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मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे प्राप्त होती है?
मीठी वाणी बोलने से सुनने वाले के मन से क्रोध और घृणा की भावना सम्पात हो जाती हैं। इसके साथ ही हमारा अंतःकरण प्रसन्न होने लगता हैं प्रभावस्वरूप औरों को सुख और तन को शीतलता प्राप्त होती है।
यहाँ दीपक का मतलब 'भक्तिरूपी ज्ञान' तथा अन्धकार का मतलब 'अज्ञानता' से है। जिस प्रकार दीपक के जलने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है ठीक उसी प्रकार जब ज्ञान का प्रकाश हृदय में प्रज्ज्वलित होता है तब मन के सारे विकार अर्थात भ्रम, संशय का नाश हो जाता है।
ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, पर हम उसे क्यों नहीं देख पाते?
इसमें कोई संदेह नही कि ईश्वर हर प्राणी के भीतर ही नही, बल्कि हर कण में है। किन्तु हमारा मन अज्ञानता, अहंकार, विलासिताओं, इत्यादि में लिप्त है। हम उसे मंदिर, मस्जिदों, गिरजाघरों में ढूंढ़ते हैं जबकि वह सर्वव्यापी है। इस कारण हम ईश्वर को नहीं देख पाते हैं।
संसार में सुखी व्यक्ति कौन है और दुखी कौन? यहाँ ‘सोना’ और ‘जागना’ किसके प्रतीक हैं? इसका प्रयोग यहाँ क्यों किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
कवि के अनुसार संसार में वो लोग सुखी हैं, जो संसार में व्याप्त सुख-सुविधाओं का भोग करते हैं और दुखी वे हैं, जिन्हें ज्ञान की प्राप्ति हो गई है। 'सोना' अज्ञानता का प्रतीक है और 'जागना' ज्ञान का प्रतीक है। जो लोग सांसारिक सुखों में खोए रहते हैं, जीवन के भौतिक सुखों में लिप्त रहते हैं वे सोए हुए हैं और जो सांसारिक सुखों को व्यर्थ समझते हैं, अपने को ईश्वर के प्रति समर्पित करते हैं वे ही जागते हैं। वे संसार की दुर्दशा को दूर करने के लिए चिंतित रहते हैं।
अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है?
मनुष्य को परिष्कार और आत्मोन्नति के प्रयास निरंतर करते रहना चाहिए। निंदा करनेवाले के जरिये ही हमें अपने परिष्कार का अवसर मिलता है। अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने बताया है कि हमें अपने आसपास निंदक रखने चाहिए ताकि वे हमारी त्रुटियों को बता सके। वास्तव में निंदक हमारे सबसे अच्छे हितेषी होते हैं। उनके द्वारा बताए गए त्रुटियों को दूर करके हम अपने स्वभाव को निर्मल बना सकते हैं।
कबीर की उद्धत साखियों की भाषा की विशेषता स्पष्ट कीजिए।
इस पंक्ति में कवि कहता है कि जिस प्रकार हिरण अपनी नाभि से आती सुगंध पर मोहित रहता है परन्तु वह यह नहीं जानता कि यह सुगंध उसकी नाभि में से आ रही है। वह उसे इधर-उधर ढूँढता रहता है। उसी प्रकार मनुष्य भी अज्ञानतावश वास्तविकता को नहीं जानता कि ईश्वर उसी में निवास करता है और उसे प्राप्त करने के लिए धार्मिक स्थलों, अनुष्ठानों में ढूँढता रहता है। परमात्मा को केवल अपनी आत्मा द्वारा ही जाना जा सकता हैं। वह तो जीवन रूपी प्रकाश हैं।
कबीर कहते हैं कि जब मैं था अर्थात् मेरे अंदर 'मैं' की भावना, अहंकार विद्यमान था तब मेरे पास हरी नही थे और अब हरी हैं, भगवान हैं तो मेरे अंदर अहंकार का भाव नहीं है। अब मेरे ह्रदय मैं प्रभु के ज्ञान के दीपक का प्रकाश फैल गया है तो अज्ञान रूपी अंधकार मिट गया हैं। क्योंकि जब तक मनुष्य में अज्ञान रुपी अंधकार छाया है वह ईश्वर को नहीं पा सकता। जब ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है तब अहंकार दूर हो जाता है।
पाठ में आए निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रुप उदाहरण के अनुसार लिखिए। -
उदाहरण − जिवै - जीना
औरन, माँहि, देख्या, भुवंगम, नेड़ा, आँगणि, साबण, मुवा, पीव, जालौं, तास।
जिवै - जीना
औरन - दूसरों;
माँहि - के अंदर (में)
देख्या - देखा
भुवंगम - साँप
नेड़ा - निकट
आँगणि - आँगन
साबण - साबुन
मुवा - मरा
पीव - प्रेम
जालौं - जलना
तास - उसका
कबीर कहते हैं की मनुष्य को ऐसी बाणी बोलनी चाहिये जिसमें हमारा अंहकार न दिखता हो अर्थात् हमारी बातों से हमारा अंहकार प्रकट नही होना चाहिये ऐसी मीठी बाणी बोलने से अपने को भी संतोष होता है तथा दूसरों को भी सुख मिलता है, दूसरे भी प्रसन्न होते है
इसका अभिप्राय मन से अंहकार को दूर करना है अर्थात् अंहकार रहित वाणी का प्रयोग करना चाहिये ।
जब हम मीठा और अच्छा बोलते हैं तो स्वयं को बहुत संतोष मिलता है। सकरात्मक ऊर्जा एवं तरंगे शरीर को शीतल कर देती है गन्दा, कड़वा और नकरात्मक बोलने से मन कुंठित हो जाता है।
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