जयशंकर प्रसाद - आत्मकथ्य
कवि ने सुख के जिस स्वप्न को देखा था उसे वह प्राप्त नहीं कर पाया था। वह स्वप्न तो ही रह गया था पर उसकी याद कवि के मन में गहराई से जमी हुई थी। कवि के हृदय में अपने प्रिय की सुखद छवि विद्यमान थी। उसका प्रिय भोला-भाला था जिसके लिए कवि ने ‘सरलते’ शब्द का प्रयोग किया है। उसके लिए अतीत के उन रस से भीगे दिनों को भुला पाना कभी भी संभव नहीं हो पाया। वे प्यार-भरी मधुर चाँदनी रातें उसके लिए सदा याद रखने योग्य थीं। वे उसे अलौकिक आनंद प्रदान करती थीं। प्रिय की हंसी का स्रोत उसके जीवन के कण-कण को सराबोर किए रहता था पर वह कल्पना मात्र था। जब तक सपना आँखों के सामने छाया रहा तब तक वह प्रसन्नता से भरा रहा पर स्वप्न के समाप्त होते ही जीवन की वास्तविकता उसके सामने आ गई। उसकी आनंद-कल्पना अधूरी रह गई। उसका प्रिय अपार सौंदर्य का स्वामी था। उसकी गालों की सौंदर्य-लालिमा के सामने तो उषा की लालिमा भी फीकी थी पर अब तो वह दृश्य ही बदल गया है।
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(ख) जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
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