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तुलसीदास - राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद
उत्प्रेक्षा- तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा।
पुनरुक्तिप्रकाश- बार-बार।
रूपकातिशयोक्ति- अयमय खाँड़ न ऊखमय।
अनुप्रास- • ‘कौसिक कहा’, ‘अकरुन कोही’, ‘केवल कौसिक’, ‘काटि कुठार कठोरे’
• ‘गुन गनाहिं
• ‘हृदय हसि मुनिहि हरियरे’
• ‘परसु सुधारि धरेउ कर घोरा’
• ‘देइ दोसू’
• ‘कटुबादी बालकु बधजोगू, ‘बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा’
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“सामाजिक जीवन में क्रोध की ज़रूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध न हो तो मनुष्य दूसरे के द्वारा पहुँचाए जाने बाले बहुत से कष्टों की चिर-निवृत्ति का उपाय ही न कर सके।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव लिए नहीं होता बल्कि कभी-कभी सकारात्मक भी होता है। इसके पक्ष या विपक्ष में अपना मत प्रकट कीजिए।
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