1912 में प्रकाशित 'विवाहित महिलाओं के आचरण' पुस्तक के निम्नलिखित अंश को पढ़ें-
'ईश्वर ने औरत जाती को शारीरिक तथा भावनात्मक दोनों ही तरह से ज़्यादा नाज़ुक बनाया है। उन्हें आत्म रक्षा के भी योग्य नहीं बनाया है। इसलिए ईश्वर ने उन्हें जीवन भर पुरषों के सरंक्षण में रहने का भाग्य दिया उन्हें दिया है - कभी पिता के, कभी पति के और कभी पुत्र के। इसलिए महिलाओं को निराश होने की जगह इस बात से अनुगृहीत होना चाहिए कि वे अपने आपको पुरषों की सेवा में समर्पित कर सकती हैं।' क्या इस अनुछेद में व्यक्त मूल्य संविधान के दर्शन से मेल खाते हैं या वे संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ हैं?
उपरोक्त पाठ्यांश में व्यक्त मूल्य संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ हैं।
इसमें मनुष्य की श्रेष्ठता और प्रभुत्व पर अधिक जोर दिया गया है। यह हमारे संवैधानिक मूल्यों के विपरीत है, हमारे संवैधानिक मूल्य समानता के सिद्धांत पर आधारित है। संविधान के अनुसार पुरुष और महिला दोनों समान हैं। सेक्स के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।



