मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया
19 वीं सदी के आखिर से जाती-भेद के बारे में तरह-तरह की पुस्तिकाओं और निबंधों में लिखा जाने लगा था। 'निम्न-जातीय' आन्दोलनों के मराठी प्रणेता ज्योतिबा पहले ने अपनी पुस्तक 'गुलामगिरी' (1871) में जाति-प्रथा के अत्याचारों के बारे में लिखा। 20 वीं सदी के महाराष्ट्र में भीमराव अंबेडकर और मद्रास में ई.वी. रामास्वामी नायकर ने, जो पेरियार के नाम से बेहतर जाने जाते हैं, जाति पर ज़ोरदार कलम चलाई और उनके लेखन पुरे भारत में पढ़े गए। स्थानीय विरोध आंदोलनों और संप्रदायों ने भी प्राचीन धर्मग्रंथों की आलोचना करते हुए, नए और न्यायपूर्ण समाज का सपना बुनने के संघर्ष में लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाएँ और गुटके छापे।
कानपुर के मिल-मज़दूर काशीबाबा ने सन् 1938 में छोटे और बड़े सवाल लिख और छापकर जातीय तथा वर्गीय शोषण के मध्य का रिश्ता समझाने का प्रयत्न किया। सन् 1935 से सन् 1955 के बीच सुदर्शन चक्र के नाम से लिखने वाले एक और मिल मज़दूर का लेखन 'सच्ची कविताएँ नामक एक संग्रह में छापा गया।
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अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत, और ज्ञानोदय होगा?
कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित क्यों थे? यूरोप और भारत से एक-एक उदाहरण लेकर समझाएँ।
उन्नीसवीं सदी में भारत में गरीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का क्या असर हुआ?
मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या मदद की ?
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