प्राणों का स्पर्श पा कर वह पिघल गया होगा और जल बन गया होगा। चाहे वह बाँस हो या बबूल, पर तुम से छू कर उससे भी शेफालिका के कोमल फूल झड़ने लगते हैं। कवि उस नन्हें बच्चे से पूछता है कि क्या उसने उसे पहचाना था कि नहीं। क्या वह नन्हा बच्चा हैरानी से भर कर बिना पलकें झपकाए लगातार उसकी ओर देखता ही रहेगा? क्या वह थक गया था? क्या वह उससे मुंह फेर ले? कवि कहता है कि यदि वह उसे पहले पहचान नहीं पाया तो भी कोई बात नहीं। भाव है कि वह अभी बहुत छोटा है पर वह बहुत भोला-भाला और सुंदर है।
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अतिशयोक्ति- तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
मृतक में भी डाल देगी जान।
उत्प्रेक्षा-
• छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल उठे जलजात।
• पिंघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण।
• छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल।
अनुप्रास- ‘परस पाकर’, ‘धूलि-धूसर’।
प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज भाग-2 से अवतरित किया गया है। इसे नागार्जुन के द्वारा रचित कविता ‘यह दंतुरित मुसकान’ से लिया गया है। कवि लंबे समय तक कहीं बाहर रहने के पश्चात् वापिस अपने घर लौटा था और उसने अपने बच्चे के मुँह में जो छोटे-छोटे दाँतों की सुंदर चमक से शोभायमान मुसकान को देखा था। इससे उसे अपार प्रसन्नता हुई थी।
व्याख्या- कवि कहता है कि हे सुंदर दाँतों वाले मेरे बच्चे, यदि तुम्हारी माँ तुम्हारे और मेरे बीच माध्यम न बनी होती तो मैं कभी भी तुम्हें और तुम्हारी सुंदर पुष्ट को देख न पाता और न ही तुम्हें जान पाता। तुम धन्य हो और तुम्हारी माँ भी धन्य है। मैं तुम दोनों का आभारी हूँ। मैं तो लंबे समय से कहीं बाहर था इसलिए मैं तो तुम्हारे लिए कोई दूसरा हूँ, पराया हूँ। मेरे प्यारे बच्चे, मैं तुम्हारे लिए मेहमान की तरह हूँ इसलिए तुम्हारा मेरे साथ कोई संबंध नहीं रहा, तुम्हारे लिए मैं अनजाना-सा हूँ। मेरी अनुपस्थिति में तुम्हारी माँ ही आत्मीयतापूर्वक तुम्हारा पालन-पोषण करती रही। तुम्हें अपना प्यार प्रदान करती रही। वही तुम्हारा पंचामृत से पालन-पोषण करती रही। तुम मुझे देख कर हैरान से थे और मेरी ओर कनखियों से देख रहे थे। जब कभी अचानक तुम्हारी और मेरी दृष्टि मिल जाती थी तो मुझे तुम्हारे मुँह में तुम्हारे चमकते हुए सुदर दाँतों से युक्त मुसकान दिखाई दे जाती थी। सच ही मुझे तुम्हारी दूधिया दांतों से सजी मुसकान बहुत सुंदर लगती है। मैं तो तुम्हारी मुसकान पर मुग्ध हूँ।
तद्भव = माँ, मुसकान।
तत्सम = प्रवासी, संपर्क।
प्रसंग- प्रस्तुत कविता फसल हमारी पाठ्य पुस्तक ‘क्षितिज’ भाग-2 में संकलित की गई है जिसके रचयिता श्री नागार्जुन हैं। कवि ने स्पष्ट किया है कि फसल उत्पन्न करने के लिए मनुष्य और प्रकृति मिलकर एक-दूसरे का सहयोग करते हैं।
व्याख्या- कवि कहता है कि फसल को उत्पन्न करने के लिए एक-दो नहीं बल्कि अनेक नदियों से प्राप्त होने वाला पानी अपना जादुई प्रभाव दिखाता है। उसी पानी के कारण यह पनपती है, बढ़ती है। इसे उगाने के लिए किसी एक व्यक्ति के नहीं, दो के नहीं बल्कि लाखों-करोड़ों हाथों के द्वारा छूने की गरिमा छिपी हुई है। यह लाखों-करोड़ों इंसानों के परिश्रम का परिणाम है। इसमें एक-दो खेतों की मिट्टी नहीं प्रयुक्त हुई। इसमें तो हजारों खेतों की उपजाऊ मिट्टी की विशेषताएं छिपी हुई हैं। मिट्टी का गुण-धर्म इसमें छिपा हुआ है। फसल क्या है? यह तो नदियों के द्वारा लाए गए पानी का जादू है जिससे इसे उपजाने में सहायता दी। इसमें न जाने कितने लोगों के हाथों का परिश्रम छिपा है। यह उन हाथों की महिमा का परिणाम है। भूरी-काली-संदली मिट्टी की विशेषताएं इसमें विद्यमान हैं। यह सूर्य की किरणों का फसल के रूप में परिवर्तन है। सूर्य ने अपनी किरणों से उसे बढ़ाया है। जीवन दिया है। हवा ने इसे थिरकने और इधर- उधर डोलने का गुण प्रदान किया है। भाव यह है कि फसल प्रकृति और मनुष्य के सामूहिक प्रयत्नों का परिणाम है।
फसल सूर्य के प्रकाश का अनाज के रूप में रूपांतरण है।
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तद्भव = हाथ, मिट्टी
तत्सम = स्पर्श, गरिमा।
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