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दिये गये काव्याश का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं साँसों के वो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
प्रसंग: प्रस्तुत काव्याशं आधुनिक युग के प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय ‘बच्चन’ द्वारा रचित कविता ‘आत्म-परिचय’ से अवतरित है। इसमें कवि अपने जीवन को जीने की शैली का परिचय देता है। समाज में रहकर व्यक्ति को सभी प्रकार के अनुभव होते हैं। कभी ये अनुभव मीठे होते हैं तो कभी खट्टे। इस दुनिया से कवि का सबंध प्रीति- कलह का है। कवि इस कविता में दुनिया से अपने द्विधात्मक और द्वंद्वात्मक सबंधी को उजागर करता है।
व्याख्या: कवि कहता है कि मैं इस संसारिक जीवन का भार अपने ऊपर लिए हुए फिरता रहता हूँ। इसके बावजूद मेरे अपने जीवन में प्यार का भी समावेश है। यह एक द्वंद्वात्मक स्थिति है। किसी प्रिय ने उसके हृदय की भावनाओं को स्पर्श करके उसकी हृदय रूपी वीणा के तारो को झनझना दिया अर्थात् उसके हृदय में प्रेम की लहर उत्पन्न कर दी। वह तो साँसों के केवल दो तार ही हुए जी रहा है।
कवि कहता है कि वह प्रेम रूपी मदिरा को पीकर मस्त रहता है। वह इस प्रेम रूपी मदिरा को पीकर इसकी मस्ती में डूबा रहता है। वह इस मस्ती में कभी भी संसार की बातों का ध्यान नहीं करता। संसार के लोग क्या कहते हैं, उसे इसकी परवाह नहीं है। यह संसार उनकी पूछ-ताछ करता है जो उसके कहने पर चलते हैं। इसके विपरीत कवि तो अपने मन के अनुसार गाता है अर्थात कवि संसार के बताए इशारों पर नहीं चलता वह तो अपने मन का बात सुनता है और वही करता है। वह (कवि) तो अपने लिए अपने मन के अनुसार गीत गाता रहता है।
कवि ने अपने जीवन के बारे में क्या कहा है?
कवि ने अपने जीवन के बारे मे यह कहा है कि वह अपने सांसारिक जीवन के भार को निरंतर वहन करते हुए अपना जीवन-यापन कर रहा है। इससे वह दुखी नहीं होता। उसके जीवन में प्यार का भी समावेश है।
कवि अपने विगत जीवन के बारे में क्या बताता है?
कवि अपने विगत जीवन को स्मरण करते हुए कहता है कि उसके जीवन में किसी ने (प्रिय ने) पदार्पण किया था और अपने प्रेम भरे हाथों से उसकी हृदय-वीणा के तारों को झंकृत कर दिया था। वह आज भी उनकी यादों के रूप मे अपनी साँसों के दो तार लिए हुए जी रहा है।
कवि किसका पान किया करता है और इससे उसकी हालत कैसी हो जाती है?
कवि स्नेह (प्रेम) रूपी मदिरा का पान किया करता है। वह इस प्रेम रूपी मदिरा को पीकर इसकी मस्ती में डूबा रहता है। इससे वह अपने में ही मग्न रहता है।
कवि संसार के बारे में क्या बताता है?
कवि कभी संसार की ओर ध्यान नहीं देता। यह ससार बड़ा स्वार्थी है। यह केवल उनको पूछता है जो इसका गुणगान करते हैं। जो इसके प्रतिकूल कार्य करते हैं यह संसार उनको कोई महत्त्व नहीं देता।
दिये गये काव्याशं सप्रसंग व्याख्या करें?
प्रसंग: प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि हरिवंशराय ‘बच्चन’ द्वारा रचित कविता ‘आत्म-परिचय’ से अवतरित है। इसमें कवि अपने जीवन जीने की शैली पर प्रकाश डालता है। इस जीवन में कवि को अनेक प्रकार के अनुभव होते है। कवि अपनी विशिष्ट छवि बनाए रखता है।
व्याख्या: कवि इस संसार में अपना पृथक् व्यक्तित्व बनाए रखता है। उसके हृदय में भेंटस्वरूप देने के लिए कुछ भाव और उपहार हैं। कवि कहता है कि मैं अपने हृदय के भावों को ही महत्व देता हूँ। मैं किसी अन्य के इशारे पर नहीं चलता। मैं तो अपने हृदय की बात सुनता हूँ। वही मेरे लिए सबसे बड़ा उपहार है। मुझे तो यह संसार अधूरा प्रतीत होता है अत: यह मुझे अच्छा नहीं लगता। मुझे तो अपने सपनों की दुनिया ही भाती है, मैं उसी में रमा रहता हूँ। (छायावादी शैली का प्रभाव)।
कवि कहता है कि मेरे हृदय में भी एक प्रक्रार की अग्नि (प्रेमाग्नि) जलती रहती है और मैं इसी मे जलता रहता हूँ। कवि प्रेम की वियोगावस्था में व्यथित रहता है। कवि सुख और दु:ख दोनों दशाओं में मग्न रहता है। यह संसार इस भवरूपी सागर से पार उतरने के लिए भले ही नाव का निर्माण करे, पर कवि तो इस भव-सागर की लहरों पर मस्ती के साथ बहता रहता है। उसे पार जाने की चाह नहीं है। वह तो इसी संसार में मस्ती भरा जीवन बिताता रहता है। कवि को इस संसार के तौर -तरीके पसंद नहीं हैं। उसकी अपनी जीवन शैली है, वह उसी प्रकार जीता है। वह संसार रूपी सागर की लहरो का मस्त होकर बहता रहता हैए।
कवि क्या लिए फिरता है?
कवि अपने हृदय के उद्गार (भाव) लिए फिरता है। वह अपने हृदय में दूसरो के लिए उपहार लिए फिरता है।
कवि को यह संसार कैसा प्रतीत होता है?
कवि को यह ससार अधूरा प्रतीत होता है। इसीलिए कवि को यह संसार भाता नहीं हैं। यह संसार स्वार्थी है।
कवि किस मन: स्थिति में रहता है?
कवि अपने हृदय में वियोग रूपी अग्नि को जलाए हुए जीता है। इसमे वह निरतर जलता रहता है। इसके बावजूद वह सुख-दुख दोनों अवस्थाओं मे मग्न रहता है।
कवि इस संसार में अपना जीवन किस प्रकार से बिताता है?
कवि इस संसार में मस्ती भरा जीवन बिताता है। कवि को इस संसार रूपी सागर को पार करने के लिए भले ही नाव बनाए पर कवि को किसी सहारे की आवश्यकता नहीं है। वह तो इस भव सागर की लहरों पर बहना चाहता है।
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय 2 किसी की याद लिए फिरता हूँ,
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर छू न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!
प्रसंग: प्रस्तुत पक्तियाँ आधुनिक युग के प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय ‘बच्चन’ द्वारा रचित कविता आत्म-परिचय ?ए अवतरित है। इसमें कवि अपनी जीवन-शैली का परिचय देता है।
व्याख्या: कवि अपने बारे में बताते हुए कहता है कि मैं तो यौवन की मस्ती में रहता हूँ। मेरे ऊपर अत्यधिक प्रेम की सनक सवार रहती है। इस मस्ती के मध्य दुःख की उदासी भी छिपी रहती है अर्थात् सुख-दुःख की मिली-जुली भावना मौजूद रहती है। मेरी यह मनःस्थिति मुझे बाहर से तो हँसते हुए अर्थात् प्रसन्नचित्त दर्शाती है, पर यह मुझे अंदर-ही-अंदर रुलाती रहती है। कवि कहता है कि उसने जवानी में किसी से प्रेम करके उसकी यादों को अपने हृदय में संजोया था। उसके अंदर-ही-अंदर रोने या व्यथित रहने का कारण यह है कि वह किसी (प्रिय) की याद को हृदय में बसाए हुए है और यह हर समय उसके साथ रहती है। उसके न मिलने पर वह दुःखी हो जाता है।
यह संसार बड़ा ही विचित्र है। इसको जानना अत्यंत कठिन है। इसको जानने के बहुत प्रयत्न किए गए, पर इसका सच किसी के समझ में नहीं आया। जहाँ पर कुछ समझदार एवं चतुर व्यक्ति होते हैं वहीं यहाँ नादान लोग टिके रहते हैं। लोगों के अपने-अपने स्वार्थ हैं। वह व्यक्ति निश्चय ही मूर्ख है जो जग की बातों में आ जाता है। मैं तो सीखे हुए ज्ञान को भुलाकर नई बातें सीख रहा हूँ। मैं तो संसार की बातें भूलकर अपने मन के मुताबिक चलना सीख रहा हूँ।
विशेष: 1. कवि अपने यौवनकाल की मनःस्थिति का विश्लेषण करता जान पड़ता है।
2. ‘उन्मादों में अवसाद’ विरोधमूलक स्थिति है।
3. व्यक्तिवादी दृष्टिकोण मुखरित हुआ है।
4. खड़ी बोली का प्रयोग है।
कवि कैसा उन्माद लिए फिरता है? इसका उसे क्या प्रतिफल मिलता है?
कवि यौवन का उन्माद लिए फिरता है। वह यौवन की मस्ती में रहता है। इसका प्रतिफल उसे अवसाद के रूप में ही मिलता है।
कवि किस मन: स्थिति में जी रहा है और क्यों?
ऊपर से देखने पर तो कवि हँसने की मनःस्थिति में दिखाई देता है, पर उसके अंदर दुख की भावना छिपी रहती है। यह भावना उसे भीतर ही भीतर रुलाती है। इसका कार! यह है कि उसके हदय में प्रेम की सुखद यादें बसी हैं। वे यादें उसे रुलाती हैं।
कवि इस संसार के बारे में क्या बताता है?
कवि बताता है कि यह संसार बड़ा ही विचित्र है। इसको जानना अत्यंत कठिन है। इसको जानने के लोगों ने बहुत प्रयत्न किए, पर इसका सच किसी की समझ. में नहीं आया।
कौन व्यक्ति मूर्ख है और क्यों?
कवि के अनुसार वह व्यक्ति मूर्ख है जो संसार की बातों में आ जाता है। संसार को सीखने का प्रयास करने वाला मूर्ख होता है।
प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,मैं बना-बना कितने जग रोज मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिस पर भूपोंके प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।
प्रसंग: प्रस्तुत पंक्तियाँ आधुनिक काल के कवि हरिवंशराय ‘बच्चन’ द्वारा रचित कविता ‘आत्म-परिचय’ से अवतरित हैं। इस कविता में कवि अपने पृथक् व्यक्तित्व का परिचय देता है।
व्याख्या: कवि बताता है कि मैं और हूँ तथा यह संसार और है। दोनों अलग- अलग हैं। इन दोनों मे कोई नाता (संबंध) नहीं है। मेरा तो इस संसार के साथ टकराव चलता रहता है। मैं तो इस जग (संसार) को मिटाने का प्रयास करता रहता हूँ। यह संसार तो इस धरती पर वैभव (धन-संपत्ति) जोड़ता रहता है। इस संसार के लोगों की रुचि धन-संपत्ति के सग्रह मे रहती है और एक मैं हूँ जो हर कदम पर इस धरती को अर्थात् संसार को ठुकराया करता हूँ। कवि इस जग में रहते हुए भी इस जग की प्रवृत्ति को नहीं अपनाता।
कवि अपने रोदन में भी राग लिए फिरता है। यह भी एक विरोधात्मक स्थिति है (रोदन में राग) अर्थात् कवि के रोने मे भी राग . जैसी मस्ती बनी रहती है। इसी प्रकार उसकी शीतल वाणी में भी आग समाई रहती है। (शीतल में आग विरोध मूलक स्थिति है।) वह इन विरोधाभास मूलक स्थितियों को साधते-साधते और मस्ती और दीवानगी के आलम में रहता है। इस धरती पर तो राजाओं के महल मौजूद हैं, पर कवि उस खंडहर का एक भाग अपने पास रखता है जिसे उस महल पर न्योछावर किया जा सके। अर्थात् वह इस दुनिया में है, पर इस दुनिया का तलबगार नहीं है।
विशेष: 1. कवि अपने और जग के अंतर को स्पष्ट करते हुए व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा करता जान पड़ता है।
2. कवि विरोधाभास अलंकार का प्रयोग अत्यंत सटीक रूप में करता है ‘रोदन मै राग’, ‘शीतल वाणी में आग’।
3. ‘बना-बना’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
4. खड़ी बोली का प्रयोग है।
कवि के अनुसार उसका और संसार में क्या नाता है?
कवि के अनुसार उसका और संसार का आपस में कोई नाता नहीं है। यह संसार और प्रकार का है और कवि और प्रकार का। इनमें तो टकराव का संबंध है।
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कवि और संसार में क्या विरोधी स्थिति है?
कवि और संसार में यह विरोधी स्थिति है कि संसार के लोग तो धन-संपत्ति का संग्रह करते रहते हैं जबकि वह इन्हें ठुकराता है। वह तो इस जग को मिटाने का प्रयास करता रहता है।
कवि का रोदन किस प्रकार का है?
कवि के रोदन में भी राग समाया रहता है। वह तो अपने आँसुओं में भी प्रेम भरे गीत छिपाए रहता है। उसकी शीतल वाणी में भी आग समाई रहती है। यह विरोध मूलक स्थिति है।
कवि के अनुसार उसकी व्यक्तिगत संपत्ति क्या है?
कवि के अनुसार उसके पास खंडहर का एक भाग रहता है। इस पर राजाओं के महल को भी न्यौछावर किया जा सकता है।
प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!
प्रसंग प्रस्तुत काव्याशं आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय ‘बच्चन’ द्वारा रचित कविता ‘आत्म–परिचय’ से अवतरित है। कवि अपने व्यक्तित्व की विशिष्टता का बखान करता है।
व्याख्या कवि कहता है कि मैं तो रोया अत: मेरे हृदय का दु:ख शब्दों में ढलकर प्रकट हुआ और इसे ससार गाना (गीत) कहता है। कवि के हृदय के भाव सहजता के साथ फूटे तो संसार के लोग उसे छंद बनाना कहने लगे। ससार उसे कवि कहता है और अपनाने की (स्वीकार करने की) बात कहता है जबकि कवि स्वयं को इस दुनिया का एक दीवाना मात्र समझता है। वैसे कवि चाहकर भी इस दुनिया से पूरी तरह तरह कटकर नहीं रह सकता। कवि के अनुसार यह संसार बड़ा ही विचित्र है। यह किसी कै आतरिक भावो को समझ ही नहीं पाता।
कवि कहता है कि मेरा वेश ही दीवानों जैसा है। दीवानों में जैसी मादकता (मस्ती) होती है, वैसी ही उसमें भी है। मेरी मादकता ऐसी है जिसमें अन्य कुछ भी न बचा हो। मेरे मादकता भरे गीतों को सुनकर संसार के लोग झूम उठते हैं, झुकने लगते हैं और वे भी मस्ती में लहराने लगते हैं। कवि तो ऐसी ही मस्ती का संदेश लोगों को देता फिरता है। लोग इसी संदेश को गीत समझ लेते हैं। विशेष: 1 कवि अपनी मस्ती का बखान करता है। यही मस्ती उसके गीतों में फूट पड़ती है।
2. ‘क्यों कवि कहकर’ तथा ‘झूम झुके’ में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
3. कवि का व्यक्तिवाद उभरा है।
4. खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
कवि के रोने को संसार क्या समझ लेता है?
कवि के रोने को संसार गीत समझ लेता है। कवि के हृदय का दुख उसके रोने में फूटता है तो संसार को वह भी गीत प्रतीत होता है।
यह संसार कवि को किस रूप में अपनाना चाहता है और क्यों?
कवि को यह ससार एक कवि के रूप में ही अपनाना चाहता है। कवि के रोदन में भी संसार को अपने भावों का प्रकटीकरण जान पड़ता है।
कवि की दशा किस प्रकार की है?
कवि की दशा दीवानों जैसी है। वह मस्ती में जीता है। उसके गीतों को सुनकर लोग झूम उठते हैं।
कवि किसे, किस प्रकार का संदेश दिए फिरता है?
कवि अपने गीतों के माध्यम से मस्ती का संदेश दिए फिरता है। कवि के जीवन की मस्ती को लोग संदेश पा जाते हैं। इसे सुनकर लोग झूम उठते हैं।
प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
हो जाय न पथ में रात कहींमंजिल भी तो है दूर नहीं
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
प्रसंग: प्रस्तुत पक्तियाँ हिंदीकाव्य-जगत में हालावादी कवि हहरिवंशरायबच्चन के गीत ‘एक गीत’ से अवतरित है। उनका यह गीत उनके काव्य- सग्रह ‘निशा निमत्रंण’ में संकलित है। अपनी पहली पत्नी श्यामा की अकाल मृत्यु से खिन्न कवि एक ललंबेअतंराल कै बाद पुन: कविता-कर्म की ओर प्रवृत होता है और पत्नी-बिछोह का दर्द अपनी कविताओं में उउँडेलदेता है। ‘निशा’ शब्द प्रकारांतर से ‘श्यामा’ (पत्नी) का ही अर्थ-व्यंजक है। कवि को लगता है कि उसकी पत्नी इस जगत से दूर जाकर, पारलौकिक जगत से उसे आमत्रित कर रही है। प्रस्तुत कविता में कवि इसी अपरूप प्रेरणा को बल देते हुए कहता है कि काल की गति बड़ी विलक्षण है।
व्याख्या: कवि कहता है कि यह पता नहीं चल पाता कि दिन कब ढल गया। रात्रि गहन और लंबी है। पथिक कौ भय है कि कही जीवन-पथ में ही काल-रात्रि न आ जाए। दिन भर का थका-माँदा पथिक रात के अंधकार के, विषाद के आने से पहले अपनी मंजिल पर पहुँच जाना चाहता है। कवि को लगता है कि दिन बहुत जल्दी ढल रहा है। कुठा और निराशा से घिरे व्यक्ति के जीवन में दिन भी जल्दी जल्दी ढल जाता है। कहीं जीवन-पथ पर चलते चलते रात न हो जाए इसलिए सूर्य के प्रकाश को क्षीण होते देखकर दिन भर की यात्रा से थका हुआ यात्री तेजी से अपनी मंजिल की ओर कदम बढ़ाता है। यह सोचकर कि अब मजिल दूर नही है, उसके पैरों की गति और भी तेज हो जाती है अँधेरा होने पर उसे अपनी यात्रा बीच में ही रोकनी पड़ेगी और वह गंतव्य तक नहीं पहुँच जाएगा। यही कारण है कि शरीर थका होने पर भी उसका मन उल्लास, आशा और उमंग से भरा हैं। और उसके चरणों की गति स्वत: तेज हो गई है।
1. मनुष्य के मन की कुंठा को अभिव्यक्ति मिली है।
2. समय की परिवर्तनशीलता और गतिशील होने को दर्शाया गया है।
3. जीवन को बिंब के रूप में उभारा है।
4. ‘जल्दी-जल्दी’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
5. भाषा सहज, सरल एवं भावानुकूल है।
कवि के अनुसार दिन की क्या विशेषता है?
कवि के अनुसार दिन की विशेषता -यह है। कि जल्दी- जल्दी बीतता है अर्थात् समय परिवर्तनशील है और यह किसी की प्रतीक्षा नहीं करता।
पंथी जल्दी-जल्दी क्यों चलता है?
पंथी इसलिए जल्दी- जल्दी चलता है कि दिन ढलने से पूर्व ही वह अपनी मंजिल पर पहुँच जाए। वह दिन ढलने से पूर्व मंजिल पर पहुँच जाना चाहता है।
पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग किसमें है?
‘जल्दी-जल्दी’ मे पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार का प्रयोग है।
प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,नीड़ों से झाँक रहे होंगे,
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
प्रसंग: प्रस्तुत पक्तियाँ हरिवंशराय ‘बच्चन’ द्वारा रचित कविता ‘एक गीत’ से अवतरित हैं। यह कवित? उनके काव्य सग्रह ‘निशा निमत्रंण’ में सकलित है। इस कविता में कवि उन पक्षियों के विषय में बताता है जो प्रातःकाल होते ही अपने छोटे बच्चो को घोसलों में छोड्कर दाना-पानी जुटाने की फिक्र मैं वन- प्रदेश में घूमते फिरते हैं पर संध्याकाल होते ही वे अपने अपने घोंसलों की ओर लौटने लगते हैं।
व्याख्या: कवि प्रकृति में देखता है कि पक्षीवृंद घोंसलों से झाँकते प्रतीक्षारत अपने शावकों तक जल्दी से जल्दी पहुँच जाना चाहते हैं। इसके लिए वे अपने पंखों में ताजगी और स्फूर्त उड़ान का अनुभव कर दिन ढलने से पहले ही वापस पहुँच जाने का उपक्रम करने लगते हैं। संध्या होते ही अंधकार बढ़ने लगता है और पक्षी समझ जाते हैं कि अपने-अपने घोंसलों में लौटने का समय आ पहुँचा है। वे जानते हैं कि उनके नन्हें बच्चे दिन भर के भूखे-प्यासे होंगे और बड़ी उत्सुकता से उनके लौटने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। बच्चों के प्रति इसी ममता और चिंता के कारण ही ये पक्षी जल्दी ही अपने घोंसलों में पहुँच जाना चाहते हैं। यही भावना उन्हें स्फूर्ति और शक्ति देती है और पूरे उत्साह के साथ अपने- अपने घोंसलों की ओर उड़ने लगते हैं।
विशेष: 1. पक्षियों के मातृत्व- भाव और उनकी व्याकुलता का मार्मिक चित्रण किया गया है।
2. दृश्य और गति बिंब सार्थक बन पड़ा है।
3. ‘जल्दी-जल्दी’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
4. भाषा सरल एवं भावानुकूल है।
बच्चों की प्रत्याशा क्या है?
बच्चों की प्रत्याशा यह है कि उनके माता-पिता लौट रहे होंगे। वे उनकी राह देखते हैं।
बच्चे क्या कर रहे होंगे?
चिड़ियों के बच्चे घोंसलों से बाहर झझाँकरहे होंगे क्योंकि वे उनकी प्रतीक्षा करते रहते हैं।
चिड़ियों के परों में चंचलता कब आ जाती है?
चिड़ियों के परों में तब चंचलता आ जाती है जब उन्हें अपने बच्चों की प्रत्याशा का स्मरण हो आता है। तब वे उनके पास शीघ्र पहुँच जाना चाहते हैं।
प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं होऊँ किसके हित चंचल?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
प्रसंग: प्रस्तुत काव्याशं हहरिवंशराय ‘बच्चन’ द्वारा रचित कविता ‘एक गीत’ से अवतरित है। इस कविता में कवि का मन निराशा एवं ककुंठासे क्षुब्ध है। इन पक्तियों में कवि ने अपने अकेलेपन की भावना को अभिव्यक्ति प्रदान की है।
व्याख्या: कवि देखता है कि सभी प्राणी और पक्षीगण अपने-अपने घरों की ओर लौटने को उत्सुक प्रतीत होते हैं। सभी के घरों में उनकी प्रतीक्षा हो रही है। लेकिन कवि हताश है, निराश है कि उसके पर में ऐसा कोई नहीं है जो उसकी उत्कंठापूर्ण प्रतीक्षा कर रहा हो, जो उससे मिलने के लिए व्याकुल हो। वह भला किसके लिए चंचल गति से अपने पैर बढ़ाए। यही निराशा का अहसास उसके कदमों में शिथिलता भर देता है और उसका मन पीड़ा से भर उठता है। एक अशांत, विधुर-वियोग जनित प्रमाद एवं विषाद उसे घेरने लगता है। वह अपनी कर्म-गति में एक प्रकार की शिथिलता का अनुभव करने लगता है। उसका हृदय विह्वल हो उठता है। दिन जल्दी ही ढल जाएगा और रात को प्रिय श्यामा की वियोग-वेदना उसे मथती रहेगी। तब उसका हृदय अशांत हो उठेगा।
विशेष: 1. एकाकी जीवन बिताने वाले व्यक्ति की मनोदशा का अत्यंत मार्मिक चित्रण हुआ है।
2. ‘प्रश्नालंकार’ द्वारा पीड़ा को अधिक प्रभावी बनाया गया है।
3. सहज एवं सरल भाषा का प्रयोग किया गया है।
कवि के मन में क्या-क्या प्रश्न उठते हैं?
कवि के मन में ये प्रश्न उठते हैं:
(क) भला उससे मिलने को कौन बेचैन हो सकता है?
(ख) मैं किसके लिए चंचल गति से अपने कदम बढ़ाऊँ?
कवि के हृदय में व्याकुलता क्यों है?
कवि के हृदय में व्याकुलता इसलिए है क्योंकि उसके हृदय में अनेक प्रकार के प्रश्न उठते रहते हैं। ये प्रश्न उसकी गति को कई बार शिथिल बना देते हैं।
इस काव्यांश में क्या भाव निहित हैं?
इस काव्यांश में यह भाव निहित है कि समय तेजी के साथ बीतता है। लक्ष्य प्राप्ति का जज्बा हमें गतिशील बनाता है।
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कवि किस मनोदशा में प्रतीत होता है?
कवि किसी से मिलने की ललक में अपने घर (लक्ष्य) तक शीघ्र पहुँच जाने की मनोदशा में है।
कविता एक ओर जग-जीवन का भार लिए घूमने की बात करती है और दूसरी ओर मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ-विपरीत से लगते इन कथनों का क्या आशय है?
यह सही है कि ये दोनों भाव विपरीत प्रतीत होते हैं, पर कवि स्वयं को जग से जोड़कर भी और जग से अलग भी महसूस करता है। उसे यह बात भली प्रकार ज्ञात है कि वह पूरी तरह से जग-जीवन से निरपेक्ष नहीं रह सकता। दुनिया उसे चाहे कितने भी कष्ट क्यों न दे फिर भी वह दुनिया से कटकर नहीं रह सकता। वह भी इसी दुनिया का एक अंग है।
इसके बावजूद कवि जग की ज्यादा परवाह नहीं करता। वह संसार के बताए इशारों पर नहीं चलता। उसका अपना पृथक् व्यक्तित्व है। वह अपने मन के भावों को निर्भीकता के साथ प्रकट करता है और वह इस बात का ध्यान नहीं रखता कि यह जग क्या कहेगा। उसकी स्थिति तो ऐसी है-’मैं दुनिया में हूँ, पर दुनिया का तलबगार नहीं हूँ।’
ऐसा इसलिए कहा होगा क्योंकि यह जग स्वार्थी है। जहाँ पर उसे कुछ मिलता है वह वहीं जम जाता है। दाना का अर्थ चतुर, बुद्धिमान भी है। इस दृष्टि से इस पंक्ति का अर्थ हुआ कि जहाँ पर कुछ बुद्धिमान एवं चतुर लोग रहते हैं। वहीं इस संसार में कुछ नादान (मूर्ख) भी मिलते हैं। इस संसार में सभी प्रकार के व्यक्ति मिलते हैं। इस संसार में सभी प्रकार के व्यक्ति मिलते हैं। इस संसार में भाँति-भाँति के प्राणी रहते हैं। ये अच्छे भी है तो बुरे भी। विरोधी होते हुए भी इनका आपस में संबंध है।
इस पंक्ति में ‘और’ शब्द के प्रयोग में चमत्कार है। इसका प्रयोग तीन बार हुआ है। ‘मैं और’ से तात्पर्य है कि मैं अन्य लोगों से हटकर हूँ, ‘जग और’-यह संसार और ही प्रकार है। इन दोनों के मध्य आया ‘और’ योजक के रूप में आया है।
‘और’ शब्द दोनों संबंधों के मध्य अंतर को स्पष्ट कर रहा है। कवि स्वयं को समाज से हटकर अलग मानता है। उसमें और समाज में अलगाव है। दोनों में कोई नाता नहीं हैं।
‘शीतल वाणी में आग’ होने का अभिप्राय यह है कि उसकी वाणी में शीतलता भले ही दिखाई देती हो, पर उसमें आग जैसे जोशीले विचार भरे रहते हैं। उसके दिल में इस जग के प्रति विद्रोह की भावना है पर वह जोश में होश नहीं खोता। वह अपनी वाणी में शीतलता बनाए रखता है। यहाँ आग से अभिप्राय कवि की आंतरिक पीड़ा से है। वह प्रिय वियोग की विरह वेदना को हृदय में समाए फिरता है। यह वियोग की वेदना उसे निरंतर जलाती रहती है।
‘शीतल वाणी में आग’ विरोधाभास की स्थिति है। पर यह पूरी तरह विरोधी नहीं है। यहाँ विरोध का आभास मात्र हाेता है।
बच्चे किस बात की आशा में नीड़ों से झाँक रहे होंगे?
बच्चे इस बात की आशा में नीड़ों (घोंसलों-घरों) से झाँक रहे होंगे कि उनके माँ-बाप लौटकर घर आ रहे होंगे। ये बच्चे भूखे प्यासे होंगे। उन्हें खाने की चीज मिलने की भी प्रतीक्षा होगी। वे सारे दिन अकेले रहकर तंग आ गए होंगे अत: वे अपने माता-पिता से मिलने को उत्सुक होंगे। इसीलिए वे नीड़ों से झाँककर उनके आने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे।
‘दिन जल्दी -जल्दी ढलता है’ पंक्ति की आवृत्ति चार बार हुई है। यह पंक्ति कविता की टेक है। इस आवृत्ति से कविता की गेयता की विशेषता का पता चलता है।
‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है’ इस तथ्य की ओर संकेत करता है जीवन की घड़ियाँ जल्दी बीतती जाती हैं अत: लक्ष्य तक पहुँचने के प्रयास में देरी मत करो। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। समय गतिशील एवं परिवर्तनशील है। यह किसी के रोके रुकता नहीं। अत: लक्ष्य प्राप्ति मे देर नहीं करनी चाहिए।
संसार मे कष्टों को सहते हुए भी खुशी और मस्ती का माहौल कैसे पैदा किया जा सकता है?
संसार में सुख और दु:ख दोनों रहते हैं। यहाँ रहकर हमे अनेक कष्ट भी सहने पड़ते हैं। कष्ट निराशा लाते है। पर हम इन कष्टों को सहते हुए भी खुशी और मस्ती का माहौल (वातावरण) पैदा करना चाहिए। अब प्रश्न उठता है कि ऐसा माहौल कैसे पैदा किया जा सकता है। हमें इस संसार के यथार्थ को समझना होगा। कष्ट इस संसार का यथार्थ है। इनसे पूरी तरह छुटकारा मिलना असंभव है। यदि हम इन कष्टो को रो-पीटकर झेलेंगे तो जीवन जीना कठिन हो जाएगा। कष्टों को सहते हुए भी खुशी-मस्ती का अनुभव किया जा सकता है। खुशी-मस्ती के माहौल में कष्ट झेलना सरल हो जाता है। इसके लिए हमे सकारात्मक दृष्टि रखनी होगी।
नीचे जयशंकर प्रसाद की आत्मकथा कविता दी जा रही है। क्या पाठ में दी गई आत्मपरिचय कविता से इस कविता का आपको कोई संबंध दिखाई देता है? चर्चा करें?
आत्मकथ्य
मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की। सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की? छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ? क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ। इन सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा में अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।
(जयशंकर प्रसाद)
दोनों कविताओंमें व्यक्तिवादी अर्थात् आत्मनिष्ठता के भाव की प्रबलता है। दूसरी कविता ‘आत्मकथ्य’ का कवि निराशा के भँवर में उतरता- डूबता प्रतीत होता है। ‘आत्मपरिचय’ कविता का कवि अपने प्रति अधिक आश्वस्त जान पड़ता है।
‘आत्म-परिचय’ कविता का प्रतिपाद्य स्पष्ट कीजिए।
‘आत्म-परिचय’ शीर्षक कविता में कवि अपना परिचय देता है। उसका कहना है कि वह समाज (जग) का अंग होते हुए भी उससे अलग व्यक्तित्व का स्वामी है। स्वयं को जानना इस संसार को जानने से भी अधिक कठिन है। समाज से व्यक्ति का नाता खट्टा--मीठा तो होता ही है, पर जगजीवन से पूरी तरह निरपेक्ष रहना संभव नहीं है। यह सही है कि यह दुनिया हमें अपने व्यंग्य बाणों से तथा अपने व्यवहार से हमें काफी कष्ट पहुँचाती है, पर फिर भी हम इससे पूरी तरह कटकर नहीं रह सकते। व्यक्ति की अस्मिता एव पहचान इस दुनिया के कारण ही है। इस दुनिया के साथ हमारा द्विधात्मक एवं धात्मक संबंध है। कवि दुनिया में रहकर इसी से संघर्ष करता है। इस जीवन को अनेक विरोधाभासों के मध्य जीना पड़ता है। कवि इन विरोधाभासों के साथ सामजस्य बिठाते हुए जीवन में मस्ती उतार लाता है।
बच्चन द्वारा रचित कविता ‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है, का प्रतिपाद्य लिखिए।
यह कविता बच्चन के काव्य-संग्रह ‘एक गीत’ में संकलित है। अपनी पहली पत्नी श्यामा की अकाल मृत्यु से खिन्न कवि एक लंबे अंतराल के बाद पुन: कवि-कर्म की ओर प्रवृत्त होता है और अपनी पत्नी के बिछोह का दर्द अपनी कविताओं में उँडेल देता है। यह कविता पत्नी की अकाल मृत्यु से उत्पन्न दु:ख, वेदना, पीड़ा और एकाकीपन के बोध की अभिव्यक्ति है। कवि को लगता है कि उसकी पत्नी पारलौकिक जगत से उसे आमंत्रित कर रही है, दिशा-बोध दे रही है। वह उसे कर्म-पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रही है।
इस कविता में कवि कहता है कि काल की गति बड़ी ही विलक्षण है। पता ही नहीं चल पाता कि दिन कब ढल गया। यात्री के मन में घर पहुँचने का उत्साह है अत: वह तेजी से कदम बढ़ाता है। रात्रि गहन और लंबी है। उसे भय है कि कहीं जीवन-पथ में ही काल-रात्रि न आ जाए। अत: दिन भर का थका-माँदा पथिक रात के अंधकार के आने से पहले ही अपनी मंजिल पर पहुँच जाना चाहता है।
कवि देखता है कि पक्षियों को भी संध्या के समय अपने-अपने घोंसलों में पहुँचने की जल्दी है। उसे घोंसलों में प्रतीक्षारत अपने शावकों के पास पहुँचने की आतुरता है। अत: उनके पंखों में ताजगी और सस्फूर्तउड़ान का अनुभव है जो उसे दिन ढलने से पहले ही घोंसलों में पहुँचने का उपक्रम करने को प्रेरित करता है।
लेकिन कवि स्वयं निराश है। उसके घर में ऐसा कोई नहीं है जो उसकी प्रतीक्षा कर रहा हो, कोई उससे मिलने के लिए व्याकुल नहीं है, फिर भला वह घर लौटने की जल्दबाजी क्यों करे! एक आलस्य एवं विषाद का अहसास उसे घेर लेता है। उसका मन कुंठा से भर जाता है तब वह अपनी कर्म-गति में शिथिलता का अनुभव करने लगता है। उसका हृदय मृत पत्नी को याद करके विह्वल हो उठता है। वह देखता है कि दिन जल्दी-जल्दी ढल जाएगा, फिर पूरी रात उसे पत्नी की स्मृति मथने लगेगी। इसी कष्टकारक विछोह की आत्मस्मृतिमूलक अभिव्यंजना ही इस कविता में व्यक्त हुई है। कवि के आत्मपीड़न की अभिव्यक्ति ही इस कविता का प्रतिपाद्य है।
कौन-सा विचार दिन ढलने के बाद लौट रहे पंथी के कदमों को धीमा कर देता है? ‘बच्चन, के गीत के आधार पर उत्तर दीजिए।
सभी प्राणी अपने-अपने घरों की ओर लौटने को व्याकुल हैं क्योंकि घरों में उनकी प्रतीक्षा हो रही होगी। कवि निराश एवं हताश है क्योंकि घर पर उसकी प्रतीक्षा करने वाला कोई नहीं है। भला वह किसके लिए तेज गति से चले। उसे तो यह प्रश्न शिथिल बना देता है। उसका मन उद्विग्न हो उठता है, वह विषाद से घिर जाता है। दिन जल्दी-जल्दी ढलकर उसकी रात्रिकालीन व्यथा को बढ़ाने की ओर बढ़ता जाता है।
बच्चन की कविता ‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है’ के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि शाम होने से पहले गंतव्य के निकट आ पहुँचने पर लोगों की मानसिकता कैसी होती है?
यदि मंजिल दूर हो तो लोगों की वहाँ तक पहुँचने की मानसिकता यह होती है कि कुछ ऐसा हो जाए कि वे अपनी मंजिल पर शीघ्र पहुँच जाएँ। इसके लिए वे कई प्रकार के उपाय भी करते हैं। मंजिल का दूर होना उनके मन में निराशा का भाव भी लाता है। गंतव्य के निकट पहुँचकर लोगों को लगता, दिन जल्दी ढलने लगा है। कहीं मंजिल तक पहुँचने से पहले ही रात न हो जाए। इसलिए थका यात्री भी कदम तेज कर लेता है।
निम्नलिखित काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए:
हो जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं -
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है।
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झोंक रहे होंगे -
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!A. प्रस्तुत काव्यांश में प्रकृति की परिवर्तनशीलता के दृश्य का अपने शब्दों में चित्रण कीजिए। | (i) प्रकृति की परिवर्तनशीलता का दृश्य: दिन ढल चुका है, रात होने वाली है। पथिक जल्दी-जल्दी चलकर शीघ्र घर पहुंच जाना चाहता है। पक्षियों के बच्चे घोंसले से झाँक रहे है। |
B. पंथी कौन है? वह पथ में जल्दी-जल्दी क्यों चलना चाहता है? | (ii) पंथी मंजिल की ओर बढ़ने वाला कवि है। वह जल्दी-जल्दी इसलिए चलना चाहता है ताकि वह अपनी मंजिल तक पहुँच सके। यह मंजिल उसका जीवन भी हो सकती है। |
A. प्रस्तुत काव्यांश में प्रकृति की परिवर्तनशीलता के दृश्य का अपने शब्दों में चित्रण कीजिए। | (i) प्रकृति की परिवर्तनशीलता का दृश्य: दिन ढल चुका है, रात होने वाली है। पथिक जल्दी-जल्दी चलकर शीघ्र घर पहुंच जाना चाहता है। पक्षियों के बच्चे घोंसले से झाँक रहे है। |
B. पंथी कौन है? वह पथ में जल्दी-जल्दी क्यों चलना चाहता है? | (ii) पंथी मंजिल की ओर बढ़ने वाला कवि है। वह जल्दी-जल्दी इसलिए चलना चाहता है ताकि वह अपनी मंजिल तक पहुँच सके। यह मंजिल उसका जीवन भी हो सकती है। |
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