बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर उत्तर दीजिये-
श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता। ‘पूर्व लेख’ ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग ‘निर्धारित’ कार्य को ‘अरुचि’ के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावत: मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने व कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। भारत में ऐसे अनेक व्यवसाय या उद्योग हैं जिन्हें ‘हिंदू लोग’ घृणित मानता है और इस कारण इनमें लगे हुए लोगों में अपने काम के प्रति अरुचि व विरक्ति बनी रहती है क्योंकि इन व्यवसायों को करने के कारण ही हिन्दू समाज उन्हें भी घृणित और त्याज्य समझता है, अत: प्रत्येक व्यक्ति ऐसे व्यवसायों से बचना व उनसे भागना चाहता है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अत: यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकारक प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि व आत्म-शक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ा कर निष्क्रिय बना देती है।
1. जाति प्रथा का दोष क्या है?
2. आज की बड़ी समस्या क्या नहीं है और क्या है?
3. व्यक्ति किस प्रकार के व्यवसायों से बचना व भागना चाहता है?
4. क्या बात निर्विवाद रूप से सिद्ध है?
1. जाति प्रथा का सबसे बड़ा दोष यह है कि जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की अपनी इच्छा पर निर्भर नहीं रहता। इसमें मनुष्य की व्यक्तिगत भावना या रुचि को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता।
2. आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न समस्या होते हुए भी इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी बड़ी समस्या यह है कि बहुत से लोग अपने निर्धारित काम को अरुचि के साथ विवशतावश करते हैं। यह प्रवृत्ति टालू काम करने व कम काम करने को प्रेरित करती है।
3. व्यक्ति उन व्यवसायों से बचना एवं भागना चाहता है जिन्हें समाज घृणित मानता है। यही कारण है कि इस प्रकार के कामों में लगे लोग अपना काम अरुचि व विरक्ति के साथ करते हैं। हिंदू समाज इन्हें त्याज्य मानता है।
4. यह बात निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि आर्थिक पहलू से भी ज्यादा खतरनाक एवं हानिकारक जाति प्रथा है। इसका कारण यह है कि यह मनुष्य की स्वाभाविक रुचि एवं आत्मशक्ति को दबाकर उसे निष्क्रिय बना डालती है।
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शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक परंपरा की दृष्टि में असमानता संभावित रहने के बावजूद डॉ. अंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?
सही में डॉ. आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व और मान्यता के लिए जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों व जीवन सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?
आदर्श समाज के तीन तत्त्वों में से एक ‘भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातृता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे?
डॉ. आंबेडकर ने जाति प्रथा के भीतर पेशे के मामले में लचीलापन न होने की जो बात की है-उस संदर्भ में ‘गलता लोहा’ पर पुनर्विचार कीजिए।
आंबेडकर की पुस्तक ‘जाति-भेद का उच्छेद’ की तरह राजकिशोर की पुस्तक भी है ‘जाति कौन तोड़ेगा?’ शिक्षक की सहायता से दोनों उपलब्ध कर पढ़िए।
जाति प्रथा क्यों स्वीकार्य नहीं है?
क्या स्वतंत्रता की बात पर कोई आपत्ति हो सकती है?
जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? भीमराव अंबेडकर के विचारों के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
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