इस बारे में बताएँ कि हमारे देश में उपन्यासों में जाति के मुद्दे को किस तरह उठाया गया। किन्हीं दो उपन्यासों का उदहारण दें और बताएँ कि उन्होंने पाठको को मौजूदा सामाजिक मुद्दों के बारे में सोचने को प्रेरित करने के लिए क्या प्रयास किए।
18वीं और 19वीं शताब्दियों में भारतीय समाज जातियों में बुरी तरह विभाजित था। समाज की निम्न जातियाँ तथाकथित उच्च जातियों के उत्पीड़न का शिकार थीं। कुछ उपन्यासकारों ने पीड़ित जातियों के दुख को समझा और अपने उपन्यासों के माध्यम से उसे समाज के सामने रखा।
उदहारण 1: इंदुलेखा एक प्रेम कहानी थी। लेकिन यह 'उच्च जाति' की एक वैवाहिक समस्या से भी रू-ब-रू- थी जिस पर इसके लिखे जाने के वक़्त वाद-विवाद चल रहा था। इंदुलेखा जो उच्च जाति के एक मूर्ख जमीदार सूर्य नंबूदरी से शादी करने से मना कर देती है और अपनी ही जाति के एक युवक माधवन से शादी कर लेती है। इस उपन्यास में चंदू मेलन चाहते हैं कि पाठक नायक-नायिका द्वारा अपनाए गए नए मूल्यों को सराहें।
उदहारण 2: उत्तरी केरल की 'निम्न' जाति के लेखक पोथेरी कुंजाम्बु ने 1892 में सरस्वतीविजयम नमक उपन्यास लिखा, जिसमें जाति-दमन की कड़ी निंदा की गई। इस उपन्यास का 'अछूत' नायक ब्राह्मण ज़मींदार के ज़ुल्म से बचने के लिए शहर भाग जाता है। वह ईसाई धर्म अपना लेता है, पढ़-लिखकर जज बनकर, स्थानीय कचहरी में वापस आता है। इसी बीच गाँव वाले यह सोचकर कि ज़मींदार ने उसकी हत्या कर दी है, अदालत में मुकदमा कर देते हैं। मामले की सुनवाई के अंत में जज अपनी असली पहचान खोलता है और नंबूदरी को अपने किए पर पश्चाताप होता है, वह सुधर जाता है। इस तरह सरस्वतीविजयम निम्न जाति के लोगों की तरक्क़ी के लिए शिक्षा के महत्व को रेखांकित करता है।