शीतयुद्ध के दौरान भारत की अमरीका और सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति क्या थी? क्या आप मानते हैं कि इस नीति ने भारत के हितों को आगे बढ़ाया?
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में शीतयुद्ध के दौर में भारत ने दो स्तरों पर अपनी भूमिका निभाई। शीतयुद्ध के दौरान भारत की अमरीका व सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति दोनों गुटों में शामिल न होने की रही थी जिसके कारण भारत की विदेश नीति को 'गुट निरपेक्षता' की नीति कहा जाता है।
भारत की नीति न तो नकारात्मक थी और न ही निष्क्रियता की थी। नेहरू ने विश्व को याद दिलाया कि गुटनिरपेक्षता कोई 'पलायन' की नीति नहीं है। इसके विपरीत, भारत शीतयुद्धकालीन प्रतिद्वंदिता की जकड़ ढीली करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करने के पक्ष में था। भारत ने दोनों गुटों के बीच मौजूद मतभेदों को कम करने की कोशिश की और इस तरह उसने इन मतभेदों को पूर्णव्यापी युद्ध का रूप लेने से रोका।
कुछ लोगों का तर्क यह रहा है कि यह नीति अंतर्राष्ट्रीयता का एक उदार आदर्श है जो भारतीय हितों के साथ मेल नहीं खाती। यह तर्क ठीक नहीं है। यह गुट-निरपेक्षता की नीति भारत के लिए हितकारी रही है जिन्हें निम्नलिखित तर्कों से स्पष्ट किया जा सकता हैं:
- भारत अपनी गुट निरपेक्षता की नीति के कारण ही ऐसे अंतर्राष्ट्रीय फैसले लेने में सफल रहा, जो उसके हितो की पूर्ति में सहायक रहे न कि किसी सैनिक गुट या इन देशों की।
- भारत को हमेशा दोनों गुटों या देशों से लाभ मिला है, क्योंकि दोनों देश भारत को अपने करीब लाना चाहते थे। यदि कोई एक महाशक्ति भारत पर दबाव बनाना चाहती थी तो दूसरी महाशक्ति भारत की सहायता के लिए तैयार थी। इसका प्रथम लाभ भारत को यह था कि दोनों में से किसी ने भी उस पर दबाव नहीं बनाया तथा दोनों ही महाशक्तियाँ भारत के प्रति चिंतित रहीं।