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शीतयुद्ध के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन ग़लत है?
यह संयुक्त राज्य अमरीका, सोवियत संघ और उनके साथी देशों के बीच की एक प्रतिस्पर्धा थी।
यह महाशक्तियों के बीच विचारधाराओं को लेकर एक युद्ध था।
शीतयुद्ध ने हथियारों की होड़ शुरू की।
अमरीका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।
D.
अमरीका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।
निम्न में से कौन-सा कथन गुट-निरपेक्ष आंदोलन के उद्देश्यों पर प्रकाश नहीं डालता ?
उपनिवेशवाद से मुक्त हुए देशों को स्वतंत्र नीति अपनाने में समर्थ बनाना।
किसी भी सैन्य संगठन में शामिल होने से इंकार करना।
वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।
वैश्विक आर्थिक असमानता की समाप्ति पर ध्यान केंद्रित करना।
C.
वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।
नीचे कुछ देशों की एक सूची दी गई है। प्रत्येक के सामने लिखें कि वह शीतयुद्ध के दौरान किस गुट से जुड़ा था?
(क) पोलैंड
(ख) फ्रांस
(ग) जापान
(घ) नाइजीरिया
(ङ) उत्तरी कोरिया
(च) श्रीलंका
(क) पोलैंड - साम्यवादी गुट
(ख) फ्रांस - पूँजीवादी गुट
(ग) जापान - पूँजीवादी गुट
(घ) नाइजीरिया - गुट निरपेक्ष
(ङ) उत्तरी कोरिया - साम्यवादी गुट
(च) श्रीलंका - गुट निरपेक्ष
शीतयुद्ध से हथियारों की होड़ और हथियारों पर नियंत्रण - ये दोनों ही प्रक्रियाएँ पैदा हुई । इन दोनों प्रक्रियाओं के क्या कारण थे?
शीतयुद्ध के दौरान विश्व के सामने अनेक संकट आए तथा उसी दौरान खूनी लड़ाइयाँ भी लड़ी गई, लेकिन हम तीसरे विश्वयुद्ध से बचे रहे। मध्यस्थ के माध्यम से युद्ध को कई बार टाला गया। अंत में यह बात उभरकर सामने आई कि किसी भी तरह से युद्ध को टालना जरूरी है। इसी वजह से दोनों महाशक्तियों ने अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए उचित व्यवहार पर बल दिया।
हालाँकि शीतयुद्ध के दौरान दोनों ही गठबंधनों के बीच प्रतिद्वंदिता समाप्त नहीं हुई थी। इसी कारण एक-दूसरे के प्रति शंका की हालत में दोनों गुटों ने भरपूर हथियार जमा किए और लगातार युद्ध के लिए तैयारी करते रहे। हथियारों के बड़े जखीरे को युद्ध से बचे रहने के लिए जरूरी माना गया।
दोनों देश लगातार इस बात को समझ रहे थे कि संयम के बावजूद युद्ध हो सकता है। दोनों पक्षों में से कोई भी दूसरे के हथियारों की संख्या को लेकर गलत अनुमान लगा सकता था । दोनों गुट एक-दूसरे की मंशा को समझने में भूल कर सकते थे।
इसके अतिरिक्त सवाल यह भी था कि कोई परमाणु दुर्घटना हो गई तो क्या होगा? यदि किसी सैनिक ने शरारत कर दी या कोई गलती से परमाणु हथियार चला देगा तो फिर क्या होगा? इस प्रकार की गलती को शत्रु देश क्या समझेगा तथा उसे वह विश्वास कैसे दिलाया जाएगा कि यह भूलवश हुआ है। इस कारण, समय रहते अमरीका और सोवियत संघ ने कुछेक परमाण्विक और अन्य हथियारों को सीमित या समाप्त करने के लिए आपस में सहयोग करने का फैसला किया।
इसके चलते दोनों महाशक्तियों ने शस्त्रीकरण की होड़ को रोकने के लिए मानव-जाती की भलाई के लिए विभिन्न समझौते किए।
महाशक्तियाँ छोटे देशों के साथ सैन्य गठबंधन क्यों रखती थीं? तीन कारण बताइए?
महाशक्तियों द्वारा छोटे देशों के साथ सैन्य गठबंधन रखें के तीन कारन निम्नलिखित थे:
कभी-कभी कहा जाता है कि शीतयुद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में एक उदाहरण दें।
शीतयुद्ध के सन्दर्भ में सिर्फ ये कहना कि यह सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। ऐसे कहना उचित नहीं होगा क्योंकि दोनों गुटों में विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात अमेरिका तथा सोवियत संघ दो परस्पर विचार धाराओं क्रमश: पूँजीवादी तथा साम्यवाद के रूप में उभरे जिनका कभी तालमेल नहीं हो सकता।
शीतयुद्ध सिर्फ जोर-आजमाइश, सैनिक गठबंधन अथवा शक्ति-संतुलन का मामला भर नहीं था बल्कि इसके साथ-साथ विचारधारा के स्तर पर भी एक वास्तविक संघर्ष जारी था। विचारधारा की लड़ाई इस बात को लेकर थी कि पूरे विश्व में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन को सूत्रबद्ध करने का सबसे बेहतर सिद्धांत कौन-सा है। पश्चिमी गठबंधन का अगुआ अमरीका था और यह गुट उदारवादी लोकतंत्र तथा पूँजीवाद का हामी था। पूर्वी गठबंधन का अगुवा सोवियत संघ था और इस गुट की प्रतिबद्धता समाजवाद तथा साम्यवाद के लिए थी।
लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे कही न कही शक्ति को अर्जित करना भी इसकी एक मुख्या धारणा रही हैं। उदाहरण के लिए क्यूबा का संकट, बलिन संकट तथा कांगो संकट हैं। कई ऐसे क्षेत्र रहे हैं, जहाँ विरोधी गुट ने अपने प्रतिद्वंद्वी को आगे बढ़ने से रोकने या अपने गठबंधन के प्रचार व प्रसार को रोकने का प्रयास किया। उसके पीछे केवल एक ही मंशा रही हैं कि उसकी सैनिक शक्ति व क्षमता को कमज़ोर किया जाए। कही न कही दोनों गुट एक दूसरे के ऊपर खुद को महाशक्ति साबित करना चाहते थे।
शीतयुद्ध के दौरान भारत की अमरीका और सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति क्या थी? क्या आप मानते हैं कि इस नीति ने भारत के हितों को आगे बढ़ाया?
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में शीतयुद्ध के दौर में भारत ने दो स्तरों पर अपनी भूमिका निभाई। शीतयुद्ध के दौरान भारत की अमरीका व सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति दोनों गुटों में शामिल न होने की रही थी जिसके कारण भारत की विदेश नीति को 'गुट निरपेक्षता' की नीति कहा जाता है।
भारत की नीति न तो नकारात्मक थी और न ही निष्क्रियता की थी। नेहरू ने विश्व को याद दिलाया कि गुटनिरपेक्षता कोई 'पलायन' की नीति नहीं है। इसके विपरीत, भारत शीतयुद्धकालीन प्रतिद्वंदिता की जकड़ ढीली करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करने के पक्ष में था। भारत ने दोनों गुटों के बीच मौजूद मतभेदों को कम करने की कोशिश की और इस तरह उसने इन मतभेदों को पूर्णव्यापी युद्ध का रूप लेने से रोका।
कुछ लोगों का तर्क यह रहा है कि यह नीति अंतर्राष्ट्रीयता का एक उदार आदर्श है जो भारतीय हितों के साथ मेल नहीं खाती। यह तर्क ठीक नहीं है। यह गुट-निरपेक्षता की नीति भारत के लिए हितकारी रही है जिन्हें निम्नलिखित तर्कों से स्पष्ट किया जा सकता हैं:
गुट-निरपेक्ष आंदोलन को तीसरी दुनिया के देशों ने तीसरे विकल्प के रूप में समझा। जब शीतयुद्ध अपने शिखर पर था तब इस विकल्प ने तीसरी दुनिया के देशों के विकास में कैसे मदद पहुँचाई?
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब शीत युद्ध अपने चरम पर था तब गुट निरपेक्ष आंदोलन के रूप में एक नई धारणा उभरकर सामने आई।
गुटनिरपेक्ष देश शीतयुद्ध के दौरान महज करने वाले देश भर नहीं थे उन्हें 'अल्प विकसित देशों' का दर्जा भी मिला था। उसी वक्त पूरी दुनिया को तीन भागो में विभाजित कर दिया गया।
इन देशों के सामने मुख्य चुनौती आर्थिक रूप से और ज्यादा विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी। नव-स्वतंत्र देशों की आजादी के लिहाज़ से भी आर्थिक विकास महत्त्वपूर्ण था। बगैर टिकाऊ विकास के कोई देश सही मायनों में आजाद नहीं रह सकता। उसे धनी देशों पर निर्भर रहना पड़ता। इसमें वह उपनिवेशक देश भी हो सकता था जिससे राजनीतिक आजादी हासिल की गई।
इसी समझ से नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ। 1972 में इस सन्दर्भ में सयुंक्त राष्ट्रसंघ के व्यापर और विकास से संबंधित सम्मलेन में 'टुवार्ड्स अ न्यू ट्रेड पालिसी फॉर डेवलपमेंट' शीर्षक से एक रिपोर्ट तैयार की गई, जिसमें तीसरे दुनिया के देशों के विकास के लिए निम्नलिखित सुझावों पर बल दिया गया:
अत: यह कहा जा सकता हैं की गुट निरपेक्षता का स्वरुप धीरे धीरे बदल रहा था और अब इसमें आर्थिक मुद्दों को अथिक महत्व दिया जाने लगा था। उपरोक्त सभी वर्णों से यह बात स्पष्ट हो जाती है की गुट-निरपेक्षता ने तीसरी दुनिया के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं।
'गुट-निरपेक्ष आंदोलन अब अप्रासंगिक हो गया है'। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं। अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत करें।
दूसरे विश्वयुद्ध का अंत समकालीन विश्व-राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समस्त विश्व मुख्य दो शक्ति गुटों में विभाजित हो गया था। दोनों शक्ति गुटों का नेतृत्व दो महाशक्तियों सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के द्वारा क्रमश: साम्यवादी तथा गैर साम्यवादी विचारधारा के आधार पर किया जा रहा था जिसे विश्व राजनीति में शीत युद्ध का नाम दिया गया।
इस शीत युद्ध के दौरान दोनों महाशक्तियाँ विश्व के अन्य राष्ट्र को अपने-अपने गुट में शामिल करने के प्रयास में लग गई। इसी समय विश्व राजनीति में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने जन्म लिया।
परन्तु दिसंबर, 1981 में सोवियत संघ के विघटन के पश्चात शीत युद्ध का अंत हो गया था। परिणामस्वरूप अमेरिका ही महाशक्ति के रूप में बचा अर्थात संसार एक ध्रुवीय हो गया। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न किया जाने लगा कि गुटनिरपेक्षता का उद्देश्य शीतयुद्ध के संदर्भ में हुआ था और आज शीत युद्ध का अंत हो जाने के कारण गुटनिरपेक्षता की कोई प्रासंगिकता नहीं रही है, किन्तु ऐसे लोगों का विचार उचित नहीं है क्योंकि विश्व राजनीति में गुट-निरपेक्षता अपना महत्व स्थाई रूप में धारण कर चुका है। इसके महत्व एवं भूमिका के संदर्भ में निम्नलिखित बातें देखि या सुनी जा सकती है:
उपरोक्त सभी विवरणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकला जा सकता हैं कि 'गुट-निरपेक्ष आंदोलन' कि प्रासंगिकता आज भी कम नहीं हुई हैं।
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