सूर्यकांत त्रिपाठी निराला - उत्साह
अपने अध्यापक/अध्यापिका की सहायता से कीजिए।
• इस कविता में भी निराला फागुन के सौंदर्य में डूब गए हैं। उनमें फागुन की आभा रच गई, ऐसी आभा जिस ने- शब्दों से अलग किया जा सकता है, न फागुन से।
फूटेहैं आमों में बौर
भौर वन-वन टूटे हैं।
होली मची ठौर-ठौर,
सभी बंधन छूटे हैं।
फागुन के रंग राग,
बाग-वग फाग मचा है,
भर गये मोती के झाग,
जनों के मन लूटे हैं।
माथे अबीर से लाल,
गाल सेंदुर से देखे,
आँखें हुए हैं गुलाल,
गेरू के ढेले कूटे हैं।
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