Sponsor Area
आचार्य हजारी प्रमाद द्विवेदी का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं तथा भाषा-शैली की विशेषताएँ लिखो।
जीवन-परिचय. हजारीप्रसाद द्विवेदी का जन्म बलिया जिले मे “दूबे का छपरा” नामक ग्राम में सन् 1907 ई. में हुआ। आपके पिता पं. अनमोल द्विवेदी ने पुत्र को संस्कृत एवं ज्योतिष के अध्ययन की ओर प्रेरित किया। आपने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से साहित्याचार्य एवं ज्योतिषाचार्य की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। सन् 1940 से 1950 ई. तक द्विवेदी जी ने शांति निकेतन मे हिंदी भवन के निदेशक के रूप में कार्य किया। सन् 1950 ई. में द्विवेदी जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष नियुक्त हुए। सन् 1960 से 1966 ई. तक वे पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे। इसके उपरांत आपने भारत सरकार की हिंदी संबंधी योजनाओं के कार्यान्वयन का दायित्व ग्रहण किया। आप उत्तर प्रदेश सरकार की हिंदी ग्रंथ अकादमी के शासी मंडल के अध्यक्ष भी रहे। 19 मई, 1979 ई. को दिल्ली में इनका देहावसान हुआ। द्विवेदी जी का अध्ययन क्षेत्र अत्यंत व्यापक था। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बंगला आदि भाषाओं एवं इतिहास दर्शन, संस्कृति, धर्म आदि विषयों में उनकी विशेष गति थी। इसीलिए उनकी रचनाओं में विषय-प्रतिपादन और शब्द-प्रयोग की विविधता मिलती है।
रचनाएँ: हिंदी निबंधकारों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पश्चात् द्विवेदी जी का प्रमुख स्थान है। वे उच्च कोटि के निबंधकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं
निबंध-संग्रह: (1) अशोक के फूल (2) विचार और वितर्क (3) कल्पलता (4) कुटज (5) आलोक पर्व।
आलोचनात्मक कृतियाँ: (1) सूर-साहित्य (2) कबीर (3) हिंदी साहित्य की भूमिका (4) कालिदास की लालित्य योजना।
उपन्यास: (1) चारुचंद्रलेख (2) बाणभट्ट की आत्मकथा (3) पुनर्नवा (4) अमानदास का पोथा।
द्विवेदी जी की सभी रचनाएँ ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली’ के ग्यारह भागों में संकलित हैं।
भाषा-शैली: द्विवेदी जी की भाषा सरल होते हुए भी प्रांजल है। उसमें प्रवाह का गुण विद्यमान है तथा भाव-व्यजक भी है। द्विवेदी जी की भाषा अत्यंत समृद्ध है। उसमें गंभीर चिंतन के साथ हास्य और व्यंग्य का पुट सर्वत्र मिलता है। बीच-बीच मे वे संस्कृत के साहित्यिक उद्धरण भी देते चलते हैं। भाषा भावानुकूल है। संस्कृत की तत्सम शब्दावली के मध्य मुहावरों और अंग्रेजी उर्दू आदि के शब्दों के प्रयोग से भाषा प्रभावी तथा ओजपूर्ण बन गई है। गंभीर विषय के बीच-बीच में हास्य एवं व्यंग्य के छींटे मिलते हैं। उनकी गद्य-शैली हिंदी साहित्यकार के लिए वरदान स्वरूप है।
साहित्यिक विशेषताएँ: द्विवेदी जी का पूरा कथा-साहित्य समाज के जात-पाँत मजहबों में विभाजन और आधी आबादी (स्त्री) के दलन की पीड़ा को सबसे बड़े सांस्कृतिक संकट के रूप पहचानने. रचने और सामंजस्य में समाधान खोजने का साहित्य है। वे स्त्री को सामाजिक अन्याय का सबसे बड़ा शिकार मानते हैं तथा सांस्कृतिक-ऐतिहासिक संदर्भ में उसकी पीड़ा का गहरा विश्लेषण करते हुए सरस श्रद्धा के साथ उसकी महिमा प्रतिष्ठित करते हैं-विशेषकर बाणभट्ट की आत्मकथा में। मानवता और लोक से विमुख कोई भी विज्ञान, तंत्र-मंत्र, विश्वास या सिद्धान्त उन्हें ग्राह्य नहीं है और मानव की जिजीविषा और विजययात्रा में उनकी अखंड आस्था है। इसी से वे मानवतावादी साहित्यकार व समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
द्विवेदी जी का निबंध-साहित्य इस अर्थ में बड़े महत्त्व का है कि साहित्य-दर्शन तथा समाज-व्यवस्था संबंधी उनकी कई मौलिक उद्भावनाएँ मूलत: निबंधों में ही मिलती हैं, पर यह निचार-सामग्री पांडित्य के बोझ से आक्रांत होने की जगह उसके बोध से अभिषिक्त है। अपने लेखन द्वारा निबंध-विधा को सर्जनात्मक साहित्य की कोटि में ला देने वाले द्विवेदी जी के ये निबंध व्यक्तित्व व्यंजना और आत्मपरक शैली से युक्त हैं।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
जहाँ बैठ के यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निर्धूम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गर्मी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आस-पास बहुत हैं लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भाँति। कबीरदास को इस तरह पंद्रह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्या कि बस दिन फूले और फिर खंखड़-के-खंखड़-’दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास!’ ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले। फूल है शिरीष। वसंत के आगमन के साय लहक उठता है, आषाढ़ तक जो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्द्यात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है।
1. जहाँ बैठकर लेखक यह लेख लिख रहा है वहाँ कैसा वातावरण है?
2. शिरीष के कुलों की क्या विशेषता बताई गई है?
3. कबीर का क्या कहना था?
4. शिरीष कब से कब तक फूलता है? वह क्या प्रचार करता जान पड़ता है?
1. जहाँ बैठकर लेखक यह लेख लिख रहा है वहाँ चारों ओर शिरीष के अनेक पेड़ हैं। इस समय जेठ मास की भयंकर गर्मी पड़ रही है। सारी धरती अग्नि का कुंड बनी हुई है।
2. शिरीष के फूलों की यह विशेषता बताई गई है कि वे जेठमास की भयंकर गर्मी में भी फूलने की हिम्मत करते हैं। उसके अलावा कनेर और अमलतास इस मौसम में दिखाई देता है, पर शिरीष के फूल की तुलना उनसे नहीं की जा सकती। अमलतास केवल 15-20 दिन के लिए फूलता है।
3. कबीर को 15 दिन के लिए किसी फूल का लहकना पसंद नहीं था। वे कहते थे-’दिस दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास।’ पलाश दस दिन के लिए वसंत ऋतु में फूलता है।
4. शिरीष तो वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है और आषाढ़ तक पूरी तरह मस्ती के साथ खिलता है। मन रम जाए तो भादों के मास में भी फूलता रहता है। यह उमस व लू में मरता नहीं बल्कि यह (शिरीष) तो कालजयी अवधूत की तरह जीवन की अजेयता के मंत्र का प्रचार करता रहता है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
वास्यायन ने ‘कामसूत्र’ में बताया है कि वाटिका के सघन छायादार वृक्षों की छाया में ही झूला (प्रेंखा दोला) लगाया जाना चाहिए। यद्यपि पुराने कवि बकुल के पेड़ में ऐसी दोलाओं को लगा देखना चाहते थे, पर शिरीष भी क्या बुरा है! डाल इसकी अपेक्षाकृत कमजोर जरूर होती है, पर उसमें झूलनेवालियों का वजन भी तो बहुत ज्यादा नहीं होता। कवियों की यही तो बुरी आदत है कि वजन का एकदम खयाल नहीं करते। मैं तुंदिल नरपतियों की बात नहीं कह रहा हूँ, वे चाहे तो लोहे का पेड़ बनवा लें। शिरीष का फूल संस्कृत-साहित्य में बहुत कोमल माना गया है। मेरा अनुमान है कि कालिदास ने यह बात शुरू-शुरू में प्रचार की होगी। उसका इस पुष्प पर कुछ पक्षपात था (मेरा भी है)। कह गए हैं, शिरीष पुष्प केवल भौंरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है, पक्षियों का बिल्कुल नहीं।
1. वात्स्यायन किसमें क्या बताया है?
2. पुराने कवि क्या देखना चाहते थे जबकि इस लेखक का क्या मत है?
3. शिरीष के कुल को सस्कृंत-साहित्य में क्या माना गया है?
4. कालिदास क्या कह गए है?
1. वात्सायन ने अपनी रचना ‘कामसूत्र’ में यह बताया है कि रमणियों के झुल्ने के लिए झूला वाटिका के सघन छायादार वृक्षों की छाया में ही लगाया जाना चाहिए।
2. पुराने कवियों के विचार से बकुल (मौलसिरी) के पेड़ में ऐसा झूला लगाना चाहिए। जबकि कवि का मत है कि इसके लिए शिरीष भी बहुत ठीक है। शिरीष की डाल कुछ कमजोर जरूर होती है, पर इसमें झूलने वाली रमणियों का वजन भी तो कम होता है। हाँ, यह मोटी तोंदवालों के लिए नहीं है।
3. शिरीष के फूल को संस्कृत साहित्य में बहुत कोमल माना गया है।
4. कालिदास यह कह गए हैं कि शिरीष का फूल केवल भौंरों के कोमल पदों का दबाव सहन कर सकता है। पक्षियो का दबाव वहीं नहीं सह सकता।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत् के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी-’धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फूलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है! सुनता कौन है? महाकाल देवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे!
1. पुरान में क्या लिप्सा होती है? क्या बातें सत्य हैं?
2. तुलसी ने किस सच्चाई पर मुहर लगाई थी?
3. लेखक शिरीष के फूलों को देखकर क्या कहता है?
4. मूर्ख क्या समझते हैं? उन्हें क्या करना चाहिए?
1. पुराने में अधिकार बनाए रखने की लिप्सा होती है। इस संसार में बुढ़ापा और मृत्यु दोनों बातें सत्य एवं अतिप्रामाणिक हैं।
2. तुलसीदास ने इस सच्चाई पर मुहर लगाई थी कि जो भी चीज फलती है वह झड़ती अवश्य है।
3. लेखक शिरीष के फूलों को देखकर यह कहता है कि इन्हें फूलते ही यह समझ लेना चाहिए कि इनको झड़ना भी अवश्य पड़ेगा। पर भला सुनता कौन है? जो थोड़े कमजोर हैं वे तो झड़ रहे है, पर जिनमें थोड़ा-सा भी दम है, वे टिके रहते हैं।
4. मूर्ख यह समझते दें कि वे जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो वे कालदेवता की नजर से बच जाएँगे। पर यह सच नहीं है। उन्हें हिलते- डुलते रहना चाहिए, अपना स्थान बदलते रहना चाहिए। यदि वे आगे की ओर मुँह किए रहे तो काल के वार से बचे रहेंगे। जमना मरने के समान है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुःख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हजरत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस खींचता है। जरूर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तंतुजाल और ऐसे सुकुमारसर को कैसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत-कुछ इस शिरीष के समान ही थे, मस्त और बेपरवा, पर सरस और मादक। कालिदास भी जरूर अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और ‘मेघदूत’ का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त अनाविल उत्उन्मुक्त हदय मे उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है?
1. शिरीष को क्या बताया गया है और क्यों?
2. एक वनस्पतिशास्त्री ने लेखक को क्या बताया है?
3. कबीर किस प्रकार के थे?
4. कालिदास के बारे में क्या बताया गया है? लेखक किसे कवि बताता है?
1. शिरीष को एक अद्भुत अवधूत (संन्यासी) बताया गया है इसका कारण यह है कि शिरीष सुख-दु:ख में एक समान बना रहता है। वह किसी भी स्थिति में हार नहीं मानता। उसे किसी से कुछ लेना-देना नहीं होता। वह तो भयंकर गर्मी के मध्य से भी अपना रस खींच लेता है। यह आठों पहर मस्त बना रहता है।
2. एक वनस्पतिशास्त्री ने लेखक को बताया कि शिरीष उस श्रेणी का वृक्ष है जो वायुमंडल से अपना रस खींचते हैं। लेखक भी इस बात को मानता है क्योंकि भयंकर लू में इसके तंतुजाल कोमल बने रहते हैं। यह सुकुमार केसर को भी उगा लेता है।
3. कबीर बहुत कुछ शिरीष के समान मस्त, बेपरवाह, सरस और मादक थे। तभी उनके मुँह से सरस रचनाएँ निकली थीं।
4. कालिदास एक अनासक्त योगी रहे होंगे। जिस प्रकार शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से उपज सकते हैं, इसी प्रकार कालिदास के हृदय से ‘मेघदूत’ काव्य निकला होगा। लेखक का कहना है कि कवि के लिए अनासक्त रहना और फक्कड़ बने रहना आवश्यक है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
इस चिलकती धूप में इतनइतना-इतनास वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन-धूप, वर्षा, अंधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बढ़ाबूढ़ा सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है। शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गांधी भी वायुमंडल से रस खीचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूं, तब-तब क्य उठती है-हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!
1. अवधूत किसे कहते हैं? शिरीष को अवधूत मानना कहाँ तक तर्कसंगत है?
2. किन आधारों पर लेखक महात्मा गांधी और शिरीष को समान धरातल पर पाता है?
3. देश के ऊपर से गुजर रहे बवंडर का क्या स्वरूप है? इससे कैसे जूझा जा सकता है?
4. आशय स्पष्ट कीजिए-मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूँ तब-तब हूक उठती है-हाय, वह अवधूत आज कहाँ है?
1. अवधूत संन्यासी होता है। वह सांसारिक सुख-दु:ख से बेलाग होकर मस्ती में जीता है। शिरीष भी एक अवधूत की तरह जीता है। जिस प्रकार अवधूत कठिन परिस्थितियों में भी फक्कड़ की तरह जीता है, उसी प्रकार शिरीष भी भयंकर लू की मार झेलकर भी खूब फलता-फूलता है।
2. महात्मा गांधी देश के अंदर मची मार-काट, अग्निदाह, लूटपाट तथा खून-खच्चर के बीच में भी स्वयं को स्थिर बनाए रख सके थे। शिरीष में भी यह गुण विद्यमान है। शिरीष भी विषम स्थितियों में भी स्थिर बना रहता है। दोनों में यह समानता है।
3. देश के ऊपर गुजर रहा बवंडर आपसी संघर्ष का है। लोग जाति, धर्म, भाषा के नाम पर लड़-मर रहे हैं। आतंकवाद का बवंडर भी उठ रहा है। इससे जूझने के लिए साहस एवं धैर्य की आवश्यकता है।
4. इसका आशय यह है कि आज के समय में ऐसे अवधूत देखने में नहीं आते जो भारी कष्टों के मध्य भी जीवन को मस्ती के साथ जीने का साहस रखते हों। शिरीष जैसी जिजीविषा का अभाव लेखक के हृदय को दुखी कर जाता है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
इस चिलकती धूप में इतनइतना-इतनास वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन-धूप, वर्षा, अंधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बढ़ाबूढ़ा सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है। शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गांधी भी वायुमंडल से रस खीचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूं, तब-तब क्य उठती है-हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!
1. शिरीष को पक्का अवधूत क्यों कहा है?
2. वर्तमान समाज की उथल-पुथल के सदंर्भ में शिरीष वृक्ष से क्या प्रेरणा ग्रहण की जा सकती है?
3. लेेखक ने ‘ एक बूढ़ा ’ किसे कहा है? किस सदंर्भ में उसका उल्लेख किया गया है?
4. एक ही व्यक्ति कोमल और कठोर दोनों कैसे हो सकता है? स्पष्ट कीजिए।
1. अवधूत सुख-दु:ख, लाभ-हानि की चिंता से परे रहने वाले संन्यासी को कहा जाता है। शिरीष का पेड़ भी भूधूप-वर्षाँधी-लू की चिंता न कर खड़ा रहता है और सरस बना रहता है, इसलिए उसे ‘पक्का अवधूत ‘ कहा गया है।
2. समाज में मच रही मार-काट, अग्निकांड, लूट-पाट आदि अशांतिकर परिस्थितियों में भी मनुष्य स्थिर बना रह सकता है। मनुष्य यही शिरीष के वृक्ष से प्रेरणा ग्रहण कर सकता है।
3. लेखक ने एक आ बूढ़ाहात्मा गाँधी को कहा है। समाज में कटती अशांति और विरोधी वातावरण के बीच भी गाँधी जी ने अपने सिद्धांतों की रक्षा की थी और संसंघर्षहीं रखा था।
4. कोमलता का संबंध मन की दयालुता और सहानुभूति से है। दयालु और कोमल हृदय व्यक्ति भी अपने सिद्धांत और व्यवहार में कठोर हो सकता है। अत: दोनों का संबंध संभव है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:-
इस चिलकती धूप में इतनइतना-इतनास वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाह्य परिवर्तन-धूप, वर्षा, अंधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बढ़ाबूढ़ा सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है। शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गांधी भी वायुमंडल से रस खीचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूं, तब-तब क्य उठती है-हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!
1. शिरीष की तुलना अवधूत से क्यों की गई है?
2. ‘देश का एक बूढ़ा‘ का सकेत किसकी ओर है? वह कैसी स्थितियों में स्थिर रह सका था?
3. शिरीष को जब-तब देखकर लेखक के मन में हूक क्यों उठती है?
4. गद्याशं के आधार पर शिरीष वृक्ष के स्वभाव पर टिप्पणी कीजिए।
1. शिरीष की तुलना अवधूत से इसलिए की गई है क्योंकि जिस प्रकार अवधूत अर्थात् संन्यासी सुख-दुख, लाभ-हानि की चिंता से परे रहता है, उसी प्रकार शिरीष का पेड़ भी धूप-वर्षा, आँधी-लू की चिंता न कर खड़ा रहता है और सरस बना रहता है। वह अवधूत के समान अपने स्थान से कभी विचलित नहीं होता।
2. ‘देश का एक बूढ़ा‘ का संकेत महात्मा गाँधी की ओर है। गाँधीजी का उल्लेख यहाँ इसलिए किया गया है क्योंकि वे ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण एवं दमनकारी नीतियों के विरुद्ध तथा अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए डटकर खड़े रहे। उन्होंने अशांति और विरोधी वातावरण में भी अपना संघर्ष जारी रखा।
3. शिरीष को जब-तब देखकर लेखक के मन में हूक इसलिए उठती है क्योंकि आज के युग में शिरीष के समान अवधूत की पहले से अधिक आवश्यकता है। विकट परिस्थितियों मे भी. रमस्थिरने रहने का जैसा साहस शिरीष में है, वैसे ही साहसी लोगों की आज समाज को आवश्यकता है।
4. गद्यांश कै आधार पर कहा जा सकता है कि शिरीष का वृक्ष अवधूत के समान सभी प्रकार की परिस्थितियों में अपने अस्तित्व की रक्षा में समर्थ है। वह बाहरी परिवर्तनों से विचलित नहीं होता। उसमे गजब की सहनशक्ति है। वह वायुमंडल से अपना रस खींचकर कोमल और कठोर बना रहता है। वह हर परिस्थिति में कुशलतापूर्वक जी लेता है।
शिरीष के फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है। यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत हाेते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्य-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।
लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना है?
लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) इसलिए कहा है क्योंकि जिस प्रकार विषय-वासनाओं से कोई संन्यासी ऊपर उठ जाता है वैसे ही शिरीप भी कामनाओं से ऊपर उठा प्रतीत होता है। वह कालजयी इस रूप में है कि काल का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। शिरीष भयंकर गर्मी में फलता-फूलता रहता है। यह वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है और आषाढ़- भादों तक फलता-फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलते हैं, लू से हृदय सूखता है तब शिरीष ही एकमात्र कालजयी अवधूत की भांति अजेय बना रहता है और लोगों को अजेयता का मंत्र देता रहता है। शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। शिरीष की तुलना में अन्य कोई वृक्ष नहीं टिकता। शिरीष एक ऐसे अवधूत के समान है जो दु:ख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। यह अवधूत की तरह मन में तरंगें अवश्य जगा देता है।
हृदय की कोमलता को बचाने के लिए कभी-कभी व्यवहार में कठोरता लानी जरूरी हो जाती है। शिरीष के फूलों की कोमलता को देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब कुछ कोमल है पर यह सच नहीं है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। अंदर की कोमलता को बचाने के लिए ऐसा कठोर व्यवहार जरूरी हो जाता है।
द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रह कर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।
द्विवेदी जी शिरीष के माध्यम से आज के कोलाहल और संघर्ष से भरी जीवन स्थितियों में अविचलित रहकर जिजीविषा को बनाए रखने की शिक्षा दो है। शिरीष का वृक्ष अनासक्त योगी की तरह अविचल बना रहता है। शिरीष अत्यंत कठिन एवं विषय परिस्थितियों में भी अपनी जीने की शक्ति बरकरार रखता है। जीवन में भी संघर्ष है और शिरीष भी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करता है। वह किसी से हार नहीं मानता। वह अजेयता के मंत्र का प्रचार करता रहता है। वे महाकाल देवता के सपासप कोड़े खाकर भी ऊर्ध्वमुखी बन रहते हैं और टिके रहते हैं। शिरीष में फक्कड़ाना मस्ती होती है। इसमें जिजीविषा होती है और हैंह हमारे लिए अनुकरणीय है। शिरीष सीख देता है कि समस्त कोलाहल और संघर्ष के मध्य भी जीने की इच्छा बनाए रखो। इससे घबराना उचित नहीं है।
हाय वह अवधूत आज कहाँ है? ऐसा कहकर लेखक ने वर्तमान समय में आत्मबल के पतन और देह-बल शारीरिक ताकत) की प्रमुखता से उत्पन्न संकट की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। अवधूत तो विषय-वासनाओं से ऊपर उठा महात्मा होता है। शिरीष उसका प्रतीक है। वर्तमान समय में लोगों का आत्मबल घटता जा रहा है। देह-बल उस पर हावी होता चला जा रहा है। इससे एक प्रकार का संकट उत्पन्न चला रहा है। अब अवधूतों की स्वीकार्यता भी घटती चली जा रही है। शारीरिक ताकत का प्रदर्शन ही सब कुछ होकर रह गया है।
कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिरप्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय-एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य-कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाइये।
लेखक चाहता है कि कवि को अनासक्त योगी के समान होना चाहिए। उसमें स्थिरप्रज्ञता अर्थात् अविचल बुद्धि होनी चाहिए तथा एक अच्छी तरह तपे हुए प्रेमी का हृदय भी होना आवश्यक है। निश्चय ही लेखक ने साहित्य रचना के लिए बहुत ऊँचा मानदड निर्धारित किया है। कवि जब तक अनासक्त योगी बना रहेगा तभी यथार्थ का चित्रण कर पाएगा। उसकी बुद्धि स्थिर रहनी आवश्यक है। कविता का संबध हृदय से है अत: उसका हृदय विदग्ध प्रेमी का होना चाहिए। विदग्धता मैं व्यक्ति (प्रेमी) तपकर खरा बनता है। ये सभी गुण कवि के लिए अनुकरणीय हैं, पर इन सब गुणों का एक व्यक्ति में समाविष्ट होना सरल बात नहीं है। ये सभी गुण वांछनीय हैं। इनको आदर्शवादी कहा जा सकता है।
Sponsor Area
सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्धजीवी हो सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
काल सबको अपना ग्रास बना लेता है। काल की मार से बचते हुए दीर्घजीवी होने के लिए अपने व्यवहार में समयानुकूल परिवर्तन लाना बहुत आवश्यक है। नित्य परिस्थितियाँ बदल रही है। यदि हम भी नहीं बदले तो हम अपनी गतिशीलता को नहीं बनाए रख पाएँगे। पाठ में इस बात को शिरीष वृक्ष के माध्यम से समझाया गया है। शिरीष के पुराने फल-फूल-पत्ते समय की माँग को देखकर अपना रास्ता नहीं छोड़ते। गद्दी से चिपकने वाले नेता भी अपनी गतिशीलता को खो देते हैं। हमें अपने व्यवहार की जड़ता को छोड़ना होगा। ऐसा करके ही हम लंबे समय तब बने रह सकते हैं।
आशय स्पष्ट कीजिए-
दुरत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का सघंर्ष निरतंर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा पाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की और मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे।
जीवनी शक्ति और सब जगह समाई काल रूपी अग्नि का आपस में निरंतर संघर्ष चलता रहता है। काल का प्रभाव बड़ा व्यापक है। मूर्ख व्यक्ति यह समझते हैं कि जहाँ हम हैं वहीं देर तक बने रहना चाहिए। इससे वे कालदेवता की नजर से बच जाएँगे पर यह सच नहीं है। वे भोले होने के कारण ऐसा सोचते हैं। यदि यमराज की मार से बचना है तो हिलते-डुलते रहना चाहिए, स्थान भी बदलते रहना चाहिए। पीछे मत छिपो बल्कि अपना मुँह आगे की ओर रखो। कहीं भी जमना मरने के समान है।
आशय स्पष्ट कीजिए-
जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है ?..मैं कहता हूँ कि कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।
लेखक कवि की पहचान यह बताता है कि उसे अनासक्त रहना चाहिए अर्थात् किसी के साथ ज्यादा लगाव नहीं रखना चाहिए। उसे फक्कड़ बनकर रहना चाहिए। तभी वह कवि बन सकता है। जो किए-धरे के हिसाब-किताब मे उलझा रहता है वह कवि नहीं हो सकता। लेखक बार-बार कहता है कि यदि कवि बनना है तो फक्कड़ बनी। कफक्कड़ताकवि-कर्म कराता है।
आशय स्पष्ट कीजिए-
फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
फूल हों या पेड़ हों, वे अपने आप में संपूर्ण नहीं हैं। वह किसी अन्य वस्तु की ओर इशारा करने वाला संकेत है। वह इशारा करता है। हमें फूल या पेड़ को ही सब कुछ नहीं मान लेना चाहिए।
शिरीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है। ज्येष्ठ माह की प्रचंड गर्मी में फूलने वाले फूल को शीतपुष्प संज्ञा किस आधार पर दी गई होगी?
शिरीष पुष्प में सहनशीलता है। वह मौसम में आए प्रत्येक परिवर्तन को सहर्ष स्वीकार कर लेता है और अपना संतुलन बनाए रखता है। वह वसंत के आगमन के साथ खिल जाता है और ग्रीष्म की तपती धूप में भी मस्त बना रहता है। शिरीष के पुष्प को शशीतपुष्पभी कहा जाता है। यह ज्येष्ठ माह की भयंकर गर्मी में फूलने वाला पुष्प है फिर भी इसे शीतपुष्प की संज्ञा दी गई है। गर्मी की मार झेलकर भी यह पुष्प शीत (ठंडा) बना रहता है। यह मन में ठंडक पैदा करता जान पड़ता है। इस फूल की इसी विशेषता को ध्यान में रखकर इसे शीतपुष्प की संज्ञा दी गई होगी।
गाँधीजी हृदय से बड़े कोमल थे। वे सत्य, अहिंसा, प्रेम आदि कोमल भावों को अपनाने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने सदा दूसरों का भला चाहा। अंग्रेजों के प्रति भी वे कठोर न थे। दूसरी ओर वे अनुशासन एवं नियमों के मामले में कठोर थे। ये दोनों विपरीत भाव गाँधीजी के व्यक्तित्व की विशेषता बन गए थे।
आजकल अंतर्राष्ट्रीय बाजा़र में भारतीय फूलों की बहुत माँग है। बहुत से किसान साग-सब्ज़ी व अन्न उत्पादन छोड़ फूलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इसी मुद्दे को विषय बनाते हुए वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।
पक्ष: भारत में विभिन्न प्रकार के आकर्षक फूल होते हैं। इन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उतारना उचित है। इससे किसानों की आर्थिक दशा सुधरेगी। विपक्ष: यदि अधिकांश फूलों की खेती में लग गए तो अन्न का उत्पादन गिर जाएगा तब अन्न संकट उत्पन्न हो सकता है। छात्र वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।
द्विवेदी जी की वनस्पतियों में ऐसी रुचि का क्या कारण हो सकता है? आज साहित्यिक रचना-फलक पर प्रकृति की उपस्थिति न्यून-सें-न्यून होती जा रही है। तब ऐसी रचनाओं का महत्त्व बढ़ गया है। प्रकृति के प्रति आपका दृष्टिकोण रुचिपूर्ण है या उपेक्षामय इसका मूल्यांकन करें।
द्विवेदीजी शांतिनिकेतन के घने कुंजों के बीच में रहते थे। वहाँ लेखक अपनी दिनचर्या के दौरान, कुसुम, पलास, कचनार, अमलतास आदि के फूलों को फूलते-झड़ते देखा करता था। अत: उनमें द्विवेदी जी की रुचि का होना स्वाभाविक ही है। आज के साहित्यकार के पास समय और दृष्टि का अभाव है।
- ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले।
- पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है।
- जो फरा सो झरा।
- जो जरा सो बुताना।
- जमे कि मरे।
- न ऊधो का लेना, न माधो का देना।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य कर्म की क्या विशेषता है?
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्य कर्म भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास की रचनात्मक परिणति है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश बांग्ला आदि भाषाओं व उनके साहित्य के साथ इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की व्यापकता व गहनता में पैठ कर उनका अगाध पांडित्य नवीन मानवतावादी सर्जना और आलोचना की क्षमता लेकर प्रकट हुआ है। वे ज्ञान को बोध और पांडित्य की सहृदयता में ढाल कर एक ऐसा रचना-संसार हमार सामने उपस्थित करते हैं जो विचार की तेजस्विता, कथन के लालित्य और बंध की शास्त्रीयता का संगम है। इस प्रकार उनमें एक साथ कबीर रवीन्द्रनाथ व तुलसी एकाकार हो उठते हैं। इसके बाद, उससे जो प्राणधारा फूटती है वह लोकधर्मी रोमैंटिक धारा है, जो उनके उच्च कृतित्व को सहजग्राह्य बनाए रखती है। उनकी सांस्कृतिक दृष्टि जबरदस्त है। उसमें इस बात पर विशेष बल है कि भारतीय संस्कृति किसी एक जाति की देन नहीं, बल्कि समय-समय पर उपस्थित अनेक जातियों के श्रेष्ठ साधनांशों के लवण-नीर संयोग से उसका विकास हुआ है। उसकी मूल चेतना विराट मानवतावाद है।
लेखक किस बात से हैरान हो जाता है?
लेखक मुग्ध और विस्मय-विग्रह होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता है। वह कहता है कि अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुंतला बहुत सुंदर थी। सुंदर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय से वह सौंदर्य डुबकी लगाकर निकला है। शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कंजूसी नहीं थी कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी अच्छे- भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था; लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ, कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुतंला के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।
शिरीष के फूलों की कोमलता को देखकर परवर्ती कवियों ने क्या समझ लिया? लेखक किस पर, क्या व्यंग्य करता है?
शिरीष के फूलों की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है! यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।
‘शिरीष के फूल ‘ पाठ में लेखक शिरीष के फूल की किस विशेषता को रेखांकित करता है? वह मानव को क्या संदेश देता है?
शिरीष का फूल आँधी लू और गरमी की प्रचंडता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौंदर्य बिखेर रहे शिरीष के माध्यम से मनुष्य की अजेय जिजीविषा और तुमुल कोलाहल-कलह के बीच धैर्यपूर्वक लोक के साथ चिंतारत, कर्त्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित करता है। निबंध की शुरूआत में लेखक शिरीष पुष्प की कोमल सुंदरता का जाल बुनता है फिर उसे भेदकर उसके इतिहास में और फिर उसके जरिए मध्यकाल के सांस्कृतिक इतिहास में पैठता है, फिर तत्कालीन जीवन व सामंती वैभव विलास को सावधानी से उकरते हुए उसका खोखलापन भी उजागर करता है। कवि इस पाठ में निरंतर आगे बढ़ते जाने की प्रेरणा देता है।
निबंधकार ने शिरीष के माध्यम से कोमल और कठोर भावों का सम्मिश्रण कैसे किया है?
निबंधकार ने शिरीष के माध्यम से कोमल तथा कठोर भावों का सम्मिश्रण किया है। लेखक बताता है कि शिरीष के फूल कोमल होते हैं परंतु उसके फल बेहद मजबूत होते हैं। ये नए फूलों को आने तक डटे रहते हैं। शिरीष के फूल इतने कोमल होते हैं कि वे सिर्फ भौंरों के पैरों का दबाव सह सकते हैं। वे पक्षियों के पैरों का दबाव सहन नहीं कर सकते।
लेखक ‘शिरीष के फल’ पाठ का उद्देश्य क्या बताता है?
लेखक ‘शिरीष के फूल’ पाठ के द्वारा मानव की अजेय जिजीविषा और कलह के बीच धैर्यपूर्वक बने रहने की शिक्षा देना चाहता है। लेखक शिरीष के पुराने फलों की अधिकार लिप्सा और नए पत्तों और फूलों द्वारा उन्हें धकिया कर बाहर निकालने में साहित्य, समाज और राजनीति में पुरानी और नई पीढ़ी के द्वंद्व को संकेतित किया है।
अधिकार-लिप्सा के बारे में लेखक क्या बताता है?
लेखक बताता है कि भारत में अधिकार लिप्सा की भावना अत्यधिक है। यहाँ लोग तभी अपनी जगह छोड़ते हैं जब उन्हें धकियाकर बाहर निकाला जाता है। यह स्थिति नेता, साहित्य तथा सस्थानों में देखने को मिलती है। पुराने लोग नए जमाने का रुख पहचान नहीं पाते।
Sponsor Area
Sponsor Area