स्थापत्य की कौन-कौन-सी परंपराओं ने विजयनगर के वास्तुविदों को प्रेरित किया? उन्होंने इन परंपराओं में किस प्रकार बदलाव किए?
- विजय नगर साम्राज्य दक्षिण भारत के जिस क्षेत्र में स्थापित हुआ, वह स्थापत्य कला की दृष्टि से काफी समृद्ध था। इस क्षेत्र में पल्लव, चालुक्य, होयसाल व चोल वंशो का शासन रहा। इन सभी वंशों के शासकों ने पिछले कई शताब्दियों से विभिन्न तरह के भवनों का निर्माण करवाया। इन भवनों में सबसे अधिक मात्रा में मंदिर थे। विजयनगर के वास्तुविदों को इन्हीं भवनों विशेषकर मंदिरों को देखकर भवन बनाने की प्रेरणा मिली।
- इसके साथ विजयनगर के शासकों के अरब क्षेत्र के साथ लगातार सम्बन्ध रहे। वह से वस्तुओं का आदान-प्रदान निरंतर होता रहा। विजयनगर के वास्तुविदों को अरब क्षेत्र विशेषकर ईरान के भवन देखने का मौका मिला। उत्तर भारत के भवनों तथा उड़ीसा के गजपति शासकों के भवनों ने भी उन्हें मार्गदर्शन दिया।
- विजयनगर के वास्तुविदों ने अपनी सांस्कृतिक विरासत से सीख लेकर भारत के अन्य स्थानों के भवनों जैसे भवन बनाने प्रारंभ किए। उन्होंने अरब क्षेत्र की भवन निर्माण शैली का भी प्रचुर भाषा में प्रयोग किया। उनका यह प्रयोग शाही भवनों, महलों, शहरी क्षेत्र की इमारतों के साथ-साथ बाजारों इत्यादि में भी दिखाई देता है।
- विजयनगर में वास्तविक ने इस में मिश्रित वास्तुकला का प्रयोग जल प्रबंधन में किया। इसमें मैदानी व पर्वतीय दोनों शैलियाँ प्रयोग की। राज्यों को सुरक्षा देने की सोचते हुए उन्होंने दुर्गों की सात पंक्तियाँ बनाई। दुर्गों की दीवारें, दरवाज़े व गुबंद तुर्की प्रभाव वाले बनाए। कल्याण मंडप, महानवमी डिब्बा व शहरी क्षेत्र में 300 से अधिक मंदिरों के निर्माण में 50 से अधिक शैलियों का मिश्रण किया है। हजार राम के मंदिर पर रामायण के दृश्य को अंकित करवाकर भवनों को धर्म समाज से जोड़ने का प्रयास किया।
- मंदिरों की पहचान उनके गोपुरमों से होती थी तो इन्होंने उन्हें क्षेत्र में सबसे ऊँची इमारतों के रूप में तैयार करवाया। विभिन्न प्रकार के भवनों को देखने के बाद यह कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी विरासत तथा अन्य संस्कृतियों के अनुभव का प्रयोग किया। वे इस प्रयोग को इतना आगे ले गए कि अन्य शैलियों कि मौलिकताएँ गौण हो गयी तथा ये भवन मौलिक रूप से विजयनगर की वास्तुकला के प्रतीक दिखाई देने लगे।