डायरी के पन्ने
'प्रकृति-प्रदत्त प्रजनन-शक्ति के उपयोग का अधिकार बच्चे पैदा करें या न करें अथवा कितने बच्चे पैदा करें-इसकी स्वतंत्रता स्त्री से छीन कर हमारी विश्व-व्यवस्था ने न सिर्फ स्त्री को व्यक्तित्व विकास के अनेक अवसरों से वंचित किया है बल्कि जनांधिक्य की समस्या भी पैदा की है'। ऐन की डायरी के 13 जून, 1944 के अंश में व्यक्त विचारों के संदर्भ में इस कथन का औचित्य ढूँढे।
ऐन के विचार-ऐन समाज में स्त्रियों की स्थिति को बहुत अन्याय कहती है। वह उसके कारण जानना चाहती है। वह मानती है कि शारीरिक अक्षमता को बहाना बनाकर पुरुषों ने स्त्रियों को घर में बाँधकर रखा है। इस स्थिति को स्त्रियाँ अब तक सहती आ रही थीं। ऐन इसे बेवकूफी कहती है। वह स्पष्ट कहती है कि आधुनिक समाज में स्थिति बदली है और औरतों ने चेतनाशील होकर हर क्षेत्र में कदम बढ़ाया है। औरतों और कुछ पुरुषों ने इस गलत स्थिति का विरोध किया है। वह स्त्रियों की स्वतंत्रता के साथ उनका सम्मान भी चाहती है। समाज के निर्माण में सभी स्त्रियों का योगदान महत्वपूर्ण मानती है। वह एक पुस्तक ‘मौत के खिलाफ मनुष्य’ के हवाले से स्पष्ट करती है कि प्रसवपीड़ा दुनिया की सबसे बड़ी तकलीफ है। इस तकलीफ को भी झेलकर स्त्री मनुष्य जाति को जीवित रखे हुए है। उसकी इच्छा है कि स्त्रियों के विरोधी और असम्मान देने वाले मूल्यों और मनुष्यों की निन्दा की जाये। वह स्त्री जीवन के अनुभव को अतुलनीय बताती है। उसके भीतर आगामी भविष्य को लेकर आशा एवं सपने हैं कि अगली सदी में स्थिति बदलेगी। बच्चे पैदा करने वाली स्थिति बदलकर औरतों को ज्यादा सम्मान एवं सराहना प्राप्त होगी। ऐन के ये विचार बहुत सामाजिक एवं प्रभावी चिन्तन का गुण लिये हुए हैं।
भारत की वर्तमान स्थिति-भारतीय समाज की स्थिति बहुत मिली-जुली है। स्त्रियों के बारे में सामाजिक सोच की भी स्थिति यही है । औरतों को ज्यादा सम्मान और सराहना मिलने के जिस सपने को देखा था वह स्थिति आज भी बहुत कम भारतीय महिलाओं को नसीब है। भारतीय समाज महिलाओं को घर की चारदीवारी में बाँधकर ही रखना चाहता है। यह स्थिति मध्यवर्गीय परिवारों में बहुत प्रभावी है। स्त्रियों को अपना स्थान एवं महत्त्व प्राप्त करने के लिए बहुत अधिक बलिदान देना पड़ता है। कुछ घरों में महिलाओं को उनके ही परिवार में पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता है। परिवार में उनकी स्थिति दोयम दर्जें की होती है। शिक्षा के क्षेत्र में यह भेदभाव प्रभावी है। परिवार मे लड़कों की पढ़ाई महत्वपूर्ण मानी जाती है।
ऐन ने तो एक किताब के हवाले से स्त्रियों की पीड़ा को सैनिकों की तकलीफ और पीड़ा से भी बड़ा बताया है। यहाँ तक तुलना की बात कौन करे। हजारों महिलायें प्रति वर्ष केवल प्रसव पीड़ा से मर जाती हैं। उनके लिए किसी तरह की सुविधा उपलब्ध नहीं होती है। कन्याभ्रूण हत्या का कटु सच भारतीय समाज को हजारों साल पीछे ढकेल रहा है। अगर हम यह कहें कि यह सच अमानवीयता का नया चेहरा है तो गलत नहीं होगा।
अपवादों का छोड़कर भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति अभी वही बनी हुई है जिसके बारे में ऐन ने उल्लेख किया है।
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