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डॉ. आंबेडकर का जीवन-परिचय देते हुए उनके कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा रचनाओं का नामोल्लेख कीजिए।
डॉ. भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महू (मध्य प्रदेश) में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा के बाद बड़ौदा नरेश के प्रोत्साहन पर वे उच्चतर शिक्षा के लिए न्यूयार्क (अमेरिका) फिर वहाँ से लंदन गए। पूरा वैदिक वाङ्मय अनुवाद के जरिये पढ़ा और ऐतिहासिक-सामाजिक क्षेत्र में अनेक मौलिक संस्थापनाएँ प्रस्तुत कीं। सब मिलाकर वे इतिहास-मीमांसक, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षाविद् तथा धर्म-दर्शन के व्याख्याता बन कर उभरे। स्वदेश में कुछ समय उन्होंने वकालत भी की। समाज और राजनीति में बेहद सक्रिय भूमिका निभाते हुए उन्होंने अछूतों, स्त्रियों और मजदूरों को मानवीय अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए अथक संघर्ष किया।
भारतीय संविधान के निर्माताओं में से एक डॉ. भीमराव आंबेडकर आधुनिक भारतीय चिंतन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं। उन्होंने जीवन भर दलितों की मुक्ति एवं सामाजिक समता के लिए संघर्ष किया। उनका पूरा लेखन इसी संघर्ष और सरोकार से जुड़ा हुआ है। स्वयं दलित जाति में जन्मे डॉ. आंबेडकर को बचपन से ही जाति-आधारित उत्पीड़न-शोषण एवं अपमान से गुजरना पड़ा था। इसीलिए विद्यालय के दिनों मे जब एक अध्यापक ने उनसे पूछा कि “तुम पढ़-लिख कर क्या बनोगे?” तो बालक भीमराव ने जवाब दिया था मैं पढ़-लिखकर वकील बनूँगा, अछूतों के लिए नया कानून बनाऊँगा और छुआछूत को खत्म करूँगा। डॉ. आंबेडकर ने अपना पूरा जीवन इसी संकल्प के पीछे झोंक दिया। इसके लिए उन्होंने जमकर पढ़ाई की। व्यापक अध्ययन एवं चिंतन-मनन के बल पर उन्होंने हिंदुस्तान के स्वाधीनता संग्राम में एक नई अंतर्वस्तु भरने का काम किया। वह यह था कि दासता का सबसे व्यापक व गहन रूप सामाजिक दासता है और उस उन्मूलन के बिना-कोई भी स्वतंत्रता कुछ लोगों का विशेषाधिकार रहेगी इसीलिए अधूरी होगी।
उनके चिंतन व रचनात्मकता के मुख्यत: तीन प्रेरक रहे-बुद्ध, कबीर और (विशेषकर) ज्योतिबा फुले। जातिवादी उत्पीड़न के कारण हिंदू समाज से मोहभंग होने के बाद वे बुद्ध के समतावादी दर्शन में आश्वस्त हुए और 14 अक्टूबर, 1956 ई. को 5 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध मतानुयायी बन गए।
भारत के संविधान-निर्माण में उनकी महती भूमिका और एकनिष्ठ समर्पण के कारण ही हम आज उन्हें भारतीय संविधान का निर्माता कहकर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनकी समूची बहुमुखी विद्वत्ता एकांत ज्ञान-साधना की जगह मानव-मुक्ति व जन-कल्याण के लिए थी-यह बात वे अपने चिंतन और क्रिया के क्षणों से बराबर साबित करते रहे। अपने इस प्रयोजन में वे अधिकतर सफल भी हुए। उनका निधन 6 दिसम्बर, 1956 में हुआ।
प्रमुख रचनाएँ: दॅ कास्ट्स इन इण्डिया, देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एण्ड डेवलपमेंट (1917 प्रथम प्रकाशित कृति); दॅ अनटचेबल्स, हू आर दे? (1948); हू आर दॅ शूद्राज (1946); बुद्धा एंड हिच ध मा (1957); थाट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स (1955), दॅ प्रोब्लम ऑफ द रूपी (1923); द एबोलुशन ऑफ प्रोविंशियल फायनांस इन ब्रिटिश इंडिया (पी. एच. डी. की थीसिस 1916), द राइज एण्ड फॉल ऑफ द हिंदू वीमैन (1965); एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (1936): लेबर एंड पार्लियामेंट्री डैमोक्रेसी (1943), बुद्धिज्म एण्ड कम्यूनिज्म (1956) (पुस्तकें व भाषण); मूक नायक, बहिष्कृत भारत, जनता (पत्रिका-संपादन)।
हिंदी में उनका संपूर्ण वाङ्मय भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय से बाबा साहब आंबेडकर संपू र्ण वाङमय नाम से 21 खंडों में प्रकाशित हो चुका है।
यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज ‘कार्य-कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है, कि जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती, बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
1) जातिवाद के पोषकों के समर्थन का आधार क्या है?
2) इस तर्क में क्या बात आपत्तिजनक है?
3) भारत की जाति-प्रथा क्या काम करती है?
4) कथा आप लेखक के मत से सहमत हैं? क्यों?
1) जातिवाद के पोषक अपनी मान्यता के समर्थन में यह कहते हैं कि आधुनिक सभ्य समाज में कार्यकुशलता लाने के लिए श्रम विभाजन आवश्यक है। जाति प्रथा इसी श्रम विभाजन का दूसरा रूप है अत: इसमें कोई बुराई नहीं है।
2) इस तर्क में यह बात आपत्तिजनक है कि यह जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है। यह ठीक है कि श्रम विभाजन सभ्य समाज की आवश्यकता है परंतु कोई भी सभ्य समाज श्रमिकों का विभिन्न श्रेणियों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करता।
3) भारत की जाति प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन तो करती ही है, इसके साथ-साथ विभाजित वर्गो को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है। ऐसा विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
4) हाँ, हम लेखक के मत से सहमत हैं। भारत में जातिवाद एक गलत रूप लेता जा रहा है। श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में विभाजन अनुचित है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर उत्तर दीजिये-
जाति प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्राय: आतंकी है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व टेक्निक में निरन्तर विकास और कभी-कभी अकस्मात् परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतन्त्रता न हो तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।
1. जाति प्रथा पेशे के बारे में क्या गलत काम करती है?
2. आधुनिक युग में यह स्थिति आतंकी क्यों है?
3. हिंदू धर्म की जाति प्रथा व्यक्ति को क्या अधिकार नहीं देती?
4. भारत में जाति प्रथा बेरोजगारी और भुखमरी का कारण क्यों बनी हुई है?
1. जाति पेशे के बारे में यह गलत काम करती है कि वह पेशे का पूर्वनिर्धारण कर देती है और व्यक्ति को एक पेशे के साथ बाँध देती है। भले ही वह पेशा उस व्यक्ति के लिए उपयुक्त और पर्याप्त न हो।
2. आधुनिक युग में यह स्थिति इसलिए आतंकी है क्योंकि उद्योग-धंधों की टैक्निक तथा प्रक्रिया मे निरंतर विकास और परिवर्तन होता रहता है। इसके कारण व्यक्ति को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है पर जाति प्रथा उसे ऐसा नहीं करने देती।
3. हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की स्वतंत्रता नहीं देती जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसे करने में कुशलता प्राप्त किए हुए हो।
4. भारत में जाति प्रथा बेरोजगारी और भुखमरी का कारण इसलिए बनी हुई है क्योंकि इसमे पेशा-परिवर्तन की अनुमति नहीं है। एक व्यक्ति को अपना पैतृक पेशा ही करना पड़ता है भले वह उसके लिए उपयुक्त न हो। इससे वह बेरोजगार भी हो सकता है तथा भूखों मरने की स्थिति तक भी पहुँच सकता है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर उत्तर दीजिये-
श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता। ‘पूर्व लेख’ ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग ‘निर्धारित’ कार्य को ‘अरुचि’ के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावत: मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने व कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। भारत में ऐसे अनेक व्यवसाय या उद्योग हैं जिन्हें ‘हिंदू लोग’ घृणित मानता है और इस कारण इनमें लगे हुए लोगों में अपने काम के प्रति अरुचि व विरक्ति बनी रहती है क्योंकि इन व्यवसायों को करने के कारण ही हिन्दू समाज उन्हें भी घृणित और त्याज्य समझता है, अत: प्रत्येक व्यक्ति ऐसे व्यवसायों से बचना व उनसे भागना चाहता है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अत: यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकारक प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि व आत्म-शक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ा कर निष्क्रिय बना देती है।
1. जाति प्रथा का दोष क्या है?
2. आज की बड़ी समस्या क्या नहीं है और क्या है?
3. व्यक्ति किस प्रकार के व्यवसायों से बचना व भागना चाहता है?
4. क्या बात निर्विवाद रूप से सिद्ध है?
1. जाति प्रथा का सबसे बड़ा दोष यह है कि जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की अपनी इच्छा पर निर्भर नहीं रहता। इसमें मनुष्य की व्यक्तिगत भावना या रुचि को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता।
2. आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न समस्या होते हुए भी इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी बड़ी समस्या यह है कि बहुत से लोग अपने निर्धारित काम को अरुचि के साथ विवशतावश करते हैं। यह प्रवृत्ति टालू काम करने व कम काम करने को प्रेरित करती है।
3. व्यक्ति उन व्यवसायों से बचना एवं भागना चाहता है जिन्हें समाज घृणित मानता है। यही कारण है कि इस प्रकार के कामों में लगे लोग अपना काम अरुचि व विरक्ति के साथ करते हैं। हिंदू समाज इन्हें त्याज्य मानता है।
4. यह बात निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि आर्थिक पहलू से भी ज्यादा खतरनाक एवं हानिकारक जाति प्रथा है। इसका कारण यह है कि यह मनुष्य की स्वाभाविक रुचि एवं आत्मशक्ति को दबाकर उसे निष्क्रिय बना डालती है।
जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?
जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे डॉ. अंबेडकर के निम्नलिखित तर्क हैं:
- जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन भी कराती है। सभ्य समाज में श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में विभाजन अस्वाभाविक है। इसे नहीं माना जा सकता।
- जाति प्रथा में श्रम विभाजन मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा निजी क्षमता का विचार किए बिना किसी दूसरे के द्वारा उसके लिए पेशा निर्धारित कर दिया जाए।
- जाति प्रथा मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध देती है, भले ही वह पेशा उसके लिए अनुपयुक्त या अपर्याप्त क्यों न हो। इससे उसके भूखों मरने की नौबत आ सकती है।
इस प्रकार डॉ. अंबेडकर के तर्क यह बताते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से जाति प्रथा गंभीर दोषों से मुका है।
जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?
जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी और भुखमरी का भी कारण बनती रही है। जब समाज किसी व्यक्ति को जाति के आधार पर किसी एक पेशे में बाँध देता है और यदि वह पेशा उस व्यक्ति के लिए अनुपयुक्त हो या अपर्याप्त हो तो उसके सामने भुखमरी की स्थिति खड़ी हो जाती है। जब जाति प्रथा के बंधन के कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं होती तब भला उसके सामने भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है। भारतीय समाज पैतृक पेशा अपनाने पर ही जोर देता है भले इस पेशे में वह पारंगत न हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनती रही है।
आज इस स्थिति में परिवर्तन आ रहा है। आज व्यक्ति को अपना पेशा चुनने या बदलने का अधिकार है। सरकार की आरक्षण नीति से भी स्थिति में बदलाव आया है। अब भारतीय समाज का उतना बंधन नहीं रह गया है।
लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?
लेखक के मतानुसार ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा यह है जिसमें किसी को इस प्रकार की स्वतंत्रता न देना कि वह अपना व्यवसाय चुन सके। इसका सीधा अर्थ उसे ‘दासता’ मे जकड़कर रखना होगा। ‘दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को ही नही कहा जाता, बल्कि दासता में वह स्थिति भी शामिल है जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्त्तव्यो का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है।
शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक परंपरा की दृष्टि में असमानता संभावित रहने के बावजूद डॉ. अंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?
शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक परंपरा की दृष्टि में असमानता संभावित रहने के बावजूद डॉ. आंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह इसलिए करते हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास का पूरा। अधिकार है। हमें ऐसे व्यक्तियों के साथ यथासंभव समान व्यवहार करना चाहिए। समाज के सभी सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर एव समान व्यवहार उपलब्ध कराये जाने चाहिए। व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। ‘समता’ यद्यपि काल्पनिक वस्तु है फिर भी सभी परिस्थितियो को दृष्टि में रखते हुए यही मार्ग (समता का) उचित है और व्यावहारिक भी है।
सही में डॉ. आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व और मान्यता के लिए जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों व जीवन सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?
डॉ. आंबेडकर भावनात्मक समत्व और मान्यता के लिए जातिवाद का उन्मूलन चाहते थे। जातिवाद की भावना भावनात्मक समता में बाधा उपस्थित करती है। भावनात्मक समता तभी प्रतिष्ठित हो पाएगी जब समान भौतिक स्थितियाँ व जीवन सुविधाएँ उपलब्ध होंगी। जातिवाद के उन्मूलन होने पर ही यह संभव हो पाएगा। जातिवाद असमान व्यवहार को उचित ठहराता है। समाज को यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है तो यह तभी संभव है जब समाज के सभी सदस्यों को भौतिक स्थितियों व जीवन सुविधाओं को समान रूप से उपलब्ध कराया जाएगा। हाँ, हम सबसे सहमत हैं।
आदर्श समाज के तीन तत्त्वों में से एक ‘भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातृता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे?
लेखक ने आदर्श समाज के ये तीन तत्त्व बताए हैं-
1. स्वतंत्रता।
2. समता।
3. भ्रातृता।
लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है। हम ‘भ्रातृता’ शब्द के स्थान पर ‘बंधुता’ शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझते हैं। यह शब्द अधिक स्पष्ट है। इसमें साथियों के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव है।
छात्र चर्चा करें तथा बिंदुओं को लिखें।
आंबेडकर की पुस्तक ‘जाति-भेद का उच्छेद’ की तरह राजकिशोर की पुस्तक भी है ‘जाति कौन तोड़ेगा?’ शिक्षक की सहायता से दोनों उपलब्ध कर पढ़िए।
छात्र इन पुस्तकों को पढ़ें।
छात्र इस पुस्तक को पढ़े.।
जाति प्रथा क्यों स्वीकार्य नहीं है?
जाति प्रथा इसलिए स्वीकार्य नहीं है क्योंकि यदि जाति प्रथा को श्रम विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे यह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किये बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही अर्थात् गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।
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क्या स्वतंत्रता की बात पर कोई आपत्ति हो सकती है?
स्वतंत्रता पर भी कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। गमनागमन की स्वाधीनता, जीवन तथा शारीरिक सुरक्षा की स्वाधीनता के अर्थों में शायद ही कोई ‘स्वतंत्रता’ का विरोध करे। इसी प्रकार संपत्ति के अधिकार, जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक औजार व सामग्री रखने के अधिकार जिससे शरीर को स्वस्थ रखा जा सके के अर्थ में भी ‘स्वतंत्रता’ पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तो फिर मनुष्य की शक्ति के समक्ष एवं प्रभावशाली प्रयोग की भी स्वतंत्रता प्रदान की जानी चाहिए।
जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? भीमराव अंबेडकर के विचारों के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी और भुखमरी का कारण बनती रही है। जब समाज किसी व्यक्ति को जाति के आधार पर किसी एक पेशे में बाँध देता है और यदि वह पेशा उस व्यक्ति के लिए अनपयुक्त हो या अपर्याप्त हो तो उसके सामने भुखमरी की स्थिति खड़ी हो जाती हैँ। जब जाति प्रथा के बंधन के कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं होती तब भला उसके सामने भूखो मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है। भारतीय समाज पैतृक पेशा अपनाने पर ही जोर देता है भले इस पेशे मे वह पारंगत न हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनती रही है।
आज इस स्थिति में परिवर्तन आ रहा है। आज व्यक्ति को अपना पेशा चुनने या बदलने का अधिकार है। सरकार की आरक्षण नीति से भी स्थिति में बदलाव आया है। अब भारतीय समाज का उतना बंधन नहीं रह गया है।
लेखक आदर्श समाज के बारे में अपना क्या स्पष्टीकरण देता है?
लेखक आदर्श समाज की धारण पर अपना स्पष्टीकरण इस प्रकार देता है-
मेरा आदर्श-समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा। क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृता अर्थात् भाईचारे में किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है? किसी भी आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह है कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलत: सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का लाभ प्राप्त है।
लेखक ‘समता’ पर विचार करते समय क्या बात समझाता है?
लेखक ‘समता’ पर विचार करते समय समझाता है-‘समता’ पर किसी को आपत्ति नही हो सकती है। फ्रांसीसी क्रांति के नारे में ‘समता’ शब्द ही विवाद का विषय रहा है। ‘समता’ के आलोचक यह कह सकते हैं कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते और उनका यह तर्क वजन भी रखता है। लेकिन तथ्य होते हुए भी यह विशेष महत्त्व नहीं रखता क्योंकि शाब्दिक अर्थ में ‘समता’ असंभव होते हुए भी यह नियामक सिद्धांत है। मनुष्यों की समता तीन बातों पर निर्भर रहती है-(1) शारीरिक वंश परंपरा, (2) सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात् सामाजिक परंपरा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना, शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि, सभी उपलब्धियाँ जिनके कारण सभ्य समाज, जंगली लोगों की अपेक्षा विशिष्टता प्राप्त करता है और अंत में (3) मनुष्य के अपने प्रयत्न। इन तीनों दृष्टियों से निसंदेह मनुष्य समान नहीं होते। तो क्या इन विशेषताओं के कारण समाज को भी उनके साथ असमान व्यवहार करना चाहिए? समता विरोध करने वालों के पास इसका जवाब नही है।
श्रम विभाजन की दृष्टि भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। तर्क सहित स्पष्ट कीजिए।
श्रम-विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषो से युक्त है। इस विषय में निम्नलिखित तर्क दृष्टव्य हैं-
1. जाति-प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता।
2. इसमें मनुष्य की व्यक्तिगत भावना और रुचि का कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं होता।
3. जाति-प्रथा द्वारा श्रम विभाजन मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त कर चालू काम करने व कम काम करने के लिए प्रेरित करती है।
4. जाति-प्रथा के कारण श्रम-विभाजन होने पर निम्न कार्य समझे जाने वाले कार्य को करने वाले श्रमिक को भी हिंदू समाज घृणित एवं त्याज्य समझता है।
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