एक मत है कि पूर्ण-आर्थिक समानता न तो संभव है और न ही वांछनीय। एक समाज ज़्यादा से ज़्यादा बहुत अमीर और बहुत ग़रीब लोगों के बीच की खाई को कम करने का प्रयास कर सकता है। क्या आप इस तर्क से सहमत हैं? अपना तर्क दीजिए।
अमीर और ग़रीब के बीच मौजूद आर्थिक असमानता के विभिन्न विचार तथा तर्क निम्नलिखित दिए जा रहे हैं:
- यह विचार पूर्णतया सही हैं कि एक समाज में पूर्ण आर्थिक समानता न तो सम्भव हैं, और न ही वांछनीय है। क्योंकि सभी व्यक्ति न तो अत्याधिक धनि या अत्याधिक ग़रीब हो सकते हैं। समाज में लोगों की अपनी-अपनी भूमिकाएँ, स्थितियाँ और ओहदा होता हैं जिस कारण समाज सुचारु रूप से चल पाता हैं।
- समाज में लोग अपनी क्षमताओं के अनुसार अलग-अलग ओहदा (Rank) प्राप्त करते हैं और उनके काम और जिम्मेदारियाँ उनकी रैंक से ही जुडी होती हैं जिसके अनुसार ही उन्हें भुगतान किया जाता हैं। इसी कारण पूर्ण आर्थिक समानता संभव नहीं हो सकती क्योंकि आय में असमानता तो समाज में रहेगी।
- परन्तु समाज केवल अनेक प्रयासों से ही अमीर और ग़रीब के अंतर को कम कर सकता हैं। इस अंतर को कम करने के लिए ग़रीब वर्ग को विशेष आर्थिक सुविधाएँ प्रदान की जा सकती हैं।
- इसके साथ ही, उन्हें विकास के उचित अवसर प्रदान किए जा सकते हैं तथा संविधान के अंतर्गत उन्हें सरकारी शिक्षण संस्थाओं एवं नौकरियों में कुछ प्रतिशत आरक्षण भी दिया जा सकता है।
- आज अधिकतर लोकतंत्र लोगों को समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयास करते हैं। यह माना जाता है कि समान अवसर कम से कम उन्हें अपनी हालत को सुधारने का मौका देते हैं जिनके पास प्रतिभा और संकल्प है।
- समान अवसरों के साथ भी असमानता बनी रह सकती है, लेकिन इसमें यह संभावना छुपी है कि आवश्यक प्रयासों द्वारा कोई भी समाज में अपनी स्थिति बेहतर कर सकता है।



