ऋतुराज - कन्यादान
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियां हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज भाग- 2 में संकलित कविता कन्यादान’ से ली गई हैं जिसके रचयिता श्री ऋतुराज हैं। कवि ने आधुनिक युग में समाज में आए परिवर्तनों के आधार पर विवाह के समय बेटी को माँ की ओर से शिक्षा दी है; उसे सचेत किया है। आज के बदलते इस समाज में कोरे आदर्शो की कमजोरी का कोई महत्व शेष नहीं बचा है।
व्याख्या- कवि के अनुसार माँ अपनी लड़की को कन्यादान के समय समझाते हुए कहती हैं कि पानी में झाँककर अपने चेहरे की सुंदरता की ओर केवल निहारते न रहना। केवल अपनी सुंदरता और बनाव-शृंगार की ओर ही ध्यान देना ही तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है बल्कि परछाई दिखाने वाले उस पानी की गहराई के बारे में जान लेना आवश्यक है। जो पानी परछाई दिखाता है और सुंदरता के प्रति तुम्हें आकर्षित करता है, वह डूबकर मृत्यु का कारण भी बन सकता है-उससे सावधान रहना आग केवल रोटियाँ सेंकने के लिए होती है। वह जलने और जलकर मर जाने के लिए नहीं होती-इसलिए उसका शिकार न बनना। नारी जीवन को भ्रम में डालने वाले तरह-तरह के वस्त्र और गहने हैं। ये शाब्दिक धोखे हैं जो स्त्री को जीवन में बांध देने के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं। माँ ने अपनी लड़की को समझाते हुए कहा कि तुम लड़की बने रहना पर कभी भी लड़की की तरह दिखाई न देना सजग और सचेत रहना। समाज में व्याप्त परिवर्तनों को भली-भांति समझना। यह संसार निर्मम है इसलिए उसे भली-भांति समझना।
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मैं लौटुंगी नहीं
मै एक जगी हुई स्त्री हूँ
मैंने अपनी राह देख ली है
अब मैं लौटूँगी नहीं
मैंने ज्ञान के बंद दरवाजे खोल दिए हैं
सोने के गहने तोड़कर फेंक दिए हैं
भाइयो! मैं अब वह नहीं हूँ जो पहले थी
मैं एक जगी हुई स्त्री हूँ
मैंने अपनी राह देख ली है।
अब मैं लौटूँगी नहीं
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